हमारी शिक्षा व्यवस्था में आज यह कमजोरी है कि हम बच्चों के अपने अनुभवों को, उनकी अपनी स्वाभाविक बोली को, जुबान को बहुत जल्दी एक मानक भाषा में या एक मानक सोच के सांचे में ढाल देना चाहते हैं। हम अपनी व्यवस्था में एक छोटे बच्चे और किशोर में फर्क नहीं कर पाते। हालांकि शिक्षक सीखते जरूर हैं शिक्षक प्रशिक्षण में कि बाल मनोविज्ञान ऐसा होता है, शिशु ऐसा होता है, किशोर ऐसा होता है, लेकिन जब वे कक्षा में पहुंचते हैं तो इन मुद्दों पर अमल नहीं करते। इसलिए भी नहीं करते, क्योंकि वे जब बीएड में यह सब सीखते हैं तो उनका उद्देश्य भी वही होता है, जो कि शिक्षा व्यवस्था का होता है। यानी कि बीएड पास करना और अच्छे नंबर लेना। तो यानी वहां शिशु मनोविज्ञान और किशोर मनोविज्ञान के प्रश्नों का सही उत्तर दे दें तो आपको नंबर मिल जाते हैं। लेकिन यह विचार नहीं होता है कि इस बात को हमें कक्षा में अमल में लाना है।
तो जब कक्षा में वे पहुंचते हैं तो उनको लगता है कि कक्षा एक में पांच-छह साल का जो बच्चा है, वह जो जुबान बोल रहा है, वह तुरंत मानकीकृत होनी चाहिए। उसकी गलतियों को बस आज ही ठीक कर देना है। जब वह लिखना सीख रहा है तो उसकी गलतियां ही शिक्षक को दिखलाई देती हैं। जब वह पढ़ना शुरू करता है तो लगता है कि उसका उच्चारण आज ही सही हो जाए। जबकि ये जो आरंभिक वर्ष हैं शिक्षा के, इन वर्षों में हमें बच्चों को इस तरह से देखना है कि वे अपनी प्राकृतिक क्षमताओं के साथ आए हैं। और इन प्राकृतिक क्षमताओं को पहचान कर उन्हीं को संवारना, उन्हें निखारना, उन्हें प्रोत्साहित करना, हमारी शिक्षा का उस समय उद्देश्य होना चाहिए।
अगर उस उद्देश्य का हम उस समय पालन कर सकें, इस दिशा में बढ़ सकें, तो पांचवी तक या छठी तक आते-आते वह बच्चा एक उज्ज्वल बालक होगा। वह चुप नहीं बैठेगा, बल्कि वह भागीदार बनेगा हमारी चर्चाओं में। जब हम ज्ञान की, गणित की, सामाजिक विज्ञान की अवधारणाएं पढ़ाएंगे उसको तो वह उन अवधारणाओं को तौलेगा। अपने विवेक से जांचेगा। और जब वह और भी आगे बढ़ेगा यानी उच्च्तर माध्यमिक कक्षाओं में पहुंचेगा, जहां उसे ज्ञान की काफी बड़ी चुनौतियों का सामना करना है, उस समय वह शिक्षक के बताए सत्य का ही मोहताज नहीं रहेगा। बल्कि अपने दिमाग से सोचेगा। नए-नए स्रोतों को ढूंढेगा। सिर्फ पाठ्यपुस्तक पर निर्भर नहीं रहेगा। अन्य स्रोतों की तरफ भी बढ़ेगा।
यदि हमने एक बच्चे की स्वाभाविक क्षमताओं को और अपना निर्णय खुद लेने की क्षमता को दबाने की जगह प्रोत्साहित किया तो किशोर बनते-बनते वो एक ऐसा बच्चा बनेगा जो तय कर सकेगा कि मुझे कौन से विषय पढ़ना है, जिंदगी में क्या करना है। यानी अपनी शिक्षा का उद्देश्य वह खुद सोच सकेगा।
-लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं।