हाल ही में सेना के दो मेजर जनरल के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति को लेकर सीबीआई जांच के आदेश दिए गए हैं। यह भी खबर है कि सेना में प्रमोशन के लिए घूस देने की आशंका है। इसके पहले दो लेफ्टिनेंट जनरल के खिलाफ भी ऐसा ही मामला चला था। प्रधानमंत्री ने हाल में अधिकारियों की मीटिंग में कस्टम्स और उत्पाद कर विभाग में भ्रष्टाचार को लेकर सख्त ताकीद की। यानी देश के राजस्व को चूना लगाया जा रहा है।
कहने की जरूरत नहीं कि अगर सेना के शीर्ष अधिकारियों को भी यह बीमारी है तो हम कितने महफूज रह सकते हैं। सत्ता में बैठे राजनेताओं में से कई इसकी जद में हैं। अगर देश की सर्वोच्च अफसरशाही भी कफनचोर निकले तो समाज की चिंता बेचैनी में बदल जाती है। हाई कोर्ट तो छोड़िए, सुप्रीम कोर्ट के कुछ मुख्य न्यायाधीश भी इससे नहीं बचे हैं। हाई कोर्ट के एक मुख्य न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट के एक जज पर अपनी बहन को जज बनाने का दबाव डालने का आरोप लगाया और भारत के मुख्य न्यायाधीश को भेजा शिकायत पत्र मीडिया को देकर सार्वजनिक कर दिया। कुल मिलाकर प्रजातंत्र की तीनों औपचारिक संस्थाएं व चौथी अनौपचारिक संस्था मीडिया, सभी हम्माम में हैं।
आखिर जाता क्यों नहीं हमारे देश से यह रोग? ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार हमेशा क्यों पूरा यूरोप इस बीमारी से लगभग अछूता है? अमेरिका में भी यह आमजन को प्रभावित नहीं करता। अगर संपन्न्ता इसका कारण है तो हमने पिछले 25 सालों में सकल घरेलू उत्पाद में भी जबरदस्त छलांग लगाई है। 50वें से नौवें नंबर पर आ गए। यह अलग बात है कि मानव विकास सूचकांक पर हम इस दौरान वहीं के वहीं रहे। हाल ही में सोशल मीडिया में एक फोटो वाइरल हुआ जिसमें इजराइल के प्रधानमंत्री और उनकी पत्नी अपने बेटे को सेना में भर्ती होने पर भावभीनी बिदाई दे रहे थे। कभी भारत के किसी बड़े नेता के बेटे को आपने सेना में भर्ती होते सुना? वह भी देश की सेवा करता है, पर पार्टी का टिकट लेकर या पिछले दरवाजे से राज्यसभा में आकर या पिता के नाम पर चुनाव जीतकर और अगर पिता या पति ज्यादा दमदार हुआ तो मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री बनकर। एक अन्य चित्र भी वाइरल हुआ, जिसमें स्वीडन के प्रधानमंत्री बस में टिकट लेकर संसद के गेट पर उतरते हुए दिखते हैं। भारत में क्या यह संभवहै?
लेकिन नेता का आचरण व्याधि का कारण नहीं अभिव्यक्ति है। अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव के माध्यम से हम अपने रहनुमा चुनते हैं तो दोष भी हमारा ही हुआ। अगर कानून है पर काम नहीं कर रहा है, अगर अफसर और सेना में भी भ्रष्टाचार व्याप्त है तो शायद हमने अच्छे इंसान पैदा करने बंद कर दिए हैं। लोकपाल (यानी एक और संस्था) इसका इलाज नहीं है। दुनिया में तीन करोड़ तीस लाख कानून हैं, लेकिन इससे हत्या, बलात्कार और भ्रष्टाचार पर तो कोई रोक नहीं लगाई जा सकी है।
दरअसल भ्रष्टाचार नैतिकता और मूल्यों से जुड़ा प्रश्न है और इसका समाधान कानून और औपचारिक संस्थाओं में ढूंढ़ना ही गलत है। समाज के इकाई के रूप में व्यक्ति कानून के डर से नहीं स्वयं की चेतना से नैतिक बनता है। व्यक्ति नैतिक बनता है मां की गोद में, स्कूल में अपने अध्यापक के आचरण को देखकर। पड़ोसी के बच्चे को देखकर। पास के लोगों की नैतिकता के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता देखकर। अपने प्रतिमानों को देखकर। दुर्भाग्यवश हमने प्रतिमान बनाने बंद कर दिए और बनाए भी तो बाजारी ताकतों की वजह से गलत प्रतिमान। सब्जी बेचने वाले की बेटी देश की सबसे कठिन आईआईटी प्रवेश परीक्षा पास करती है। वह आइकॉन नहीं बनती। लेकिन डांस इंडिया डांस में प्रथम आने वाला लड़का देश में घुमाया जाता है और जनता उसे देखने को टूट पड़ती है।
एक गैरसरकारी संस्थान ने कुछ माह पहले अपने अध्ययन में पाया कि एक औसत ग्रामीण राशन, स्वास्थ्य, शिक्षा और जलापूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए औसतन 164 रुपए घूस हर साल देता है। यानी हरेक ग्रामीण परिवार से लगभग एक हजार रुपए सालाना। अध्ययन में ये भी पता लगा कि सबसे ज्यादा घूस बगैर कागज के फर्जी बीपीएल कार्ड बनाने के मद में जा रही है, लगभग 800 रुपया। लेकिन यह वह भ्रष्टाचार नहीं जो देश को खा रहा है। असल भ्रष्टाचार गरीब या विकास के नाम पर बहने वाले फंड को लेकर है, जो हमारे बजट का बड़ा हिस्सा है। इसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक तीखी टिप्पणी में सरकारी वकील से पूछा था कि क्या नौकरशाहों को मसूरी (जहां आईएएस प्रोबेशनर्स की ट्रेनिंग होती है) में यह भी सिखाया जाता है कि भ्रष्टाचार पर कैसे लीपापोती करें, कैसे साथी को बचाएं?
एक ग्रीक कहावत है : फिश रॉट्स फ्रॉम द हेड फर्स्ट यानी मछली पहले सिर से सड़ना शुरू होती है। भारत का तंत्र भी शीर्ष से सड़ना शुरू कर रहा है। मुश्किल ये है कि हम इसमें पूंछ के पास होकर भी सड़ांध से दूर नहीं हैं!