जलवायु परिवर्तन से सामंजस्य जरूरी- भरत झुनझुनवाला

केन्द्र सरकार ने किसानों के लिये फसल बीमा की नई स्कीम घोषित की है। अनुमान है कि धरती का तापमान बढ़ने के कारण सुनामी, बाढ़, तूफान तथा सूखे जैसे मौसम में उपद्रव बढ़ेंगे। तदनुसार किसानों की समस्यायें बढ़ेंगी। फसल चौपट होने से इन्हें आत्महत्या करने अथवा खेती से पलायन करने को मजबूर होना पड़ेगा। अतः सरकार द्वारा घोषित बीमा योजना सही दिशा में है। हालांकि, कागजी उलझनों के कारण इसके सफल होने में संदेह है।


ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि किसानों को फसलों के नुकसान की भरपाई हो जाये तो भी देश की खाद्य सुरक्षा स्थापित नहीं होती। गेहूं की फसल बेमौसमी वर्षा से नष्ट होने पर सरकार द्वारा किसानों को मुआवजा दिया जा सकता है। परन्तु जो गेहूं नष्ट हो जायेगी, उसकी भरपाई कैसे होगी? देशवासियों को अन्न कहां से मुहैया कराया जायेगा? आयातों पर निर्भरता की सीमा है। अलनीनो जैसे मौसमी उपद्रव लगभग आधे विश्व पर प्रभाव डालेंगे। अतः हमें उपाय निकालना होगा कि जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के कारगर कदम उठाये जायें।


एक ओर हम अधिकाधिक कार्बन उगल कर मौसम की बेरुखी को आमंत्रण दें और दूसरी ओर फसल बीमा जैसी योजनाओं को लागू करें तो स्थायित्व नहीं आयेगा। जैसे ज्यादा खाने से पाचक चूर्ण के अधिक सेवन करने से स्वास्थ्य में स्थायित्व नहीं आता है। अतः जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण जरूरी है। इस दिशा में सरकार सक्रिय है। कुछ माह पूर्व पेरिस में सम्पन्न हुए जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक सम्मेलन में साफ तकनीकों के प्रसार पर जोर दिया गया। जैसे साधारण बल्बों के स्थान पर एलईडी बल्बों के प्रयोग पर जोर दिया जा रहा है। यह कदम सही दिशा में होते हुए भी अपर्याप्त रहेगा।


साठ के दशक में छोटी कार की एवरेज लगभग 12 किलोमीटर प्रति लीटर आती थी। आज आधुनिक तकनीकों के उपयोग से एवरेज 20 से 25 किलोमीटर मिल रही है। परन्तु इससे कार्बन उत्सर्जन कम नहीं हुआ है चूंकि सड़क पर दौड़ने वाली कारों की संख्या लगभग दस गुना हो गयी है। नई कुशल तकनीकों के


उपयोग से पेट्रोल की जितनी कमी आयी, उससे अधिक वृद्धि कारों की संख्या बढ़ने से हो गई। इसी प्रकार हाईब्रिड कार, एलईडी बल्ब, बुलेट ट्रेन तथा अल्ट्रामेगा थर्मल पावर स्टेशन जैसी साफ तकनीकों के उपयोग से जलवायु परिवर्तन नहीं थमेगा, बल्कि बढ़ेगा।
ऊर्जा के उत्पादन की कथित साफ तकनीकों में भी समस्यायें हैं। महाराष्ट्र के एक मित्र ने बताया कि वहां फूलों की घाटी जैसा एक विलक्षण क्षेत्र था। कुछ वर्ष पूर्व नजदीक में ऊर्जा के उत्पादन को विन्डमिल लगा दी गयी। पाया गया कि उस क्षेत्र के फूल लुप्त होने लगे। संभवतः विन्डमिल के कारण पक्षियों का उस क्षेत्र से पलायन हो गया। पक्षियों एवं पतंगों आदि का परस्पर सम्बन्ध होता है। वह संतुलन बिगड़ गया और फूलों के पराग का आदान-प्रदान बाधित हो गया। विन्डमिल की आवाज का भी विपरीत प्रभाव हो सकता है। बहरहाल कारण जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि विन्डमिल का दुष्प्रभाव पड़ा।
इसी प्रकार जल विद्युत को साफ-सुथरा माना जाता है। लेकिन इसके दुष्प्रभावों का ज्वलंत उदाहरण अलकनन्दा नदी पर हाल में ही बनी श्रीनगर जल विद्युत परियोजनाहै। इसके निर्माण से पूर्व साल भर पहले वहां अमन चैन व्याप्त था जो समाप्त हो गया है। परियोजना के बांध के पीछे 30 किलोमीटर लम्बी झील बन गयी है। इस झील में पानी सड़ रहा है। जल संस्थान द्वारा इस सड़े हुए पानी को साफ करके चौरास तथा श्रीनगर आदि शहरों को सप्लाई किया जा रहा है। इस पूरे क्षेत्र में पीलिया रोग का प्रकोप हो गया है। झील के किनारे बसे गांव धसक रहे हैं। झील के पानी से किनारे की मिट्टी नरम होकर फिसल रही है। मकानों में दरारें पड़ रही हैं। उत्तराखण्ड की विशिष्ट मछली का नाम महासीर है। यह अंडे देने के लिये ऊपर के ठंडे क्षेत्र को जाती थी। बांध के कारण अब महासीर उसमें कैद है और उसका प्रजनन क्षेत्र तक आवागमन अवरुद्ध हो गया है। महासीर की लंबाई घटने लगी है। इस प्रकार कथित साफ तकनीकों के भी दुष्प्रभाव पड़ते हैं। अर्थशास्त्र में एक कहावत है-कुछ भी मुफ्त नहीं है। हर वस्तु की कीमत किसी न किसी रूप में चुकानी पड़ती है। यह सोच गलत है कि साफ तकनीकों को अपनाकर हम अपनी खपत को असीमित स्तर तक बढ़ाते जा सकते हैं। घोड़े को गुड़ खिलाकर उसकी चाल कुछ बढ़ाई जा सकती है लेकिन एक रफ्तार से अधिक दौड़ाने पर वह गिर ही पड़ेगा।
हमें समझना ही होगा कि खपत में वृद्धि की एक सीमा है। इस कटु सत्य को स्वीकार करने में अड़चन आती है कि अर्थशास्त्रियों ने सुख को खपत की मात्रा से परिभाषित कर दिया है। जैसे पढ़ाया जाता है कि एक केला खाने की तुलना में दो केले खाने वाला व्यक्ति ज्यादा सुखी है। इस सोच के कारण हम उत्तरोत्तर अधिक खपत की ओर बढ़ते जाते हैं। लेकिन स्पष्ट है कि प्रकृति एक सीमा से अधिक खपत को उपलब्ध नहीं करा सकती है। इसलिये मनुष्य और प्रकृति के मध्य द्वंद्व छिड़ा हुआ है। इस समस्या का हल हम साफ तकनीकों का हवाला देकर नहीं हासिल कर सकते। एक मात्र उपाय है कि हम सुख की परिभाषा पर पुनर्विचार करें।
राज निद्रा को परिभाषित करते हुए हवाला दिया जाता है कि सड़क पर सोने वाला राज निद्रा का सुख प्राप्त करता है। ईसा मसीह ने कहा था कि एक ऊंट सूई के छेद में से निकल गया। यह मैं स्वीकार कर सकता हूं परन्तु एक अमीर स्वर्ग पहुंचा हो, यह मैं नहीं मानता हूं। यह भी देखा जाता है कि अमीर लोग ब्लडप्रेशर, शूगर एवं अस्थमा जैसे मनोरोगों से ज्यादा ग्रसित होते हैं। जबकि फकीर प्रसन्न मुद्रा में दिखते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि केवल खपत बढ़ाने मात्र से सुख नहीं मिलता है।
वास्तव में सुख अंतर्मन की इच्छाओं तथा सांसारिक कार्यों के बीच तालमेल बैठाने मात्र से मिलता है। इच्छा हो रोटी खाने की और खिलाया जाये पेड़ा तो सुख नहीं मिलता है। लेकिन आधुनिक अर्थशास्त्र में अंतर्मन का कानसेप्ट है ही नहीं। बल्कि फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिक तो अंतर्मन को एक बाधा के रूप में देखते हैं। इसलिये पूरा संसार खपत बढ़ाने को आतुर है और प्रकृति इस दुस्साहस का दंड हमें जलवायु परिवर्तन केरूपमें दे रही है।
अतः हमें साफ तकनीकों का उपयोग अवश्य करना चाहिये। जलवायु परिवर्तन से प्रभावित किसानों को बीमा अवश्य देना चाहिये। परन्तु ये कदम ऊपरी हैं। अंततः हमें सुख को नये सिरे से परिभाषित करना होगा, जिससे हम कम खपत से सुख प्राप्त कर सकें और जलवायु परिवर्तन के खतरे से बच सकें।

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