‘घर से काम’ भी है एक विकल्प– अभिषेक कुमार

दिल्ली में पहली जनवरी से कारों के प्रवेश के लिए उनके सम-विषम नंबर को आधार बनाकर फिलहाल 15 दिनों के लिए जो फॉर्मूला लागू किया गया है, उससे बढ़ते प्रदूषण की समस्या पर कुछ लगाम लगने की संभावना जताई जा रही है। हालांकि कई निजी कंपनियों और यहां तक कि विदेशी दूतावासों की तरफ से इस बारे में यह कहकर इस पर आपत्ति की गई है कि अगर इस फॉर्मूले पर लंबे समय तक काम किया गया तो इससे उनके कामकाज पर असर पड़ सकता है पर इसी बीच एक पुराने विचार के बारे में भी लोगों ने सोचना शुरू कर दिया है, जिससे ट्रैफिक जाम, प्रदूषण और समय की बर्बादी जैसी कई समस्याओं का एक झटके में समाधान निकल सकता है। यह उपाय घर बैठकर दफ्तर का कामकाज निपटाने से जुड़ा है।

अमेरिकी डेम स्टीफन शर्ली ने 1960 के दशक में घर से काम करने की जिस परंपरा की शुरुआत की थी, आज उसकी उपयोगिता एक बार फिर नजर आ रही है। सिर्फ प्रदूषण से निपटने के संदर्भ में ही नहीं, कामकाज का पैटर्न बदलने के अलावा बड़े शहरों में दफ्तरी इलाकों के लगातार महंगे होते जाने, आकार में फैलते शहरों में घर-दफ्तर के बीच बढ़ती दूरियों, ट्रैफिक जाम और परिवहन के बढ़ते खर्चों आदि के मद्देनजर घर से कामकाज को प्राथमिकता देना एक आधुनिक और व्यावहारिक विचार माना जा रहा है। आईटी सेक्टर ही नहीं, कई तरह के वित्तीय, पेटेंट, कानूनी सलाह, लेखन-पत्रकारिता आदि नई शैली के कामकाज के लिए दफ्तर जाने की जरूरत नहीं है। तकनीक भी इसमें काफी मददगार साबित हो रही है।

आज की उम्दा तकनीकें, जैसे तेज ब्रॉडबैंड और वेबकैम के इस्तेमाल के जरिए लोग दफ्तर का काम घरों से आसानी से कर रहे हैं और दफ्तर या दफ्तर से बाहर होने वाली किसी बैठक में घर में बैठे ही हिस्सा लेते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में 30 फीसदी वर्कफोर्स ऐसी है जो घर से कामकाज निपटाती है। अमेरिका के ब्यूरो ऑफ़ लेबर के आंकड़ों के मुताबिक वहां करीब 24 फ़ीसदी कर्मचारी घर से ही काम करना चाहते हैं। वर्ष 2011 में हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, ब्रिटेन में भी घर बैठकर काम करने वालों की संख्या लगातार बढ़ी है। भारत में भी फ्लेक्सी टाइम यानी घर से कभी भी काम करने की नई परंपरा की छिटपुट शुरुआत पिछले एक दशक में हुई है। कई बहुराष्ट्रीय और कुछ नई भारतीय कंपनियों ने टेलेंट खींचने और उसे अपने साथ बनाए रखने के लिए घर से काम करने की छूट अपने कर्मचारियों को दी है। मेक माई ट्रिप जैसी वेबसाइट के एक तिहाई कर्मचारी घर से काम करते हैं। लेकिन वर्ष 2013 ने इंटरनेट कंपनी याहू की सीईओ मारिसा मेयर ने अपनी कंपनी में कर्मचारियों को घर से काम करने की दी जा रही छूट को खत्म कर उन्हें दफ्तर आने का फैसला सुनाया था। उसी साल एक अन्य कंपनी गूगल ने भी इससे मिलती-जुलती राय व्यक्त की थी।

कामकाज के इस आधुनिक ट्रेंड के विरोधियों का कहना था कि घर से काम करने पर कार्य की गति औरगुणवत्ता, दोनों प्रभावित होते हैं। इसका कारण यह है कि घर में बाहरी कामकाज से जुड़े नए लोगों से मुलाकात नहीं होती। टीम के साथ मिल-बैठकर चर्चा नहीं होती जिससे कोई नया प्रयोग करने में समस्या खड़ी हो जाती है। मानव संसाधन विशेषज्ञों का एक मत यह भी है कि कर्मचारियों के बीच आमने-सामने की बातचीत से वर्क कल्चर ज्यादा बढ़िया होता है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि भारतीय घरों को इस तरह डिजाइन नहीं किया जाता, जिसमें दफ्तरी काम के लिए अलग से कोई स्पेस हो।

स्टीफन शर्ली कहती हैं कि कुछ मैनेजरों को यह योजना इसलिए पसंद नहीं आती है क्योंकि उन्हें अपने आसपास कर्मचारियों की भीड़ देखने की आदत होती है। अगर दफ्तरी माहौल की बात को छोड़ दिया जाए, तो आजकल बड़े शहरों में बनने वाले आधुनिक अपार्टमेंटों तक में इस तरह का इंतजाम किया जा रहा है कि व्यक्ति यदि चाहे तो वह घर से ही दफ्तर के ज्यादातर काम निपटा सकता है। भारत के विशाल आबादी वाले दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में, जहां घर से दफ्तर आने-जाने में ही रोजाना चार-पांच घंटे बर्बाद हो जाते हैं, वर्क फ्रॉम होम की छूट असल में काम की गुणवत्ता और उत्पादकता में बढ़ोतरी करने वाली साबित हो सकती हैं। इस तरीके को अमल में लाकर दफ्तरी समय के दौरान सड़कों और मेट्रो रेल, बस आदि में होने वाली भारी भीड़ को भी काफी कम किया जा सकता है।

कई अध्ययनों में भी यह साबित हुआ है कि जब लोगों को मनचाहे वक्त और स्थान से काम करने की आजादी दी जाती है, तो वे उस माहौल में ज्यादा बेहतरीन परिणाम दे पाते हैं। मुमकिन है कि जिस तरह सम-विषम कारों के संचालन से ट्रैफिक के दबाव और प्रदूषण को कम करने के बारे में सोचा जा रहा है, उसी तरह वर्क फ्रॉम होम के विचार को भी एक बार अमल में लाकर उसके नतीजे देखे जाएंगे।

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