सूखे की वजह से लोग काम की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे हैं व गांव के गांव खाली हो गए हैं। गांवों में रह गए हैं बुजुर्ग या कमजोर। यहां भी किसान आत्महत्याओं की खबरें लगातार आ रही हैं। मवेशी चारे और पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। ‘अन्ना प्रथा’ यानी लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया है, क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते। सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। इनमें कई सड़क दुर्घटना में मारी जाती हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रही हैं।
वैसे तो बुंदेलखंड सदियों से तीन साल में एक बार अल्पवर्षा का शिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘अन्ना प्रथा’ यानी दूध न देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत और इंसान दोनों पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान हैं, जिनके पास अपने जल साधन हैं, लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है, तो अचानक ही अन्ना गायों का रेवड़ आता है और फसल चट कर जाता है। बुंदेलखंड में एक करोड़ से ज्यादा चैपाए मुसीबत बन रहे हैं और उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है।
यहां यह जानना जरूरी है कि अभी चार दशक पहले तक बुंदेलखंड के हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा, जहां कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बहकर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिराकर उनका अस्तित्व खत्म कर दिया। हैंडपंप या ट्यूबवेल की मृग-मरीचिका में कुओं को बिसरा दिया गया। जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कारतक के लिए लकड़ी नहीं बची है, जिसके कारण वन विभाग के डिपो तीन सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं, वहां मवेशी के चरने पर रोक है। कुल मिलाकर देखें, तो बंुदेलखंड के बाशिंदों ने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी और अब इसका खामियाजा इंसान ही नहीं, मवेशी भी भुगत रहे हैं।