मध्याह्न भोजन सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के गले में लटका एक बड़ा पत्थर है. न तो इन शिक्षकों को इसकी व्यवस्था का प्रशिक्षण है, ना ही अधिकतर शिक्षकों की इसमें कोई रुचि है.
अन्य सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं में जहां भी भोजन पकाने-परोसने की व्यवस्था है, वहां यह व्यवस्था इस कार्य के लिए प्रशिक्षित लोगों के हाथ में हैं, परंतु इससे भी कठिन काम सरकार द्वारा दिये गये पैसों में इसकी व्यवस्था करना है.
अन्य वस्तुओं की निर्धारित मात्रा एवं दर भी कुछ ऐसी ही है, परंतु बाजार भाव तथा दैनिक जीवन की अन्य सच्चाइयां इन मात्राओं एवं दरों को एक कल्पना मात्र रहने देते हैं. पचास किलो वाले चावल के बोरे जो स्कूलों को दिये जाते हैं, उनमें कथित रूप से अक्सर पांच से दस किलो तक चावल कम होता है.
दाल के लिए मात्र 74 रु पये प्रति किलो का दर निर्धारित है, परंतु इसका बाजार भाव इससे कहीं अधिक है. नमक के साथ मसालों के लिए एवं तेल आदि के लिए जितने पैसे निर्धारित हैं, उनमें स्वादिष्ट एवं पौष्टिक भोजन दे पाना एक कठिन काम है. कई स्कूलों में अभी भी खाने-पकाने का गैस उपलब्ध नहीं है. जलावन की लकड़ी बिहार के गांव में भी 10 रुपये प्रति किलो की दर से बिकती है.
शहर में कुछ ज्यादा ही हो सकता है. पैसे भी उपिस्थति के आधार पर दिये जाते है. कई शिक्षकों का मानना है कि जितने बच्चे स्कूल आते हैं, उनकी उपस्थिति के अनुसार उन्हें खाना देना कठिन काम होगा. स्थिति से निपटने के लिए काल्पनिक आंकड़े भी जुटाने पड़ जाते हैं. कुछ शिक्षक ऐसी स्थिति से प्रसन्न हो सकते हैं, परंतु अधिकांश इसे गले से लटका पत्थर मानते हैं, जो किसी दिन उन्हें ले डूबेगा. मध्याह्न भोजन की व्यवस्था एवं गुणवत्ता से संबंधित अन्य और कई समस्याएं हैं, जिनकी समीक्षा और जिन पर पुनर्विचार होना चाहिए.