अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोते-पिराते मैंने कभी यह कल्पना भी नहीं की थी कि यह असीम संतुष्टि के साथ न जाने कितने रिश्तों को जोड़ देगी। ऐसे रिश्ते, जिनसे मानसिक और भावनात्मक मुलाकात तो पत्रों और फोन के माध्यम से महीने में एकाध बार हो जाती, लेकिन रूबरू कभी नहीं हुई। इन्हीं में से एक उज्जैन के ‘शरद’ भाई साहब हैं। ‘भाई साहब’ का संबोधन जहां उनके आत्मसम्मान को प्रबल करता, वहीं मुझे आत्मीयता का बोध कराता है। बीते दो वर्षों में उन्होंने पांच या छह बार फोन किया। अति संक्षिप्त, माधुर्य और आशीषों से ओतप्रोत। ‘बेटा जब भी तुम्हारा लेख पढ़ता हूं, तो अच्छा लगता है… खूब लिखो…’, बस इतना ही कहा हर बार। उनका यह कहना कानों में रस घोल देता। ऐसे विरले लोग होंगे, जिन्हें अपनी प्रशंसा मुग्ध न करती हो, वह भी उन परिस्थितियों में जब चारों ओर ऐसे लोगों की भरमार हो, जिनके जीवन का लक्ष्य मात्र आलोचना करना हो। खैर, पिछले दो वर्षों की भांति नववर्ष की अलसुबह उनका फोन आया, ‘बेटा नववर्ष की ढेरों शुभकामनाएं, सदा खुश रहो। तुमने कभी सारस्वत साहब से बात नहीं कराई… औरत का सम्मान तो पति की पहचान के साथ जुड़ा हुआ है! क्यों ठीक कह रहा हूं न मैं! हों तो बात कराओ!’ ‘जी, वे अभी हैं नहीं, मैं जरूर बात कराऊंगी, आपको भी नववर्ष की शुभकामनाएं।’ यह कह कर मैंने फोन तो रख दिया, पर उनके शब्द कानों में गूंज रहे थे। स्त्री की क्या कोई पहचान नहीं? क्या वह देह मात्र है? क्या उसका कोई अस्तित्व नहीं? ये प्रश्न मेरे इर्दगिर्द घेरा बना रहे थे कि तभी फिर से फोन बजा। इस बार फोन स्क्रीन पर नाम पढ़ते ही मैंने तुरंत उठाया- ‘आखिर तुझे मेरी याद आ ही गई। कहां गायब है!’ और शिकायतों की पोटली बिखरती ही गई, बिना उसकी एक पल भी सुने। मेरी बचपन की सहेली। रिश्ता इतना प्रगाढ़ कि हम दोनों कॉलेज में सपने बुनते थे कि एक ही घर में ब्याह करेंगे, जिससे कभी अलग न होना पड़े, पर जिस तरह बिना सिफारिश के सरकारी महकमे में अर्जियां कचरे के ढेर में फेंक दी जाती हैं, हमारी ख्वाहिश भी ईश्वर ने ठुकरा दी। इसके बावजूद पिछले बीस सालों से हमने रिश्तों की डोर को मजबूती से थाम रखा है। ‘तू थी कहां?’ उसने खामोशी तोड़ी ‘कुछ खास नहीं, इंदौर थी नीतू के पास, मम्मी-पापा भी वहीं थे…।’ ‘क्यों सब ठीक तो है…?’ ‘नहीं कुछ ठीक नहीं है, मैंने तुझे बताया नहीं था, पिछले दो-तीन सालों से वह बहुत परेशान है, वह और उसका हसबैंड अलग रह रहे हैं। इसलिए तो वह रायपुर से इंदौर शिफ्ट हो गई है। बेटा भी उसी के पास है।’ ‘पर यह सब कैसे… क्यों?’ ‘लंबी कहानी है, ठीक तो शायद कभी कुछ नहीं था… पर हर बार नीतू को लगता कि शायद ठीक हो जाए… उसका इनवाल्वमेंट, फिर वह ड्रिंक भी करता है, हाथ भी उठा देता है…।’ ‘ये कैसे संभव है, इतना पढ़ा-लिखा है, दोनों डॉक्टर हैं… फिर कैसे…?’ ‘तू भी पागल है, क्या पढ़ाई-लिखाई ‘सभ्यता’ की गारंटी है? और फिर औरत डॉक्टरया कलेक्टर तो बाद में होती है, पहले बीवी होती है…।’ ‘अगर ऐसा है तो कानूनी तौर पर अलग क्यों नहीं हो जाती। पूरी जिंदगी ऐसे तो नहीं निकल सकती!’ ‘हम भी यही चाहते हैं, पर उसने मना कर दिया, कहती है जैसा चल रहा है चलने दो, कभी-कभार वह बच्चे से मिलने आ जाता है…।’ ‘ये क्या बात हुई जो रिश्ता निभाना संभव नहीं, उसे छोड़ देना ही बेहतर है…।’ ‘तू ठीक कह रही है, पर नीतू की बात भी मुझे गलत नहीं लगती। कहती है, ‘दीदी लाख दुनिया आगे बढ़ जाए, औरत कितनी भी पढ़-लिख जाए, पर उसका मान तो तभी होता है जब उसके नाम के आगे पति का नाम जुड़ा हो…। और सिर्फ इसी कारण न जाने कितनी बुरी निगाहों से बची रहती हूं…।’ मैं कुछ कह नहीं पाई। बाद में बात करूंगी कह कर फोन रख दिया, पर जिन सवालों से मैं थोड़ी देर पहले उलझी भर थी अब वे मेरा दम घोंटने लगे। यह कैसा मान, जो भीतर-भीतर घुटने पर मजबूर कर दे। शायद हम पशुओं के प्रति तो फिर भी दयालु होते हो जाते हैं, पर स्त्री के प्रति मानवीय भाव भी रखना स्वीकार नहीं। तो क्या शरद भाई साहब ने जो कहा, वह ठीक था! फिर मैं ही इतनी नकारात्मक हो रही हूं, सब तो एक जैसे नहीं होते, पर उन लोगों को कैसे ढूंढ़ा जाए जो स्त्री को देह मात्र नहीं, इंसान मानते हों।’
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