ग्रामीण मांग बढ़ाने की जरूरत- बी के चतुर्वेदी

पिछले वर्ष जब वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने पहले पूर्ण बजट पर बोलने के लिए खड़े हुए थे, तब अनेक लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि वह कोई ऐसा नीतिगत दस्तावेज पेश करेंगे, जिससे मोदी सरकार के वायदों को पूरा करने की ठोस जमीन तैयार हो। इस बार जब वह बजट पेश करेंगे, तो अपेक्षाएं अचानक बहुत बदल गई हैं। राष्ट्र अब कुछ प्रमुख मुद्दों पर विश्वसनीय समाधान की ओर देख रहा है। वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल के दाम गिरे हैं, जिससे यह 30 डॉलर प्रति बैरल तक आ गया। इससे सरकार को जब इसके दाम 120 से लेकर 140 डॉलर के उच्च स्तर पर थे, उसकी तुलना में 1.5 लाख करोड़ रुपये का लाभ हुआ है। इससे चालू खाते के घाटे को कम करने में मदद मिली है और वित्तीय घाटे की स्थिति सुधरी है। हालांकि अर्थव्यवस्था के कई अन्य घटक चिंता की वजह हैं, जहां वित्त मंत्री को खासतौर से हस्तक्षेप करने की जरूरत है।

ऐसा पहला क्षेत्र कृषि है, जिसकी देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका है। तकरीबन साठ फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है, मगर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका योगदान सिर्फ 17 फीसदी है। पिछले दो वर्षों से देश को कमजोर मानसून का सामना करना पड़ा है। कृषि क्षेत्र में हताशा बढ़ी है, जहां तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। सूखे से बचाव के कुछ उपाय जरूर किए गए हैं, जिससे कृषि उत्पादन स्थिर बना हुआ है। मसलन, दालों का उत्पादन जहां 25.3 करोड़ टन पर स्थिर है, तो गन्ने और कपास जैसी नकद फसलों के उत्पादन में गिरावट आई है। कृषि बीमा की पुनरीक्षित योजना लाने का निर्णय अच्छा कदम है, मगर इसका असर दिखने में वक्त लगेगा। असल में जरूरत कृषि व्यापार व्यवस्था को बेहतर बनाने की है। हमें हर तरह के कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में समुचित बढ़ोतरी करनी ही चाहिए। इसमें जब मनरेगा के तहत राज्यों में बढ़ा हुआ आवंटन भी जुड़ जाएगा, तब ग्रामीण क्षेत्रों में खर्च करने की क्षमता भी बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था के विकास के लिए ग्रामीण मांग का बढ़ना बहुत जरूरी है।

दूसरी बात यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की रफ्तार सुस्त बनी हुई है। यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं डेढ़ से दो फीसदी की गति से ही आगे बढ़ रही हैं। वर्ष 2016 में जर्मनी की विकास दर 1.7 फीसदी और फ्रांस की विकास दर के 1.5 फीसदी रहने की उम्मीद है। जापान को मंदी के लंबे दौर से बाहर निकलना है और इस वर्ष उसकी विकास दर 1.2 फीसदी रह सकती है। वहीं अमेरिका ने तेजी से बेहतर प्रदर्शन किया है, जबकि चीन की अर्थव्यवस्था, जो कि वैश्विक विकास की प्रमुख संवाहक है, मंदी से गुजर रही है। इसका असर विश्व व्यापार पर पड़ेगा। शुरुआती आठ महीने में भारतीय निर्यात में 18.5 फीसदी की गिरावट आई है। इस मुकाम पर जहां वैश्विक मांग अनिश्चित बनी हुई है, अपने उत्पाद बेचना कठिन है। वित्त मंत्री के समक्ष वैश्विक बाजार में गिरावट की भरपाई के लिए घरेलू मांग को बढ़ाना बड़ी चुनौती है।

तीसरी बात बैंकिंग क्षेत्र से जुड़ी है, जहां अमेरिका में लेहमन संकट पैदा होने पर खुशीकी लहर देखी गई थी। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की समस्याओं ने इस क्षेत्र की कमजोरियों को उजागर कर दिया है। 2011 में एनपीए (गैर निष्पादित संपत्तियां) कुल 2.5 फीसदी था, जोकि 2013-14 में 4.5 फीसदी से 4.9 फीसदी के बीच हो गया और सितंबर 2015 में यह 5.1 फीसदी हो गया। परेशानी का कारण यह है कि सिर्फ प्रावधान करने से इस समस्या को नहीं सुलझाया जा सकता। यदि कुछ निश्चित क्षेत्र में मंदी का असर पूरे कर्ज पर पड़ेगा, तो एनपीए को बढ़ना ही है। इसलिए नीतिगत उपाय जरूरी हैं, ताकि ऐसी इकाइयां बेहतर प्रदर्शन करें। इसके अलावा एक स्वतंत्र संस्था की भी जरूरत है, जो ऐसे खराब कर्ज का निबटारा कर सके।

वित्त मंत्री ने पिछले वर्ष कहा था कि सहकारी संघवाद की भावना के अनुकूल राज्यों को कर संग्रह का 42 फीसदी यानी 5.24 लाख करोड़ सीधे दिए गए और योजना व्यय के तहत 3.04 लाख करोड़ रुपये अलग से भी दिए गए। इस तरह केंद्र से कुल 62 फीसदी कर राजस्व का आवंटन किया गया। इसके बावजूद राज्य तर्क देते हैं कि कुल संसाधन थोड़ा ही अधिक है, क्योंकि केंद्र प्रायोजित योजनाओं में राज्यों को दिए जाने वाले आवंटन में भारी कटौती कर दी गई। खर्च में बढ़ोतरी की गति हमारी शिक्षा, स्वास्थ्य और आईसीडीएस जैसी जरूरतों के अनुकूल नहीं है। मनरेगा के तहत ग्रामीण विकास क्षेत्र में की गई बढ़ोतरी राज्यों में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त नहीं थे। वहीं फसल की बर्बादी से ग्रामीण हताशा और बढ़ी है।

पिछले बजट में आधारभूत संरचना खासतौर से ऊर्जा, सड़क, बंदरगाह और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने का वायदा किया गया था। मगर कई ढांचागत क्षेत्रों में अपेक्षित नतीजे नहीं दिखते। यूएमपीपीएस ( अल्ट्रा मेगा पॉवर प्रोजेक्ट्स) की स्थापना के लिए ऊर्जा क्षेत्र में किए गए निवेश से कोई लाभ नहीं होगा। छत्तीसगढ़ ने पहले ही संकेत दिए हैं कि यह परियोजना उनके यहां व्यावहारिक नहीं है। सड़क क्षेत्र में अच्छी प्रगति हुई है, मगर इसमें प्राथमिक तौर पर राज्यों से हुए निवेश का योगदान है। बजट में हवाई अड्डों के विस्तार का जिक्र नहीं था। यह ऐसा क्षेत्र है, जिसमें 12 फीसदी से अधिक की वृद्धि हो सकती है। इसमें निजी क्षेत्र से कोई निवेश नहीं आ रहा है। मध्य वर्ग के विस्तार के साथ इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। इसके साथ ही बंदरगाहों को निगमित करने की बात भी थी, मगर अभी तक ऐसी पहल नहीं हुई।

वित्त मंत्री इस वर्ष जब अपना बजट पेश करेंगे, तो उसमें देश के समक्ष मौजूद इन चुनौतियों से निपटने का रोडमैप होना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए कि आखिर वे सातवें वित्त आयोग और वन रैंक वन पेंशन योजना को लागू किए जाने से उत्पन्न चुनौती से कैसे निबटेंगे। वाकई चुनौतियां इस बार काफी बड़ी हैं, क्योंकि वैश्विक स्तर पर भी मांग अनिश्चित है।

लेखक, पूर्व कैबिनेट सचिव और योजना आयोग के पूर्व सदस्य

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