सपने दुलारने की बाकी कसक– अलका कौशिक

औरतों के नाम एक दिन की रिवायत हर साल मज़बूत होती जा रही है। कभी स्कूल-कॉलेज के दिनों में यह दिन सिर्फ एक तारीख भर था जिसे रट लेना होता था आधे-एक नंबर की गारंटी की खातिर! फिर बात आगे बढ़ी, कुछ खेल-तमाशे जुड़ने लगे। लिपस्टिक-बिंदी पर छूट, पार्लरों में आफर, ड्रैस पर पेशकश और साड़ी के साथ कुछ इनाम… खर्रामा-खर्रामा महिला दिवस मनाने का चलन बढ़ता रहा। और इसी के साथ हमारा यह मुगालता भी कि आधी आबादी की नुमाइंदगी करने वाली हमारी बिरादरी की पूछ समाज में बढ़ रही है। मुगालता इसलिए कि कार्पोरेट सीढ़ियों पर बेशक हम उठ चली हैं, जहाज़ों के कॉकपिट में भी उड़ने लगी हैं, उड़ाने लगी हैं मगर कभी-कभी लगता है कि लड़ाई के सिर्फ मोर्चे बदलते हैं, मिजाज़ बदले हैं और लड़ाइयां जारी हैं।

कामकाजी औरत से पूछिए कि रसोई की जद्दोजहद को कुक और मेड के हवाले करने के बाद जब वह सड़कों पर निकलती है, स्टीयरिंग संभालती है तो भी मर्दवाद उसके पीछे-पीछे बराबर हॉर्न बजाने से बाज नहीं आता। फर्राटा गाड़ी भगाती महिला से आज भी आहत होता है मर्दवाद। फिर काम के मोर्चे पर शुरू होता है बराबरी के हक को लेकर ऐसा अदृश्य संघर्ष जो बारीक चश्मों से ही पकड़ में आ सकता है।

और काम का वह मैदान महानगर की अट्टालिकाओं के निर्माण में झोंके जा रहे श्रमिकों से लेकर कार्पोरेट दुनिया का बेरहम बोर्डरूम तक हो सकता है। ज़रा पता तो करके देखिए अपने आसपास बन रही इमारतों में काम कर रहे औरत-मर्द की दिहाड़ी में अंतर को। दफ्तरों में मर्द अफसर ही क्यों ज्यादा होते हैं, हवाई जहाज़ों में मर्द पायलट ही क्यों बाजी मार ले जाते हैं, अखबारों के संपादक भी पुरुष ही ज्यादा क्यों हैं? उद्योग जगत की कमान भी औरतों ने नहीं पुरुषों ने ही संभाल रखी है, क्यों? सेना के अभियानों में पुरुष सैनिक क्यों हैं ज्यादा, सियाचिन के सीने पर तैनात सैन्य अधिकारियों में औरतें सिर्फ गिनती भर क्यों? पनडुब्बी के कॉकपिट से भी महिलाएं गायब क्यों हैं?

क्योंकि हमने हर साल 8 मार्च को सिर्फ एक तारीख के तौर पर देखा है, उसे सिर्फ एक दिन माना है, उस दिन की प्रतीकात्मकता के फेर में ही अटके रह गए हैं। और यह समझने के लिए मुझे फेमिनिस्ट भी नहीं बनना पड़ता। यकीन मानिए, मैं दुनिया की आखिरी फेमिनिस्ट होऊंगी। बराबरी के हक के लिए आवाज़ भी मैं नहीं उठाती, उस बराबरी को हासिल करने के लिए बस जुटी रहती हूं, और मालूम है कि आखिरी सांस तक उस लड़ाई को जारी रखना होगा।

एयर इंडिया की एक ऐतिहासिक उड़ान 6 मार्च को भारत से सैन-फ्रांसिस्को के सफर पर निकली थी। आल-विमेन क्रू के साथ अब तक की सबसे लंबी उड़ान का नया इतिहास रचने निकली इस खबर के वज़न से बेज़ार कितने ही मर्दों ने चुटकी ली होगी-मुकाम तक पहुंचेगी न उड़ान? यह सवाल मेरे बहुत से सवालों का जवाब है। यह सवाल इस बात का ऐलान भी है कि लड़ाई बहुत लंबी है।

असल वाली बराबरी उस दिन होगी जब सेना की किसी टुकड़ी की अगुवाई करने वाली महिला अफसर खबर नहींबनेगी, जब एयर इंडिया को ऐसी उड़ानों की प्रेस विज्ञप्तियां जारी करने की जरूरत नहीं रह जाएगी, जब पढ़ाई पूरी करने वाली युवती को शादी कर लेने के पारिवारिक दबाव से मुक्ति मिलेगी, जब शादी कर लेने वाली को बच्चे पैदा करने की समाज की ख्वाहिशों से आजादी मिलेगी, जब वह खुलकर अपने फैसले लेगी, जब उसके फैसले लेने की आजादी का मतलब उसकी बेरहम आकांक्षाएं नहीं होगा और जब अपने सपनों को दुलारने वाली वह अकेली नहीं होगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *