ऋग्वेद (8, 2, 24) में मनुष्य देवताओं से पूछते हैं कि सत्य का साक्षात करने वाले ऋषि तो रहे नहीं, आने वाले समय में उनकी जगह कौन लेगा? देवताओं का जवाब है, आने वाले काल में समान स्तर के अनेक ज्ञानी जब बैठकर अपने-अपने ऊह (तर्क) और अपोह (प्रतितर्क) से हर विषय पर बहस को आगे बढ़ाएंगे तो उनके समवेत तर्क-वितर्क ही अंतिम सच का निर्णय करेंगे। एक अग्रगामी लोकतंत्र में समवेत विमर्श की जरूरत की इससे सुंदर व्याख्या संभव नहीं। इसी को रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी हाल में अपने भाषण में रेखांकित किया, जब उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में कानून की रखवाली ही नहीं, उसकी अनुपालना में भी नागरिकों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है। बहुमत वालों की अपने इकतरफा तर्कों के तहत शेष देश को हांकने की हिटलरी वृत्ति विनाशक होती है। ट्रेनें सही समय पर चल रही हैं, यह तर्क इमर्जेंसी में दमनकारिता के पक्ष में दिया गया था और इसी तरह का माहौल फिर बन रहा है। लेकिन ट्रेनें समय पर चलें, इससे जरूरी यह है कि वे सही दिशा में चलाई जा रही हों, वर्ना इमर्जेंसीकालीन भारत या नात्सी जर्मनी जैसा हश्र हो सकता है।
राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रध्वज और देशद्रोह की परिभाषाओं और कई और लोकतांत्रिक सवालों पर हम इधर काफी कुछ देख-सुन रहे हैं। सत्तापक्ष को इससे काफी नाराजगी है यह भी स्पष्ट है, पर कर्कश और आक्रामक होने के बावजूद खुली बहसें स्वस्थ लोकतांत्रिकता का अनिवार्य भाग होती हैं। हिटलरयुगीन जर्मनी, सद्दाम हुसैन का इराक या सोवियत संघ, इन सबके विघटन की वजह थी मुक्त विचारों का दमन। हमारी परंपरा की दृष्टि से भी भारतीय संस्कृति वैदिक काल से खुली बहसों की समर्थक रही है और किसी भी एकांगी विचारधारा के थोपे जाने की मुखालफत हमारे इतिहास के हर युग में हुई है। इस बार भी वही हो रहा है और इसे विपक्ष या पड़ोसी देश का षड्यंत्र भर या भारतीय संस्कृति का विरोध कहना या तो अज्ञान है या चालाक मौकापरस्ती। गांधी का आजादी आंदोलन गवाह है कि जानदार-शानदार लोकतंत्र निडर सार्वजनिक बहसों से ही जन्म लेते हैं, उनसे टूटते नहीं।
बनारस अविमुक्त क्षेत्र है, जहां कोई परंपरा जल्द नहीं मरती। शैव और यक्षधर्म में से कौन बड़ा है? इसको लेकर वहां भी कभी हरिकेश और पूर्णब्रह्म के बीच बड़ी भारी बहस हुई थी। शैव धर्म अंतत: जीता, किंतु लोकधर्मी परंपरा का आदर करते हुए यक्ष देवताओं का महत्व भी मान लिया गया और शिव के साथ गणेश तथा मुद्रापाणि या कुबेर के रूप में आज तक देवकुल में पूजे जाते हैं। (भभुआ के) बहसतलब हरसू तिवारी तक, जिन्होंने किसी क्रूर रानी का विरोध करते हुए आत्महत्या कर ली, या (उत्तराखंड के) गोल्ल की तरह यह लोकप्रिय जननायक मरकर भी अमर माने गए और हरसू बरम तथा ग्वाल्ल देव के नाम से लोकदेवता के बतौर पूजित हैं। नागपूजा भी काशी में बहुत प्रचलित थी, बुद्ध के समय तक। उसकी स्मृति भी बड़ी खुशदिली से नागकुआं और नागपंचमी के त्योहार में सुरक्षित है। हमारी बहस परंपरा का निखालिस स्वरूप हर पक्ष के प्रतिनिधियों को परखकर जनमत से उनका क्रमिक महत्व तय करता है,बिना किसी विचारधारा का असम्मान किए। निरी अराजकता तो भारतीय पारंपरिक बहस को असंभव बना देती है। विश्वविद्यालय के गुरुओं और सड़कछाप गुंडों, या छात्रों और खुली हिंसा पर उतारू वकीलों की भीड़, या आरक्षण कानून बदलने की मांग पर शहरी संपत्ति को आग के हवाले करने वालों तथा विधायिका के बीच तर्कसंगत बहस कैसे संभव है?
एक पेंच और है। टुकड़ा-टुकड़ा जोड़कर बनाए गए वीडियो गवाह हैं कि किस तरह एक सोची-समझी रणनीति के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा, देशभक्ति और देशद्रोह के सवाल सीधे सीमापार के आतंकी हमलों या नक्सली हिंसा से जोड़े जा रहे हैं और अगर सार्वजनिक बहस में वामपंथी छात्र संगठन या भारतीय मुस्लिम युवा शामिल दिखाई दें तब तो काम बड़ा आसान हो जाता है। बस इसके बाद अफवाहों की मशीन हरकत में आ जाती है और मीडिया के एक स्वामिभक्त अंग की मदद से राजकीय मशीनरी विरोधी गुटों का आधे-अधूरे साक्ष्यों के बल पर दमन शुरू कर देती है, जबकि सड़कों पर खुली हिंसा और उग्र नारेबाजी तथा तोड़फोड़ पर पुलिस प्रशासन तोताचश्मी अख्तियार किए रहती है। इस सब पर जवाबतलबी की हर कोशिश को शहीदों की अवमानना और देशद्रोह की संज्ञा दे दी जाती है। अमरीकी न्यूयॉर्क टाइम्स तक उपहास कर रहा है कि छात्रों के खिलाफ जड़ा गया भारत का देशद्रोह संबंधी कानून तब का है, जब अंग्रेजी शासन के खिलाफ नेटिव लोग लड़ रहे थे, जबकि ताजा मामला तो सीधे मुखर असहमति के अलोकतांत्रिक दमन का है।
आजादी के बाद जब तक भारतीय शैली के समन्वयवाद का कटोरा बनी कांग्रेस या जनता दल सरीखे गठजोड़ ताकतवर रहे, इस कानून का दुरुपयोग इस हद तक नहीं किया गया। न ही कानून के प्रतिनिधियों के मुख से तथाकथित देशद्रोहियों को मारने की खुली धमकियां हमने सुनीं। पर इस बूते कि उनके राजनैतिक आका बहुमत लेकर सत्ता में आए हैं, सत्ता के पक्षधर आक्रामक मध्यवर्गीय दस्तों की तादाद ही नहीं बढ़ी, उनके बीच आरक्षण, आतंकवाद, गोमांस या राष्ट्रविरोध जैसे विषयों पर अपनी वैचारिकता थोपने की उतावली, और सत्ता की मशीनरी से हर नापसंद नागरिक प्रतिरोध का दमन कराने की धमकियां देने की आदत चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव के दफ्तर पर छापा पड़ता है तो उनको यह असामान्य नहीं लगता।
विश्वविद्यालयों के परिसर में छात्रों की सभा को नियंत्रित करने को कई सौ पुलिसवालों को बुलवा लिया जाता है जो अपुष्ट साक्ष्यों के आधार पर तुरत फुरत मामला दर्ज कर चार्जशीट बना देती है। उग्र नारेबाजी करते वकीलों की भीड़ अदालती परिसर में कानून हाथ में लेकर विचाराधीन कैदी युवक पर पिल पड़ती है। और हथियारबंद पुलिस मूकदर्शक बनी देखती रहती है और ऐसी धाराओं के तहत अपराध दर्ज होते हैं कि साक्ष्यों के बावजूद हिंसा करने वालों को पकड़ने के तुरत बाद ही जमानत मिल जाए। यह रास्ता अंतत: लोकतंत्र और प्रशासकीय मशीनरी के विनाश का ही है।
(लेखिका साहित्यकार व स्तंभकार हैं