कमाई के कंगूरे और गरीबी का गर्त- धर्मेन्द्र पाल सिंह

स्विट्जरलैंड के बर्फीले नगर दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक की पूर्व संध्या पर ब्रिटेन की संस्था ऑक्सफाम ने एक रिपोर्ट जारी की, जिससे पूरी दुनिया में हंगामा मच गया। ‘एन इकोनॉमी फॉर दी 1%’ नामक इस रिपोर्ट में बताया गया है कि आज महज बासठ खरबपतियों की संपत्ति 17.6 खरब डॉलर (1187.64 खरब रुपए) है, जो विश्व की आधी आबादी की दौलत के बराबर है। एक प्रतिशत अमीरों के पास शेष निन्यानबे फीसद जनसंख्या के बराबर दौलत है।

 

पिछले पांच साल में जहां ‘सुपर रिच’ तबके की संपत्ति में चौवालीस फीसद इजाफा हुआ है, वहीं दुनिया के 3.6 अरब लोगों की संपत्ति इकतालीस प्रतिशत घट गई। चौंकाने वाली बात यह है कि इन धन्नासेठों के पास जो धन-दौलत है, वह दुनिया के 118 देशों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बराबर है। इस सच से अब कोई इनकार नहीं कर सकता कि विकास की मौजूदा डगर पर चलने से ही गरीब-अमीर के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है। वर्ष 2010 में 388 अमीरों की संपत्ति दुनिया की आधी आबादी की कुल दौलत के बराबर थी, जबकि 2011 में उनकी संख्या घट कर 177, 2012 में 159, 2013 में 92, 2014 में 80 और 2015 में 62 रह गई। इस हिसाब से वह दिन दूर नहीं, जब मुट्ठी भर लोग पूरी दुनिया की धन-दौलत के मालिक बन जाएंगे और फिर समस्त सरकार और शासक उनके इशारों पर चलेंगे। आज एक तरफ विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों (एमएनसी) और वित्तीय संस्थाओं के चुनिंदा मालिक हैं, तो दूसरी तरफ करोड़ों कंगाल हैं, जिनके पास दो जून की रोटी का भी जुगाड़ नहीं है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अब भी दुनिया में सत्तर करोड़ लोग घोर गरीबी में जी रहे हैं। उनकी आय 1.90 डॉलर (128 रुपए) प्रतिदिन से कम है। यह विषमता आर्थिक विकास के मार्ग में रोड़ा बन गई है।

 

पश्चिम एशिया और लैटिन अमेरिकी देशों में उभरता सामाजिक असंतोष भी इसी का परिणाम है। इस संदर्भ में विश्वविख्यात अर्थशास्त्री थॉमस पिकेट्टी गहन शोध के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पिछले तीन सौ साल के दौरान आय और संपत्ति के असमान वितरण और विस्तार के कारण पूरी दुनिया में अमीर और गरीब के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती गई और आज खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है। उनके अनुसार जन-कल्याण से जुड़ी योजनाओं के लिए भारत सरकार को पैसे की दरकार है, पर संपन्न तबका बहुत कम कर देता है। आज हिंदुस्तान में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और कर का अनुपात केवल ग्यारह प्रतिशत है, जबकि अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में यह तीस से पचास फीसद के बीच है। भारत में भी इसे बढ़ा कर इसी स्तर पर लाया जाना चाहिए। लेकिन केंद्र सरकार ने औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने के नाम पर अपने पिछले बजट में कॉरपोरेट टैक्स घटाने की घोषणा की थी, जो पिकेट्टी की सोच के उलट है।

 

उदारीकरण की आड़ में सरकार आर्थिक सुधार का ढिंढोरा तो पीटती है, पर वास्तव में उसकी नीयत कॉरपोरेट जगत को ज्यादा से ज्यादा छूट देने की होती है। सच्चे सुधार का संबंध जन-कल्याण (शिक्षा, स्वास्थआदि) से जुड़ी योजनाओं पर अधिक से अधिक धन खर्च करने और कर-संग्रह प्रणाली को पूर्ण पारदर्शी बनाने से होता है। इन दोनों मोर्चों पर हमारी सरकार फिसड्डी है। पहले भारत सरकार आयकर से जुड़े आंकड़े प्रकाशित करती थी, पर न जाने क्यों वर्ष 2000 से यह काम बंद है। इन आंकड़ों के अभाव में देश में व्याप्त आर्थिक असमानता का असली चेहरा सामने नहीं आ पाता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिक भारी कर चोरी करते हैं और वह पैसा ऐसे देशों (टैक्स हैवन) में छिपाते हैं, जहां पकड़े जाने की संभावना नहीं होती। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में भाग ले रहे नब्बे प्रतिशत कॉरपोरेट पार्टनरों का किसी न किसी टैक्स हैवन में खाता खुला है। मोटा अनुमान है कि उन्होंने छिहत्तर खरब डॉलर (5128.48 खरब रुपए) इन देशों में जमा कर रखे हैं। भारत में आम धारणा यही है कि देश के बाहर जाने वाले काले धन का मुख्य स्रोत नेताओं या बड़े सरकारी अफसरों को मिलने वाली रिश्वत, घरेलू व्यापारियों द्वारा इनवाइस में हेरा-फेरी से होने वाली दो नंबर की कमाई या हवाला कारोबार से उपजा पैसा है, लेकिन काले धन पर ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी (जीएफइ) की ताजा रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह भ्रम टूट जाता है।

 

जीएफइ की गत दिसंबर में जारी रिपोर्ट- ‘इलिसिट फाइनेंशियल फ्लो फ्रॉम डेवलपिंग कन्ट्रीज: 2004-2013′ के अनुसार उक्त अवधि में भारत से करीब 400 खरब रुपए की काली कमाई बाहर गई और यह सारा धन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का है। इसमें एक इकन्नी भी नेताओं, सरकारी अफसरों, घरेलू व्यापारियों या हवाला कारोबारियों की नहीं है। हां, अगर जीएफइ के घोषित काले धन में उनका नंबर दो का पैसा जोड़ दिया जाए, तो आंकड़ा और ऊंचा हो जाएगा। हर साल खातों में हेरा-फेरी कर भीमकाय एमएनसी भारी कर चोरी करती हैं और फिर यह पैसा बाहर भेज देती हैं। विदेशी बैंकों में जमा कुल काले धन में एमएनसी की हिस्सेदारी 83.4 फीसद है। भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के अनुसार सन 2000 से 2015 के बीच देश को कुल 399.2 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) मिला, जबकि 2004-13 में काले धन के रूप में 510 अरब डॉलर बाहर चले गए। इस प्रकार महज दस बरस के भीतर भारत को 112.8 अरब डॉलर का घाटा हुआ। यह एक आंकड़ा ही एफडीआइ की चमक की पोल खोलने को काफी है। आज पूरी दुनिया के कानून उन देशों और लोगों के अनुकूल गढ़े गए हैं, जिनके पास दौलत है। फिलहाल विश्व व्यापार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है।

 

मजे की बात है कि उन्होंने तिजारत की आड़ में टैक्स चोरी के एक से बढ़ कर एक नायाब तरीके खोज रखे हैं। हर एमएनसी की सैकड़ों सहायक कंपनियां आपस में जम कर व्यापार करती हैं। दुनिया के कुल व्यापार में उनके इस आपसी लेन-देन की हिस्सेदारी साठ प्रतिशत से भी अधिक है। इसका अर्थ है कि विश्व व्यापार में महज चालीस फीसद काम खरा है, बाकी साठ प्रतिशत कर चोरी और काला धन कमाने की नीयत से हो रहा है। इस कुचक्र की चपेट में आने से यूरोपीय संघ के राष्ट्रों को प्रति वर्ष करीब 11.1 खरब यूरो(806खरब रुपए) की चोट लग रही है। अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों को होने वाला घाटा तो और अधिक है। टैक्स जस्टिस नेटवर्क (टीजेएस) ने निम्न और मध्य आयवर्ग के 139 देशों का अध्ययन किया, जिसमें चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। वर्ष 1970 और 2010 की बीच की अवधि में विदेशी निवेश करने वाली बड़ी कंपनियों ने जिस देश में जितना धन लगाया, उससे कहीं अधिक कमा कर बाहर भेजा।

 

सन 2010 में इन राष्ट्रों के मुट््ठी भर आभिजात्य वर्ग के पास 70.3 से लेकर 90.3 खरब डॉलर (4682-6014 खरब रुपए) की अघोषित दौलत थी, जबकि कर्ज की रकम 40.8 खरब डॉलर (2717 खरब रुपए) थी। मतलब यह कि अंगुलियों पर गिने जाने वाले धन्ना सेठों के पास पूरे देश पर चढ़े कर्जे से अधिक काला धन था। अब वहां की सरकार सख्त रुख अपना कर विदेशी बैंकों में जमा सारा काला पैसा घर ले आए, तब कर्ज की पाई-पाई चुकाने के बाद भी काफी रकम बच जाएगी, जिसका उपयोग जन-कल्याण से जुड़ी योजनाओं में किया जा सकता है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इन देशों की अधिकतर धन-दौलत चंद अरबपतियों की मुट्ठी में कैद है, जबकि कर्ज का बोझ सरकार के माध्यम से आम आदमी के सिर पर चढ़ा हुआ है। कर्जे और ब्याज चुकाने के लिए सरकार हर साल गरीब जनता पर नए-नए कर लादती है। बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमीर तबके से प्रत्यक्ष कर वसूलने के बजाय वह वेतनभोगी तबके, छोटे उद्योगपतियों और मध्यवर्ग को परोक्ष करों के फंदे में फांसती है। हमारे यहां सर्विस टैक्स में निरंतर इजाफा और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लाने और लागू करने के लिए मची हाय-तौबा इस नीति का प्रमाण है।

 

फिलहाल दुनिया में दो तरह के कर कानून मॉडल हैं। पहले मॉडल का हिमायती संयुक्त राष्ट्र संघ है, जो स्रोत देश में ही आय पर कर लगने का हिमायती है। उसके अनुसार जिस देश में आय से संबंधित आर्थिक गतिविधि चल रही है, वहीं टैक्स भी लगना चाहिए और टैक्स लगाते समय यह नहीं देखा जाए कि कंपनी का मालिक कहां का रहने वाला है। यह मॉडल विकासशील देशों के अनुकूल माना जाता है। दूसरा मॉडल आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कॉपरेशन ऐंड डेवलपमेंट (ओइसीडी) का है, जिसमें किसी देश के नागरिक को तो दुनिया के किसी भी कोने से हुई आय पर कर चुकाना पड़ता है, लेकिन विदेशी नागरिक को केवल घरेलू आय पर कर चुकाना पड़ता है। यह मॉडल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सुहाता है, क्योंकि उनके मालिक जिस देश में रहते हैं, अक्सर उस देश के नागरिक नहीं होते, इस कारण टैक्स से बच जाते हैं। उनकी आय का बड़ा हिस्सा अन्य देशों से आता है। वहां भी उन्हें एनआरआइ का दर्जा प्राप्त होता है, इस वजह से कर से बच जाते हैं। डबल टैक्सेशन अवाईडेंस एग्रीमेंट में मौजूद विरोधाभास का लाभ उठा कर ही भारत में वोडाफोन और नोकिया ने भारी कर चोरी की। काले धन की जांच करते समय अब इन सब तथ्यों पर ध्यान दिया जाना भी जरूरी है।

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