आधी अधूरी खाद्य व्यवस्था– जाहिद खान

तत्कालीन यूपीए सरकार जब साल 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक लेकर आई, तो यह उम्मीद बंधी थी कि इस विधेयक के अमल में आ -जाने के बाद देश की 63.5 फीसद आबादी को कानूनी तौर पर तय सस्ती दर से अनाज का हक हासिल हो जाएगा। अफसोस, इस कानून को बने तीन साल हो गए, मगर यह आज भी पूरे देश में अमल में नहीं आ पाया है। नौ राज्यों के नागरिक भोजन अधिकार कानून से वंचित हंै। केंद्र सरकार द्वारा बार-बार चेताए जाने के बावजूद गुजरात समेत कुछ राज्यों की सरकारों ने अपने यहां इस महत्त्वपूर्ण कानून को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। यही वजह है कि अब सर्वोच्च न्यायालय को खुद आगे आना पड़ा है। कानून को लागू करने में हो रही देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए सख्त लफ्जों में कहा है कि क्या गुजरात भारत का हिस्सा नहीं है? क्या संसद का बनाया कानून गुजरात पर लागू नहीं होता?
 
 
सूखाग्रस्त राज्यों में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, मनरेगा, मध्याह्न भोजन जैसी गरीब हितेषी योजनाओं पर अमल में ढिलाई से खफा न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल के खंडपीठ ने सवाल उठाया कि क्या कोई राज्य सरकार इस तरह संसद से पारित कानून को लागू करने से इनकार कर सकती है? जाहिर है, अदालत के सभी सवाल और चिंताएं वाजिब हैं। इन राज्यों में वंचित तबकों को कुपोषण और भुखमरी से निजात दिलाने के लिए इस कानून का अमल में आना बेहद जरूरी है। यह कोई पहली बार नहीं है जब सर्वोच्च न्यायालय ने समाज कल्याण से संबंधित मनरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून और मध्याह्न भोजन योजनाओं के कार्यान्वयन के बारे में केंद्र सरकार से जवाब तलब किया हो। इससे पहले भी, पिछले महीने की अठारह तारीख को केंद्र से अदालत ने जानना चाहा था कि जिन राज्यों में यह कानून लागू नहीं हुआ है, क्या वहां प्रभावितों को न्यूनतम आवश्यक रोजगार और आहार मुहैया उपलब्ध कराया जा रहा है? जाहिर है, अदालत के बार-बार आगाह किए जाने के बाद भी जब सरकार नहीं जागी, तब जाकर अदालत को सख्त रुख अख्तियार करना पड़ा। खासतौर पर अदालत, गुजरात सरकार के रवैये से ज्यादा खफा थी। अदालत का कहना था कि ‘खाद्य सुरक्षा कानून, पूरे भारत के लिए है और गुजरात है कि इसका कार्यान्वयन नहीं कर रहा है। कल कोई कह सकता है कि वह आपराधिक दंड संहिता, भारतीय दंड संहिता और साक्ष्य अधिनियम को लागू नहीं करेगा।’ सर्वोच्च न्यायालय एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें इल्जाम लगाया गया है कि उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और चंडीगढ़ सूखा प्रभावित हैं, लेकिन इनमें से आधे राज्यों मसलन बिहार, गुजरात और हरियाणा ने अपने आप को सूखाग्रस्त घोषित नहीं किया है। वहीं उत्तर प्रदेश ने अपने कुछ इलाकों को ही सूखाग्रस्त घोषित किया है।
 
 
इन राज्यों में सक्षम प्राधिकारी समुचित राहत उपलब्ध नहीं करा रहे हैं। ‘स्वराज अभियान’ की ओर से दाखिल इस याचिका में सर्वोच्च न्यायालय से पूरेदेश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लागू कराने की मांग की गई है। याचिका में इसके अलावा सरकार से और भी कई मांगें हैं। मसलन, सूखा प्रभावित किसानों को फसल के नुकसान की स्थिति में समय पर और समुचित मुआवजा दिया जाए। बहरहाल, याचिका की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने गुजरात सरकार से तो जवाब तलब किया ही, हरियाणा सरकार से भी पूछा कि उसने अपने प्रदेश को अभी तक सूखाग्रस्त राज्य क्यों घोषित नहीं किया? वहीं उत्तर प्रदेश सरकार से अदालत का सवाल था कि आखिर बुंदेलखंड को अब तक सूखा प्रभावित घोषित क्यों नहीं किया गया है? कई राज्यों में इस साल भयंकर सूखा पड़ा है। सूखा प्रभावित राज्यों में उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ शामिल हैं। इन राज्यों में ग्रामीण गरीबों के लिए उपलब्ध कृषि संबंधी रोजगार में सूखे की वजह से बेहद कमी आई है।
 
 
इन लोगों को एक तरफ मनरेगा में काम नहीं मिल पा रहा है, तो दूसरी तरफ भोजन अधिकार कानून लागू न होने के कारण वे सस्ते अनाज से भी वंचित हैं। ऐसे विषम हालात में अपने दायित्वों के निर्वाह में केंद्र और राज्य सरकारें, दोनों ही नाकाम रही हैं। हमारे संविधान का अनुच्छेद-21 देश के हर नागरिक को जीने के अधिकार की गारंटी प्रदान करता है। अलबत्ता इसे कभी ठीक से परिभाषित नहीं किया गया। सर्वोच्च न्यायालय और कई बार कुछ उच्च न्यायालयों ने भी अनुच्छेद-21 का हवाला देते हुए कुपोषण या भुखमरी के मामलों में सरकारों से जवाब तलब किए हैं। वहीं अनुच्छेद-14 के तहत नागरिकों को कानून के समक्ष समानता की गारंटी हासिल है। यह अनुच्छेद देश की सीमाओं के अंदर सभी व्यक्तियों को कानून का समान संरक्षण प्रदान करता है। खाद्य सुरक्षा कानून संसद ने सर्वसम्म्मति से पारित किया था और तत्कालीन केंद्र सरकार ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को इस कानून को अपने यहां लागू करने के लिए पूरा एक साल का समय दिया था। वह भी इसलिए कि कानून का फायदा किसको मिले और किसको नहीं, यानी लाभार्थियों की बाबत आखिरी फैसला राज्य सरकार को ही करना था। कानून को बने तीन साल से ज्यादा हो गए, लेकिन आज भी कई राज्य सरकारें अपने यहां इस कानून को लागू करने में संजीदा नहीं हैं। केंद्र सरकार, क्रियान्वयन की समय-सीमा तीन बार बढ़ा चुकी है। आखिरी समय-सीमा तीस सितंबर, 2015 तय की गई थी। कुछ राज्य सरकारें अब भी अपने यहां इस कानून को लागू करने के लिए और समय मांग रही हैं। बार-बार समय-सीमा बढ़ाए जाने के बाद भी जब राज्य सरकारें नहीं जागीं, तो पिछले दिनों केंद्र सरकार ने इन राज्यों को सख्त लहजे में चेतावनी देते हुए यहां तक कह दिया था कि ‘अब इस मामले में किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश को कोई रियायत नहीं मिलेगी। जो राज्य अपने यहां इस कानून को लागू करने में नाकाम रहे हैं, उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत केंद्र द्वारा दिया जाने वाला एपीएल और बीपीएल परिवारों के लिए अतिरिक्त खाद्यान्न का आबंटन रोक दिया जाएगा। उन्हें इसमदमें केंद्र की ओर से कोई खाद्यान्न या रकम नहीं मिलेगी।’ सरकार का यह फैसला सही भी है। जब तक सरकार इस दिशा में कोई सख्त कदम नहीं उठाएगी, तब तक राज्य सरकारें इस कानून को यों ही लटकाए रखेंगी, जिसका खमियाजा इन राज्यों की गरीब जनता को भुगतना पड़ेगा।
 
 
भोजन अधिकार कानून देश के सभी राज्यों में इसलिए और जरूरी है कि इस कानून का दायरा काफी विस्तृत है। कानून में बेसहारा और बेघर लोगों, भुखमरी और आपदा प्रभावित व्यक्तियों जैसे विशेष समूह के लोगों के लिए भी अनाज उपलब्ध कराने का प्रावधान है। यही नहीं, कानून में गर्भवती महिलाओं और दुग्धपान कराने वाली माताओं के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था की गई है। पौष्टिक आहार का अधिकार मिलने के अलावा उन्हें छह महीने तक एक हजार रुपए प्रतिमाह की दर से नकद-लाभ भी दिया जाता है। इसके अलावा आठवीं कक्षा तक के बच्चों को स्कूल में मुफ्त भोजन मिलने की सुविधा है। कानून की एक अहम बात और, हर शख्स को उसके हक के मुताबिक सस्ता अनाज मुहैया न होने की सूरत में राज्य सरकार को उसे खाद्य सुरक्षा भत्ता देना होगा। यानी वंचित लाभार्थी सरकार से खाद्य-भत्ता पाने के हकदार होंगे। जाहिर है, भोजन अधिकार कानून के इन्हीं सब अनिवार्य प्रावधानों को देखते हुए, राज्य सरकारें इस कानून को लागू करने से कतरा रही हैं। उन्हें मालूम है कि यह कानून एक बार उन्होंने अपने राज्य में लागू कर दिया, तो जनता के प्रति उनकी जवाबदेही पहले कीबनिस्बत और बढ़ जाएगी। इन प्रदेशों में जो लोग खाद्यान्न से वंचित हैं, उन सभी को अनाज या पोष्ठिक आहार देना होगा। कानून के अमल में आ जाने के बाद अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराना संभव नहीं हो पाएगा। यही वजह है कि जानते हुए भी वे अपने राज्यों में इस कानून को लटकाए हुए हैं। बहरहाल, अब इस मामले में अगली सुनवाई बारह फरवरी को होगी। इससे पहले केंद्र सरकार को दस फरवरी तक एक हलफनामा दायर कर अदालत को यह बताना होगा कि उसने और तमाम राज्य सरकारों ने अपने-अपने यहां सूखे से निबटने के लिए क्या उपाय किए हैं। कोई भी लोककल्याणकारी सरकार अपने कमजोर तबकों की भलाई के लिए कल्याणकारी योजनाएं, कानून बनाने और आपदा के समय राहत मुहैया कराने का काम करती है। समाज कल्याण से संबंधित मनरेगा और खाद्य सुरक्षा कानून संसद में सर्वसम्मति से पारित हुए हैं। कोई राज्य सरकार यह कह कर इन कानूनों से अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि वह जब चाहेगी, तब इन्हें अपने यहां लागू करेगी। इन कानूनों पर अमल ऐच्छिक नहीं है। जैसे आपराधिक न्याय व्यवस्था पर कोई समझौता नहीं हो सकता, वैसी ही स्थिति संसद से पारित कल्याणकारी कानूनों की भी है। कोई राज्य यदि अपने यहां इन कानूनों को लागू करने में कोताही बरत रहा है, तो निश्चित तौर पर वह संविधान और संसद की सर्वोच्चता से भी इनकार कर रहा है। सरकार जिस गंभीरता से कानून बनाने का काम करती है, वैसी ही गंभीरता से उसे इन कानूनों को देश के अंदर सभी जगह लागू करवाने की कोशिश करनीचाहिए।

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