‘वह’ बनाम ‘यह’ के बीच पिसते ‘हम’ – एनके सिंह

आजादी के बाद से शायद पहली बार देश में इतना जबरदस्त कंफ्यूजन है। तीन स्पष्ट खेमों में समाज बंट गया है। कुछ इस खेमे में हैं तो कुछ उस। सामूहिक सोच या तो राष्ट्रवाद की नई परिभाषा के साथ खड़ी है या देश को बहुमत के दुराग्रहों से निजात दिलाने वालों के साथ। एक लकीर खींच दी गई है यह कहते हुए कि रेखा के उस पार तुम्हारा और इस पार हमारा। तलवारें खिंची हुई हैं। इसके बीच एक बड़ा वर्ग और है, जो न तो इसके साथ है ना उसके। वह दाल के बढ़े दाम और बढ़ती महंगाई, आसमान छूती शिक्षा और स्वास्थ्य व्यय से जूझ रहा है। वह ठगा-सा यह पूछ रहा है कि सात दशक की आजादी की यह परिणति? क्या विकास इसी को कहते हैं? कभी उसे यह ठीक लगता है, कभी वह। लेकिन इस यह और वह के बीच उसकी मूल समस्या का निदान कहीं नजर नहीं आ रहा। लव जिहाद, भारत विरोधी नारे, अवार्ड वापसी, राष्ट्रवाद या देशद्रोह के बीच किसान आज भी पेड़ से लटककर आत्महत्या कर रहा है और विधायक आज भी बहला-फुसलाकर लाई गरीब किशोरी का बलात्कार कर रहा है। दूसरी ओर उसी राज्य (बिहार) में सत्ताधारी दल का एक विधायक जनसभा में धमकी देता है कि मेरे लोगों को कुछ किया तो गर्दन काट दिया जाएगा। मैं तो अपराध करके जेल गया तो नेता बन गया और चुनाव जीत गया। मेरा तो एक पैर जेल में ही रहता है। यह हाल है। और इसी विधायक के मत से विधानसभा में कानून बनते हैं!

एक ओर दिल्ली से सटे दादरी में इखलाक नामक व्यक्ति को घर से खींचकर सैकड़ों लोगों द्वारा गौमांस पकाने के शक पर मार दिया जाता है तो दूसरी ओर आगरा में एक विहिप कार्यकर्ता की मांस का व्यापार करने वालों द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी जाती है। इखलाक मरता है तो बुद्धिजीवियों का एक वर्ग वैचारिक क्रांति का आह्वान करता है और अवार्ड वापस करने लगता है। जबकि स्थानीय सांसद और देश के संस्कृति मंत्री इसे एक सामान्य आपराधिक घटना करार देते हैं। आगरा की घटना पर स्थानीय सांसद व मंत्री मंच से इसका बदला लेने की बात कहते हैं। शक के आधार पर हिमाचल प्रदेश में एक ड्राइवर का नाम पूछा जाता है और फिर यह मानकर कि वह गोहंता है, उसे दुनिया से विदा कर दिया जाता है।

पिछले एक साल से हर मुद्दा वह और यह के आधार पर ही तय हो रहा है। जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को इसलिए जेल भेज दिया जाता है, क्योंकि वह भारत विरोधी नारे लगाने वालों के साथ मंच पर रहा था। लेकिन ‘यह" वर्ग का एक विधायक ‘वह" वर्ग के एक कार्यकर्ता की सैकड़ों कैमरों के सामने पिटाई करता है और उसके बाद यह भी कहता है कि मेरे पास बंदूक नहीं थी वरना इन देशद्रोहियों को गोली मार देता। एक वकील दिन-दहाड़े कोर्टरूम में घुस कर कन्हैया, मीडिया और ‘वह" वर्ग के लोगों को मारता ही नहीं, बल्कि जेल में घुसकर कन्हैया को जान से मारने का टीवी चैनलोंके सामने ऐलान भी करता है। वह स्वयं को ‘यह" वर्ग का होने के कारण सुरक्षित व शक्ति-संपन्न् मानता है। वह किसी न किसी स्तर पर अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति भी आश्वस्त लगता है।

इन सबके बीच एक मूल प्रश्न उभरता है कि ‘यह" वर्ग का देशप्रेम और ‘वह" वर्ग का देशद्रोह क्या पिछले डेढ़-दो साल में ही उभरा है? इतने सालों से ये वर्ग कहां थे और वे जहां भी थे, आपस में इस हद तक संघर्षरत क्यों नहीं थे? कहां पर भूल हो रही है? शायद इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि सत्ता में होने और सत्ता से बेदखल होने से उपजने वाले उत्साह और अवसाद की ये देन हों। क्योंकि लव जेहाद का खतरा अभी क्यों महसूस होता है, जबकि स्थानीय पुलिस पार्कों से लड़के-लड़कियों को अनेक वर्षों से भगाती आ रही हो? और गायें देश में सालों से प्लास्टिक खाकर मर रही हैं, पर गोमाता की इतनी तीव्रता से याद अभी क्यों आई है?

और फिर, एक तीसरा वर्ग है : ‘हम।" डर लगता है कि प्रधानमंत्री का स्वच्छ भारत कहीं ‘हम" के मोहल्ले में हो, लेकिन ‘वह" के मोहल्ले उसे गंदा करने पर आमादा हों तो? स्वच्छ भारत पक्षपातपूर्ण नहीं हो सकता। यह प्रकारांतर से समाज के चिंतन को बदलने का काम है। 30 प्रतिशत ‘हम" सफाई करें, 50 प्रतिशत उदासीन रहें और 20 प्रतिशत इसलिए गंदगी फैलाते रहें कि यह तो ‘यह" का अभियान है तो इस तरह से भला देश कैसे साफ हो पाएगा। स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया, ये सब अपने आप में बेहद अच्छे प्रयास हैं, लेकिन क्या एक विभाजित आबादी से ये सफल हो पाएंगे?

यह अनंत कथा है। ‘वह" वर्ग इखलाक के मरने पर देश में वैचारिक क्रांति का बिगुल फूंकने के लिए अवार्ड वापस करने लगता है लेकिन इनमें से एक भी भारत विरोधी नारे को गलत नहीं बताता, न ही आगरा की घटना पर वहां जाकर वीएचपी के मारे गए कार्यकर्ता के परिवार से सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए दिल्ली में कैंडल मार्च करता है। इस भीषण ध्रुवीकृत हालात में भला कोई मानसिक भ्रम का शिकार कैसे न हो? इधर एक पुराना मामला नए तरीके से सामने आया है। इशरत जहां आतंकवादी थी या नहीं, उसका एनकाउंटर फर्जी था या नहीं, अब ये प्रश्न इतने महत्वपूर्ण नहीं रहे जितने कि यह कि ऐसे मामलों में सत्ता की जिम्मेदारी आखिर क्या होती है? क्या सत्ता का खेल इतना घिनौना है? और अगर है तो किस पर विश्वास करें? क्या भारत में संविधान के अनुरूप काम हो रहा है? क्या देश में कानून का राज है? या क्या हम आज भी उसी राजशाही के दौर में हैं, जिसमें षड्यंत्र से एक राजा को मारकर दूसरा सिंहासन पर आरूढ़ हो जाता था फिर उसको मारकर तीसरा और प्रजा केवल मूकदर्शक हुआ करती थी?

-लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं

 

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