आज हमारा गणतंत्र 66 साल का हो गया। लंबी गुलामी के बाद संघर्ष से मिली आजादी में गणतंत्र का यह सफर आसान हरगिज नहीं रहा। आजादी के साथ ही आयी विभाजन की विभीषिका से उबर कर भारत ने गणतंत्र की राह सोच-समझ कर ही चुनी थी। फिर भी अगर सफर आसान और परिणाम वांछित नहीं रहे, तो कारण विरासत में मिली जटिलताओं के साथ ही नीति-निर्धारण में दोष का भी है। गुलामी के लंबे दौर में अशिक्षा, बेरोजगार, गरीबी और अस्वास्थ्य सरीखी समस्याएं चुनौतियां बन चुकी थीं। बेलगाम जनसंख्या वृद्धि इन चुनौतियों को और भी विकराल बनाती गयी। नतीजतन गणतंत्र के लंबे सफर में कई क्षेत्रों में अभूतपूर्व उपलब्धियां हासिल करने के बावजूद कई समस्याएं मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं।
लंबी गुलामी के चलते जिस भारत को सपेरों और भिखारियों का देश कह कर कटाक्ष किये जाते थे, उसी के लाड़लों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रबंधन से लेकर विदेशों में शासन तक पर अपनी प्रतिभा-क्षमता का लोहा मनवाया है। गुलामी काल में जो देश रोटी और कपड़ा तक के लिए आयात पर निर्भर बना दिया गया था, वह आज विकसित देशों तक के उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित कर अंतरिक्ष बाजार का बड़ा खिलाड़ी बन गया है। बड़े-बड़े देशों में भारत में निवेश करने की होड़ ही नहीं लगी है, खुद भारतीय भी कई देशों में बड़े निवेशक की भूमिका में हैं।
भारतीयों की मेहनत का लोहा तो दुनिया हमेशा मानती रही है, आजाद भारत की मेधा का जादू भी अब विश्व के सिर चढ़कर बोल रहा है। जाहिर है, राजनीतिक और शासकीय तंत्र की प्रभावशीलता के बिना यह सब नहीं हुआ होगा। बेशक इन उपलब्धियों पर कोई भी देश-समाज इतरा सकता है। हमें भी इतराना चाहिए, लेकिन इसी समय कुछ ऐसे सवाल भी जवाब मांग रहे हैं, जिनसे मुंह नहीं चुराया जा सकता। इसलिए भी कि ये सवाल हमारी नीतियों-प्राथमिकताओं की दशा-दिशा पर भी सवाल उठाते हैं, जिनका जवाब पाये बिना जरूरी नीतिगत सुधार नहीं हो पायेंगे।
भारत कृषि प्रधान देश रहा है। हमारे मेहनतकश किसानों ने ही हरित क्रांति के जरिये देश को खाद्यान्न आयातक से निर्यातक बना दिया, लेकिन उनकी दशा-दिशा नहीं बदली। कृषि और किसान की बदहाली का इससे बड़ा शर्मनाक सच क्या होगा कि किसानों की आत्महत्याओं का अंतहीन सिलसिला चल पड़ा है। यह अचानक नहीं हुआ। पंचवर्षीय योजनाएं बनती रहीं, सरकारें आती-जाती रहीं, लेकिन कृषि को लाभप्रद बनाने वाली नीतियां नहीं बनायी गयीं। नतीजतन कृषि प्रधान भारत में खेती घाटे का व्यवसाय बन गयी है और लोग तेजी से खेती करना छोड़ रहे हैं।
परिणामस्वरूप गांवों में बढ़ती बेरोजगारी से न सिर्फ वहां सामाजिक-आर्थिक समस्याएं पैदा हो रही हैं, बल्कि शहरों की ओर पलायन से वहां भी समस्याएं बढ़ रही हैं। अगर कृषि को लाभप्रद बनाते हुए शहर केंद्रित के बजाय विकेंद्रित विकास की नीतियां बनायी गयी होतीं तो ये समस्याएं नहीं आतीं। बेशक आजादी के बाद देश में खुले उच्च शिक्षा के संस्थानों ने विदेशों तक में अपनी पहचान-प्रतिष्ठा बनायी है, लेकिन महंगी शिक्षा ने समाज में अमीर-गरीब के बीच का विभाजन और गहरा कर दिया है। हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पीएचडी स्कॉलर रोहितवेमुला की आत्महत्या तो ऐसे असहज सवाल उठाती है, जिनका जवाब खोजे बिना कोई भी सभ्य समाज सहज नहीं हो सकता।
निजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त बच्चे अकसर प्रतिस्पर्धा में बाजी मार ले जाते हैं, जबकि सरकारी स्कूलों का खराब रिजल्ट शिक्षा तंत्र पर ही सवालिया निशान लगा रहा है। ऐसी शिक्षा सिर्फ बेरोजगारों की फौज ही तैयार कर सकती है। इस बीच बेकाबू हुए भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीवन दूभर बनाते हुए विकास की रफ्तार पर भी ब्रेक लगाने का काम किया है। काले धन की एक समानांतर अर्थव्यवस्था के खतरे तो सारी दुनिया महसूस कर रही है। सामाजिक-आर्थिक जटिलताओं के इस चक्रव्यूह में संस्कार और नैतिक मूल्य कहीं गुम होकर रह गये हैं, जिसके भयावह खतरे समाज भुगत रहा है। नक्सलवाद और आतंकवाद के खतरों के साये भी लगातार गहरे होते जा रहे हैं।
इसलिए 67वां गणतंत्र दिवस हमारे लिए उत्सव मनाने और उपलब्धियों पर इतराने के साथ ही असहज सवालों का जवाब खोजने के लिए आत्मविश्लेषण का अवसर भी है। जाहिर है, यह आत्मविश्लेषण सत्ता पर आसीन नीति नियंताओं को तो करना ही है, समाज को भी करना होगा। समाज की सजग भागीदारी के बिना कोई देश सर्वांगीण विकास नहीं कर सकता। हां, नीति-निर्धारण और क्रियान्वयन में समाज की अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित करने में अवश्य सरकार की भूमिका अहम है।