मोदी सरकार बड़े आर्थिक सुधारों के वादे पर सत्ता में आई थी। सरकार का कामकाज संभालने के बाद से ही देशवासियों द्वारा उससे ये उम्मीदें की जा रही हैं कि वह अर्थव्यवस्था को अपेक्षित गति प्रदान करने का अपना चुनावी वादा निभाएगी। अपने पहले दो बजट में तो वह इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाई और विकास की गति भी अब मद्धम पड़ती नजर आ रही है, इसलिए अब देश की नजरें आगामी बजट पर टिक गई हैं। विकास को गति देना और निवेशकों को आश्वस्त-प्रोत्साहित करने के साथ ही जनभावनाओं का भी खयाल रखते हुए एक सर्वसम्मत बजट पेश करने की बेहद कठिन चुनौती आज जेटली के सामने है।
कुछ अर्थों में परिस्थितियां सरकार के पक्ष में हैं। कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में आई नाटकीय गिरावट के कारण तेल के आयात पर होने वाले खर्च में भी 70 प्रतिशत की कटौती हुई है। पेट्रोलियम उत्पादों से प्राप्त होने वाले अप्रत्यक्ष कर राजस्वों में भी इजाफा हो रहा है। किसी भी बजट को अंतिम रूप देने से ऐन पहले राजस्व में इस तरह से बढ़ोतरी का होना मोदी सरकार के पक्ष में जाता है, क्योंकि अमूमन सरकारों के पास ऐसी कोई गुंजाइश नहीं होती। अलबत्ता दूसरी तरफ वन रैंक वन पेंशन और सातवें वेतन आयोग की नई जरूरतों को पूरा करने के लिए भी जेटली को अपने बजट में गुंजाइश रखनी होगी।
अर्थव्यवस्था को रचनात्मक रूप से गति देने के लिए सभी समझदार सरकारें एक काम करती हैं, और वह है बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं पर व्यय। इस बार भी सबकी नजरें इसी पर होंगी कि सरकार बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के लिए गांठ का कितना पैसा ढीला करती है, क्योंकि पुख्ता बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में भारत आज भी दुनिया में बहुत पीछे है। मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के बाद जिस एक क्षेत्र में बेहतर काम किया है, वह है सड़क निर्माण। लेकिन बिजली, बंदरगाह, हवाई अड्डे और यहां तक कि रेलवे संबंधी बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं में भी अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
निश्चित ही यह साबित करने के लिए कि भारत इस एक क्षेत्र में दुनिया से पीछे नहीं है, सरकार को सार्वजनिक निवेश में खासा इजाफा करना होगा और इसमें दक्षता और समयानुकूलता को भी सुनिश्चित करना होगा। आखिर, भारत में बुनियादी ढांचे की लचर हालत के कारण ही तो विदेशी निवेशक हमारे बजाय चीन को अधिक प्राथमिकता देते हैं। मिसाल के तौर पर, अन्य बातों को तो रहने ही दें, उचित ब्रॉडबैंड विड्थ के अभाव में इंटरनेट संबंधी दिक्कतों के कारण ही अधिकतर विदेशी निवेशक भारतीय बाजार में पैसा लगाने से कतरा जाते हैं। अब जबकिडिजिटल इंडिया अभियान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताओं में शुमार है, तो ऐसे में उन्हें इस दिशा में विशेष ध्यान देना होगा। बिजली आपूर्ति संबंधी दिक्कतें भी निवेशकों को तंग करती हैं। खासतौर पर उद्योग क्षेत्र का काम तो सुचारु बिजली आपूर्ति के बिना चल ही नहीं सकता।
मीडिया में पिछले कुछ दिनों से यह सवाल निरंतर पूछा जा रहा है कि क्या वित्त मंत्री अपने बजट के माध्यम से वित्तीय घाटे को 3.5 प्रतिशत तक सीमित रखने के अपने लक्ष्य पर कायम रहेंगे। लेकिन सच्चाई तो यही है कि पहले के सभी वित्त मंत्रियों की तरह जेटली के सामने भी आर्थिक हितों से ज्यादा राजनीतिक हितों को साधने की चुनौती होगी, क्योंकि बजट ऊपर से देखने में भले ही एक आर्थिक दस्तावेज लगता हो, लेकिन गहरे अर्थों में वह एक राजनीतिक दस्तावेज होता है। वैसे भी राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के लक्ष्य को अर्जित करना एक रक्षात्मक कदम होता है और सरकारें इसके बजाय अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने वाले कदमों से लोकप्रिय होती हैं। अब जबकि वित्त मंत्री के सामने ओआरओपी और वेतन आयोग जैसे नए खर्च मुंह बाए खड़े हैं तो ज्यादा व्यावहारिक तो यही होगा कि वे इस लक्ष्य को एक ऐसे बिंदु पर तय करें, जिसे अर्जित किया जा सके। और अगर सरकार ऐसा अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने वाले कदमों को उठाते हुए कर सके तो यह आरबीआई के लिए भी एक सकारात्मक रास्ता होगा, क्योंकि यह तो स्पष्ट है कि गवर्नर रघुराम राजन वित्तीय लक्ष्यों को अर्जित करने के लिए कमर कसे हुए हैं।
इतना तो तय है कि कृषि क्षेत्र में व्याप्त मौजूदा चुनौतियों के बारे में विचार किए बिना सरकार एक मजबूत अर्थव्यवस्था निर्मित करने के बारे में आज नहीं सोच सकती। कारण कि आज देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कृषि क्षेत्र में खासी निराशा का माहौल है। किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में यह सरकार की जिम्मेदारी ही नहीं, नैतिक बाध्यता भी है कि वह किसानों को राहत देने के लिए अतिरिक्त कदम उठाए। खासतौर पर तब, जब देश की बैंकिंग इंडस्ट्री कॉर्पोरेटों को करोड़ों रुपए देने को तत्पर रहती है, फिर चाहे वे इसे चुका न पाएं और डिफॉल्टर बन जाएं। याद रहे, इससे पहले जब सरकार ने किसानों के कर्ज माफ किए थे तो उस निर्णय की कड़ी आलोचना की गई थी और उसे अर्थव्यवस्था के लिए घातक बताया गया था, लेकिन कॉर्पोरेटों के डिफॉल्टर होने पर उस स्तर पर विरोध होता नजर नहीं आता है। साथ ही सरकार को स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्र पर भी फोकस करने की जरूरत है। इससे पूर्व के बजट में सरकार ने वास्तव में स्वास्थ्य क्षेत्र में होने वाले व्यय में कटौती की थी, जबकि इसे और बढ़ाने की जरूरत है। प्राथमिक शिक्षा को भी उच्च प्राथमिकता दी जाना जरूरी है।
सरकार के सामने आज सबसे बड़े सवालों में से एक यह है कि निवेशकों को कैसे आकर्षित किया जाए। प्रधानमंत्री खासतौर पर इसके लिए शुरू से ही कमर कसे हुए हैं। देश में व्याप्त लालफीताशाही में अभी तक वैसी कमी नहीं आई है,जैसीकि मोदी सरकार से अपेक्षा की जा रही थी। ‘ईज ऑफ डुइंग बिजनेस" अभी तक महज एक स्लोगन ही बना हुआ है, इसे जमीनी स्तर पर साकार किए जाने की दरकार है। एक अन्य जरूरत संस्थागत बदलावों की भी है, ताकि कराधान संबंधी मामले वित्त मंत्रालय के अधीन आ जाएं। कई मंत्री इस संबंध में कोशिशें कर चुके हैं, लेकिन राजस्व विभागों में न्यस्त स्वार्थ इतने गहरे तक पैठे हुए हैं कि ऐसा हो नहीं पाता। जीएसटी लंबे समय से संसद में अटका हुआ है और जब तक वह लागू नहीं होता, आर्थिक सुधारों की एक महत्वपूर्ण कड़ी छूटी रहेगी। चीन के लड़खड़ाने से हमारे निर्यात में गिरावट आई है और यह चिंता भी सरकार की प्राथमिकताओं में शुमार ही रहेगी।
(लेखिका आर्थिक मामलों की वरिष्ठ विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)