आत्महत्या की खेती

पंजाब में खेती की हताशा से आत्महत्या करने वालों में समाना के गांव गाजीसालार के जसवंत सिंह का नाम भी जुड़ गया है। कितना हृदयविदारक दृश्य होगा कि पहले बेटी की विदाई हुई फिर बाप की अर्थी उठी। जाहिर है कर्जे तले दबे किसान ने घाटे का काम साबित हो रही खेती से हताश होकर यह कदम उठाया। यह अकेली घटना नहीं है। पिछले दो महीने में बठिंडा व मानसा में दो दर्जन किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। मानसा का एक गांव तमकोट ऐसा है जहां अस्सी के दशक से अब तक 55 आत्महत्याएं हो चुकी हैं। ऐसे में पूरे पंजाब का आंकड़ा सामने आएगा तो खेती का सच भयावह होगा। मगर इसके बावजूद सत्तातंत्र की संवेदनाएं नहीं जागतीं। बयानबाजी होती है और मुआवजे की बात होती है, मगर रोग का असली उपचार नहीं किया जाता। अत: आत्महत्या की खेती यूं ही लहलहाती रहती है। दरअसल आजादी के बाद से ही किसान को अन्नदाता का दर्जा तो दिया गया मगर उसका वाजिब हक उसे नहीं मिला। राजनीति के लिए वह एक अदद वोटर था और उसे वोटर की तरह ही सब्जबाग दिखाये जाते रहे। मगर हकीकत में बदलाव नहीं आया।


कहने को पंजाब हरित क्रांति का केंद्र रहा है। मगर धरती के अंधाधुंध दोहन व रासायनिक उर्वरकों के बेजा इस्तेमाल से जो हालात पैदा हुए हैं, उसका कोई प्रामाणिक अध्ययन नहीं हुआ। दरअसल हरित क्रांति व श्वेत क्रांति के नकारात्मक प्रभावों को मद्देनजर रखते हुए नीतियां नहीं बनायी गईं। किसान यदि कर्ज तले दबकर आत्महत्या कर रहे हैं तो उसमें आधुनिक महाजनों व साहूकारों का जलालत भरा व्यवहार भी है। ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों के चलते खेती की बर्बादी और नकली कीटनाशकों के प्रयोग से किसान बदहाल हुआ है मगर उससे ज्यादा व्यवस्था के भ्रष्टाचार से पस्त हुआ है। किसान को उसकी उपज का न्यायसंगत मूल्य नहीं मिलता। दलालों की मंडी में उसे हर बार लुटना होता है। उपज का वाजिब दाम न मिलने से उसका कर्ज बढ़ता ही जाता है। परिवारों के विस्तार से जहां जोतें छोटी हुई हैं वहीं उसकी लाभरहित खेती का विस्तार हुआ है। जो  अंतत: उसे मौत को गले लगाने को मजबूर कर देता है। सरकार को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को तत्काल लागू करना चाहिए। साथ ही फसलचक्र में बदलाव कर वैकल्पिक खेती के रूपी में नगदी फसलों को बढ़ावा देना चाहिए।

दैनिक ट्रिब्यून का संपादकीय 

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