‘शहीद’ के पर्याय अंग्रेजी के ‘मार्टर’ शब्द का शब्दकोषीय अर्थ ‘एक ऐसे पुरुष या स्त्री से है जो अपनी धार्मिक आस्था का परित्याग करने के बजाय मृत्यु का वरण करना ज्यादा पसंद करता या करती है।’ सैन्य शब्दावली में, एक सैनिक जो शत्रु से लड़ते हुए युद्ध के मैदान में मारा जाता है उसे ‘मार्टर’ के तौर पर सम्मानित और स्मृत किया जाता है। भारत में इसके लिए पसंदीदा शब्द ‘शहीद’ है जैसा कि लता मंगेशकर द्वारा गाये गये अविस्मरणीय गाने में प्रयुक्त किया गया है : ‘जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी।’ यानी मातृभूमि की रक्षा के लिए शत्रु के साथ आमने-सामने की लड़ाई में युद्ध भूमि में मृत्यु। ऐसी महिमामयी मृत्यु जिसकी कामना एक सैनिक करता है।
तथापि, सियाचिन के कठोर मौसम में भारी हिमस्खलन के कारण अपनी जान गंवाने वाले नौ सैनिकों को जेएनयू के भिन्नमतावलंबियों के विरुद्ध खड़ा करना निश्चित तौर पर आर्वेल के कथन जैसा प्रतीत होता है। एक सैनिक की मृत्यु राष्ट्रीय क्षति होती है, फिर चाहे यह किसी भी दिन कहीं भी हो। इसके बावजूद, हर कमांडर जिसने युद्ध के मैदान में अपने सैनिकों का नेतृत्व किया हो अच्छी तरह जानता है कि शत्रु से लड़ते हुए मृत्यु को गले लगाना एक प्रकार की मृत्यु होती है जिसके लिए वह अपने दिवंगत साथी को वीरता पदक देने की सिफारिश करता है, जबकि किसी दुर्घटना में हुई मृत्यु अलग प्रकार की मृत्यु होती है। दोनों ही प्रकार की मृत्यु पर शोक प्रकट किया जाना चाहिए लेकिन कर्म, साहस और शौर्य के पैमाने पर यह दोनों मृत्यु भिन्न होती हैं। इन दोनों के बीच भ्रम पैदा करना या दोनों के बीच साम्य स्थापित करने की कोशिश करना मेजर शैतान सिंह और हवलदार अब्दुल हमीद जैसे रणबांकुरों की शहादत को छोटा करना है।
कोई भी भाषा जो शत्रु से युद्ध और प्राकृतिक आपदा से युद्ध के बीच फर्क नहीं कर सकती वह अनायास ही जन संस्कृति और राजनीतिक बहसों का सैन्यीकरण कर देने की बड़ी परियोजना का हिस्सा बन जाती है। प्रत्येक वर्तमान और सेवानिवृत्त सैनिक सैनिकों की दुघर्टना मृत्यु को इस तरह की अतिरंजना के साथ प्रस्तुत करने पर बेचैन हो रहा होगा।
सभी विनम्र और संवेदनशील जनरलों के लिए इससे भी अधिक बेचैनी की बात यह होगी कि ‘शहीद सैनिकों’ को उस अभद्र राजनीतिक अखाड़े में घसीट लिया जायेजो वैचारिक मतभेदों पर आधारित है और जो संवैधानिक तथा गणतंत्रात्मक मूल्यों की आत्मा के एकदम विरुद्ध है। अपनी नकली देशभक्ति का भोंडा प्रदर्शन करते रहने वाले राजनेताओं द्वारा शहीद जवानों का मृत्योपरांत पैदल सेना की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। सेना को एक संस्था के तौर पर हर वह प्रयास करना चाहिए जिससे वह इस तरह के संक्रमण से सुरक्षित रह सके। एक सैनिक जो सेना में भर्ती होता है वह स्वेच्छा से और प्रसन्नता से शपथ लेता है कि वह अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ेगा और जरूरत पड़ने पर अपनी जान भी कुर्बान कर देगा। वह इसलिए सेना में भर्ती नहीं होता कि स्वयं को एक-दूसरे से बेहतर देशभक्त और राष्ट्रवादी बताने वाले पक्षपोषी राजनेताओं के पक्षपोषी युद्ध में उसे भी एक पक्षपोषक बना लिया जाये।
यह सवाल हमें अपने आपसे अवश्य पूछना चाहिए : एक राष्ट्र के तौर पर हम एक भयग्रस्त राष्ट्रवाद के आगे समर्पण करते हुए क्यों दिखते हैं? हम उन लड़ाइयों को क्यों लड़ रहे हैं जिन्हें हम पहले ही लड़ चुके है और जीत चुके हैं? भारतीय एकता, राष्ट्रीयता की हमारी भावना, हमारी स्व-आश्वस्ति और अपने आलोचकों को चुप करा लेने की हमारी क्षमता, इन सबको हम बहुत पहले ही स्थापित कर चुके हैं। हम इतने अधिक मजबूत, इतने अधिक आत्मविश्वासी और इतने अधिक आपदारोधी हैं कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विस्तृत परिसर के भीतर लगाए गये कुछ ‘राष्ट्र विरोधी’ नारे हमें खतरे में नहीं डाल सकते। हम पहले भी कुछ क्षेत्रों में अलगाववाद को झेल चुके हैं। हम इस जानकारी पर गर्व महसूस कर सकते हैं कि भारतीय लोकतंत्र ने कल के अलगाववादियों को बड़ी सहजता से अपने साथ समाहित कर लिया है। जम्मू-कश्मीर में भी, भाजपा उस राजनीतिक दल के साथ गठबंधन में है जिसे 15 वर्ष पूर्व आसानी से ‘अलगाववादी’ करार दिया जा सकता था। और इस गठबंधन का पोषण स्वंय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा किया जा रहा है।
वह विवाद फिर से खड़ा हो गया है। अंतर केवल इतना है कि इस बार ‘राष्ट्रप्रेम’ को विषय बनाया गया है। कौन ‘राष्ट्रप्रेमी’ है और कौन ‘राष्ट्रप्रेमी’ नहीं, इसका निर्णय ओ.पी.शर्माओं द्वारा किया जाएगा। ‘राष्ट्रद्रोह’ को बहुत ही आसानी से बिना सोचे समझे बार-बार दुहराया जा रहा है। हस्तक्षेप के लिए न्यायपालिका के पास पहुंचना पड़ेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायपीठ में शामिल न्यायाधीशगण व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर, उस वक्त को काफी पीछे छोड़ आये हैं जब एक न्यायालय ने महसूस किया था कि एक मृत्युदंड राष्ट्रीय चेतना को संतुष्ट करेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायिक प्रक्रिया देशभर के गली-कूचों में दुहराए जा रहे नाटक से फासला बनाए रखेगी।
सर्वोपरि यह कि हमारे राष्ट्रवाद के गुण और सिद्धांत को किसी भाषणबाज के द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता। और न हमारे राष्ट्रवाद को राज्य के उत्पीड़क तंत्र द्वारा बनाए रखा जा सकता है और न मिटाया जा सकता है। जो वोट बैंक की राजनीति से संचालित हैं उन्हें इसकी अनुमति नहीं होनी चाहिए कि वे भारतीय राष्ट्रवाद की उदात्तता को छोटा कर सकें या क्षति पहुंचा सकें।