खेती की सुध

प्रधानमंत्री बीमा योजना से निस्संदेह किसानों की दशा कुछ सुधरने की उम्मीद बनी है। जिस तरह पिछले कुछ सालों से फसल बर्बाद होने और कर्ज के बोझ तले दबे होने के कारण किसानों में खुदकुशी की प्रवृत्ति दिखाई देने लगी है, उसके मद्देनजर व्यावहारिक फसल बीमा की मांग हो रही थी। हालांकि फसल बीमा योजना पहले से लागू थी, पर उसमें कुछ तकनीकी गड़बड़ियां और व्यावहारिकता की कमी होने के कारण इसके प्रति कम ही किसान आकर्षित हो पा रहे थे। पहले बीमा की प्रीमियम राशि फसल की अनुमानित कीमत के पंद्रह फीसद थी। मंझोले, छोटे और बंटाईदार किसानों के लिए यह राशि खासी बड़ी थी। इसका लाभ प्राय: वही किसान उठा पा रहे थे, जो थोड़े संपन्न हैं। फिर यह बीमा योजना केवल खड़ी फसल के लिए थी, यानी अगर प्राकृतिक आपदा के चलते खड़ी फसल बर्बाद होती है, तभी उसके लिए दावा किया जा सकता था। इसके अलावा फसल बर्बाद होने का सही आकलन होने में कई तरह की दिक्कतें पेश आ रही थीं, जिनके चलते किसानों को समय से मुआवजा नहीं मिल पाता था। इन अड़चनों के चलते करीब तेईस फीसद किसान ही अपनी फसलों का बीमा करा पा रहे थे। नई फसल बीमा योजना का दायरा बढ़ा कर न सिर्फ बुआई से लेकर कटाई के बाद के नुकसानों की भरपाई तक कर दिया गया है, बल्कि इसकी प्रीमियम राशि घटा कर काफी कम कर दी गई है। अब किसानों को खरीफ फसल के लिए दो फीसद, रबी के लिए डेढ़ फीसद और कपास तथा बागवानी के लिए पांच फीसद प्रीमियम देना होगा। बाकी रकम सरकार भरेगी। फसल बर्बाद होने पर बीमित फसल के नुकसान का पच्चीस फीसद भुगतान तुरंत किसान के खाते में पहुंच जाएगा और बाकी रकम अधिकतम नब्बे दिनों के भीतर मिल जाएगी। यह योजना इस वर्ष खरीफ फसल से लागू हो जाएगी। अनुमान है कि इससे पचास प्रतिशत तक फसलों को बीमा के दायरे में लाया जा सकेगा। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का ठीक से प्रचार-प्रसार किया जाए, तो निस्संदेह किसान इसका लाभ उठाएंगे। प्रीमियम राशि कम होने के कारण मंझोले किसान भी अपनी फसलों का बीमा कराने को उत्सुक होंगे। हालांकि इस योजना को अत्याधुनिक तकनीक से जोड़ने की रूपरेखा तैयार की गई है, पर इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि फसलों के नुकसान के आकलन में बीमा कंपनियां कितनी पारदर्शिता बरतती हैं। आमतौर पर अनुभव यही है कि फसलों की बर्बादी का आकलन ठीक से न किए जाने या फिर सरकारी मुलाजिमों के तकनीकी रोड़े अटकाने की वजह से किसानों को उचित मुआवजा नहीं मिल पाता। जो मिलता भी है, वह इतना कम होता है कि उससे किसान को कोई लाभ नहीं होता। सरकारी कर्मचारियों का यह रवैया आम है कि सूखे, बाढ़, भूस्खलन, ओलावृष्टि आदि का आकलन करने में वे पक्षपात या फिर अनदेखी करते हैं। फसलों के बीमा के मामले में भी उनका यही रवैया रहा तो किसानों को निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा। हालांकि सरकार ने प्राकृतिक आपदा के आकलन के लिए दूरसंवेदी यंत्र के इस्तेमाल की रूपरेखा तय की है, तहसीलदारों को स्मार्टफोन के जरिए आकलन रिपोर्ट भेजने की सुविधा मुहैया कराने की व्यवस्था होगी, पर इसमें पारदर्शिता जरूरी है, ताकि किसान खुद भी जांच सकें कि उनकी बीमित फसल के बारे में रिपोर्ट सही दी गई है या नहीं। इस योजना की सफलता से किसानों को राहत मिलेगी और उनमें खेती को लेकर उत्साह बन सकेगा।

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