देश की जेलों की दयनीय स्थिति, इनमें बंद विचाराधीन कैदी तथा दोषियों की बढ़ती संख्या एक बार फिर न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ गयी है। देश की 1387 जेलों में उनकी क्षमता से कहीं अधिक बंदी हैं और इस वजह से इनमें विचाराधीन कैदियों और दोषी कैदियों को काफी हद तक अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ रहा है।
एक बार फिर देश की शीर्ष अदालत ने इस ओर ध्यान देते हुए जोर देकर कहा है कि जेलों में बंद कैदियों को भी सम्मान के साथ रहने का अधिकार है। न्यायालय ने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2014 की रिपोर्ट में देश की जेलों की स्थिति और इनमें बंद कैदियों की अभूतपूर्व संख्या का संज्ञान लेते हुए कुछ तल्ख टिप्पणियां भी की हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश की केन्द्रीय जेलों की क्षमता 1,52,312 कैदियों की है लेकिन इनमें 1,84,386 कैदी हैं। देश में 131 केन्द्रीय, 364 जिला स्तर और 19 महिला जेलों सहित हर तरह की जेलों को अगर लें तो इनकी क्षमता 3,56,561 कैदियों की है लेकिन इनमें 4,18,536 कैदी हैं। इनमें 2,82,879 विचाराधीन कैदी हैं। राज्यों के हिसाब से अगर देखा जाये तो सबसे अधिक 88221 कैदी उत्तर प्रदेश की जेलों में बंद हैं जबकि पंजाब की जेलों में 26007 कैदी हैं। इनमें 1304 महिला कैदी और 24,703 पुरुष कैदी हैं।
देश की जेलों में क्षमता से कहीं अधिक कैदी होने के तथ्य के मद्देनजर न्यायालय ने महसूस किया है कि 35 सालों में तमाम निर्देशों के बावजूद सरकारें जेलों में सुधार की ओर ध्यान नहीं दे रही हैं। स्थिति यह हो गयी है कि जेलों की स्थिति में सुधार की बजाय कैदियों की बढ़ती संख्या की वजह से हालात चिंताजनक हो रहे हैं। जेलों में अकसर हिंसा की घटनाओं को भी इसी से जोड़ कर देखा जा सकता है। न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर की अध्यक्षता वाली पीठ ने पिछले सप्ताह ऐसे ही एक मामले की सुनवाई के दौरान इस स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की और कहा कि हालांकि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सभी व्यक्तियों को सम्मान और गरिमा के साथ जीने का अधिकार है लेकिन ऐसा लगता है कि जेलों में बंद कैदियों की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ है।
वैसे छोटे-मोटे अपराध के आरोपों में गिरफ्तारी के बाद से जेल में बंद विचाराधीन कैदियों की समस्या नयी नहीं है। इनकी माली हालत भी अच्छी नहीं है। इनमें से अनेक विचाराधीन कैदी तो जमानती भी उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं हैं। शायद इस वजह से भी ये अभी तक जेलों में हैं। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए नरेन्द्र मोदी सरकार ने भी संप्रग सरकार की तरह ही विचाराधीन कैदियों के बारे में ठोस कदम उठाने का निश्चय किया था लेकिन ऐसा लगता है कि इस दिशा में अभी तक कोई सकारात्मक पहल नहीं हो सकी है।
अब न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों की समीक्षा के लिये गठित जिला स्तर की समिति को हर तीन महीने में बैठक करने और इनमें जिला विधिक सेवा समिति के सचिव को शामिल होने का निर्देश दिया है। न्यायालय ने कहाहै कि विचाराधीन कैदी समीक्षा समिति दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 और धारा 436-क के प्रभावी तरीके से अमल के बारे में गौर करेगी ताकि विचाराधीन कैदियों को यथाशीघ्र रिहा किया जा सके। इसी तरह न्यायालय चाहता है कि पहली बार अपराध के आरोप में गिरफ्तार व्यक्ति के संदर्भ में अपराधी परिवीक्षा कानून के अमल पर भी गौर किया जाये ताकि ऐसे व्यक्तियों को सुधरने और समाज में फिर से पुनर्वास का अवसर मिल सके।
केन्द्र सरकार ने भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-क के तहत सभी राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखकर जिला स्तर पर समीक्षा समिति गठित करने का आग्रह किया था ताकि विचाराधीन कैदियों की रिहाई की दिशा में कदम उठाये जा सकें। ऐसा लगता है कि इसके बाद भी बात आगे नहीं बढ़ सकी और इसी वजह से न्यायालय को इसमें फिर हस्तक्षेप करना पडा है। वैसे, संप्रग सरकार के कार्यकाल में बतौर कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने 2010 में जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की समस्याओं को गंभीरता से लेते हुए बेहद ठोस काम किया था। कानून मंत्री के इस अभियान के तहत दो लाख से अधिक ऐसे विचाराधीन कैदियों की रिहाई भी हुई थी जो सालों से जेल में बंद थे। इनमें बड़ी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी तो अधिकतम सजा से भी ज्यादा समय जेल में गुजार चुके थे। इनमें ऐसे कैदी भी थे जो जमानत मिलने के बावजूद जमानती की व्यवस्था नहीं कर पाने के कारण रिहा नहीं हो सके थे।
उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद एक बार फिर गृह मंत्रालय इस दिशा में सक्रिय होगा और छोटे-मोटे अपराधों के आरोपों में सालों से जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों के मामलों की समीक्षा कर उनकी रिहाई के लिये पहल करेगा। इनमें बड़ी संख्या में ऐसे कैदी हैं जो आरोपों के लिये निर्धारित सजा से भी अधिक समय जेलों में व्यतीत कर चुके हैं।