दावोस की पहली सुबह जब मैं बर्फ से ढके बाजार में निकली, तो एक कैफे के शीशे के चमकते दरवाजे पर ‘मेक इन इंडिया’ पढ़ा, जो बड़े अक्षरों में उस शेर की बगल में लिखा था, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस सपने का प्रतीक बन गया है। यह इसलिए भी अच्छा लगा कि कई वर्षों से निवेशकों के इस महत्वपूर्ण आर्थिक सम्मेलन में भारत अदृश्य रहा है। यह भी अच्छा लगा कि सम्मेलन की पहली सभा में एक अमेरिकी प्रोफेसर ने हमें आधुनिक तरीके से ध्यान के बारे में बताया। भारत की इस प्राचीन विद्या की अब दुनिया के बड़े मानसिक डॉक्टर और वैज्ञानिक जांच कर रहे हैं, क्योंकि यह साबित हो चुका है कि जो लोग ध्यान करते हैं, उनके दिमाग में ऐसा परिवर्तन आ जाता है, जो बुढ़ापे से भी हमें बचा सकता है और बुढ़ापे के कई रोगों से भी। सो, दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के चारों दिन ध्यान से शुरुआत हुई।
पिछले बीस वर्षों से जनवरी के आखिरी सप्ताह में मैं दावोस के इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए अवश्य पहुंचती हूं, क्योंकि यहां आने से मालूम पड़ता है कि आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर दुनिया भर में क्या नई चीजें हो रही हैं। पिछले साल से मैंने देखा है कि भारत की प्राचीन आध्यात्मिक विद्या में लोगों की रुचि बहुत बढ़ गई है। इस वर्ष दुनिया में तकनीकी क्रांति को लेकर चिंता भी देखने को मिली है, और यह माना जा रहा है कि एक और औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हो चुकी है। इसका असर क्या होगा, इस बारे में विशेषज्ञों को अभी मालूम नहीं है। पर इतना उन्हें जरूर मालूम है कि रोबोट इन्सानों के इतने काम करने लगे हैं कि दुनिया भर में व्यापक स्तर पर बेरोजगारी पैदा हो सकती है।
दावोस सम्मेलन में इस बार हमारे वित्त मंत्री भी आए और रिजर्व बैंक के गवर्नर भी। भारतीय उद्योगपति भी बड़ी संख्या में पहुंचे। लेकिन इस सम्मेलन में कभी भारत को लेकर जो रौनक हुआ करती थी, वह अभी तक नहीं दिखी है। देश की अर्थव्यवस्था में जब बहार थी, तो एक-दो वर्ष ऐसे गुजरे, जब इस शहर की ठंडी हवाओं में देसी मसालों की सुगंध और हिंदी फिल्मी गानों की गूंज सुनाई पड़ती थी। तब ऐसा लगता था कि भारत की प्रगति को दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती।
फिर वे दिन आए, जब सोनिया गांधी ने देश की अर्थव्यवस्था पर समाजवाद के नाम पर अपना छाप छोड़ने की कोशिश की। उस प्रक्रिया में हमारे उद्योगपतियों को फिर से बदनाम करने की कोशिश की गई, जबकि ये न होते, तो तीस करोड़ भारतीय गरीबी से निकलकर मध्यवर्ग में न आ सके होते। लाइसेंस राज के समाप्त होने के बाद जो थोड़ी-बहुत संपन्नता हमने देखी है, वह इसलिए आई, क्योंकि निजी औद्योगिक क्षेत्र ने कई ऐसे उद्योगों में निवेश किया, जिनमें नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर प्राप्त हुए। लेकिन सोनिया जी को चिंता अपने बेटे को विरासत सौंपने की थी, इसीलिए उन्होंने गरीबों की बात शुरू की। वह नए सिरे से लाइसेंस राज लेकर आईं और पर्यावरण के नाम परकई बड़े उद्योग उन्होंने बंद करवाए। तब भारत में कारोबार करना मुश्किल हो गया। सोनिया-मनमोहन के आखिरी दौर में इसी कारण मंदी और निराशा फैल गई थी। अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने में समय लगेगा। पर दावोस से इस बार मैं आपको यह खुशखबरी दे सकती हूं कि आशा की छोटी-सी किरण दिखने लगी है। दुनिया मान गई है कि भारत की आर्थिक नीतियां अब फिर से सही दिशा में चलने लगी हैं।