हमारा देश पहले भी हैवानियत की दास्तानें देखता और सुनता रहा है. इसी देश में तंदूर कांड भी हुआ था. इसी देश में हर मिनट बलात्कार होते हैं. इसी देश में पत्नी की लाश के टुकड़े-टुकड़े करके उसे फ्रिज में डाल देने की घिनौनी वारदात हुई है. और इसी देश में आज दिख रहा है कि कैसे एक ताकतवर स्त्री दूसरी लाचार स्त्री पर पाशविक अंदाज में हमलावर है. यह भी कि कैसे एक युवा एक बुजुर्ग पर बेरहम है.
बिजनौर के एक दिल दहलानेवाले हालिया वीडियो में एक महिला अपनी सत्तर वर्षीय सास की बेरहमी से पिटाई करती नजर आ रही है. घटना से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और महिला कार्यकर्ताओं में जबर्दस्त रोष है. देश में बुजुर्गों और निर्बलों-असहायों की हिफाजत के लिए एक नया सख्त कानून बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है. सेक्शन 498ए में भी संशोधन की मांग उठी है, जिसमें सिर्फ बहुओं की प्रताड़ना के खिलाफ सजा का प्रावधान है.
देख-रेख और गुजारा-भत्ते को लेकर बुजुर्गों के लिए कानून तो हैं, लेकिन ऐसे मामलों, जिनमें वे घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं, उन्हें लेकर कोई सख्त, स्पष्ट और विशिष्ट कानून देश में नहीं है. जैसे स्त्रियों पर यौन अत्याचार के कई मामले अनदेखे, अनसुलझे और अनरिपोर्टेड रह जाते हैं, ठीक वैसे ही घर की चारदीवारियों के भीतर बुजुर्ग स्त्री या बुजुर्ग पुरुष के खिलाफ हिंसा भी रिपोर्ट भी नहीं हो पाती है. बुजुर्गों की असहायता इसमें एक बड़ा अवरोध बन जाता है, जानकारी का भी अभाव रहता है, साथ ही लोकलाज भी एक बड़ी वजह बन जाती है.
सामाजिक मूल्यों में ह्रास
बुजुर्गों के शोषण और उनके खिलाफ हिंसा की वारदात अकेले भारत की समस्या नहीं है. दुनियाभर में यह एक गंभीर समस्या बन कर उभरी है. यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र ने भी इस बारे में प्रस्ताव दिये हैं, इस पर चर्चा के लिए सम्मेलन किये हैं.
बिजनौर मामले में दाद देनी पड़ेगी महिला के पति की, जिसके लगाये सीसीटीवी कैमरे की वजह से उसकी पत्नी की हरकतें दुनिया के सामने आ पायीं. इस तरह की खबरें दुखी तो करती ही हैं, लेकिन जुगुप्सा भी पैदा करती हैं. ऐसी खबरों को पढ़-सुन कर एक चिढ़ सी होती है कि आखिर हमारा समाज कैसा बन गया है या इसे कैसा बना दिया गया है.
मध्यमवर्गीय समाजों में एक ओर ऐशो-आराम और उपभोग की भीषण मारामारी है, तो दूसरी ओर दया, सहानुभूति और करुणा जैसे मूल्यों को पूरी तरह भुला दिया गया है. जैसे मनुष्यता की पहचान अब इन मूल्यों से नहीं, बल्कि वर्चस्व, ताकत, पैसे और हिंसा से ही होने लगी है.
बिजनौर की वारदात एक सामाजिक विद्रूप की ओर भी इशारा है, जहां रिश्तों-नातों की पारस्परिकता और स्नेह की जगह नफरत और दमन ने ले ली है. बूढ़े लोगों के लिए इन घरों मे जगहें नहीं बची हैं.
बूढ़े जिन्हें अपनी आंख का तारा कहते हैं, उन तारों की आंखों में वही बुजुर्ग कांटे की तरह खटकने लगे हैं. हाल के दशकों में संबंधों का भारी अवमूल्यन हुआ है. हेल्पएज इंडिया नामक संस्था ने कुछ वर्ष पहले अपने एक अध्ययन में पाया था कि भारत में बुजुर्ग आबादी में से तीस प्रतिशतलोगों को अपने परिवार में ही अवहेलना और अपमान झेलना पड़ता है.
कानून पर अमल
2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में इस समय कुल आबादी का आठ से नौ फीसदी बुजुर्ग लोग हैं. बुजुर्गों और वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए कानून हैं. यात्रा, स्वास्थ्य, आवास, चिकित्सा आदि में भी कई तरह की सुविधाएं हैं, लेकिन देश की बुजुर्ग आबादी का एक बड़ा तबका ऐसा है, जो सरकारी योजनाओं, कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों से वंचित है. उन तक कोई सरकारी सहायता नहीं पहुंचती, कानूनी मदद तो दूर की कौड़ी है.
अब सवाल यही है कि अगर कानून बना भी दिया जाये, तो क्या वह काफी है? क्योंकि, हमारे देश में कानून तो कहने को बहुत हैं. स्त्री अत्याचारों के खिलाफ कानूनों की कमी नहीं है, लेकिन अगर कानून का ही डर होता तो बलात्कार और अन्य हिंसाएं रोजाना के स्तर पर न घट रही होतीं. आखिर इस पाशविकता का मुकाबला कैसे किया जा सकता है? हमें सोचना होगा़
जाहिर है कानून पर अमल के मामले में हमारी व्यवस्था (सिस्टम) सुस्त है. कानूनी कार्रवाइयां एक अंतहीन बोझ और कई बार यातना की तरह पीड़ितों पर ही उलटे वार करने लगती हैं. ऐसे में लोग और भी डरते हैं और सहम जाते हैं. वे कानून, अदालत और वकील के चक्करों में फंसना नहीं चाहते. जब तक कानून एक फांस की तरह निर्दोष और साधारण नागरिकों को डराता रहेगा, तब तक वे कानून उनकी भलाई के लिए कितना कारगर रह पायेगा, यह कह पाना कठिन है.
यहां यह कहना उचित होगा कि कानून पर अमल के तरीकों में बदलाव होना चाहिए, सजा को अंजाम तक पहुंचना चाहिए, तत्परता दिखानी चाहिए और सामाजिक मूल्यों की तोता रटंत वाली, धार्मिक वितंडाओं में घिरी और कठमुल्लेपन के जंजाल में फंसी मध्यवर्गीय नैतिकता की नये सिरे से झाड़पोंछ होनी चाहिए.
(डॉयचेवेले हिंदी से साभार)