असल मुद्दों से डगमगाते रहे पूरे साल – मृणाल पांडे

साल 2015 विदा हो रहा है। इस साल भी हमारे नेता, अभिनेता, प्रतिपक्ष और समाज के पुरोधा असली मुद्दों पर कम, प्रतीकों के गिर्द ही अपनी नीतियां और रणनीतियां गढ़ते, झगड़ते रहे। ध्यान का केंद्र चाहे असेंबली चुनाव हों, या महिला सुरक्षा, बिगड़ते पर्यावरण से जुडे बाढ़-सुखाड़ हों अथवा सार्वजनिक परिवहन या विदेश नीति, जिस तरह उन पर संसद के भीतर-बाहर और टीवी पर्दों पर टकराव हुए, तलवारें चलीं, लगा कि देश ने असली विचारणीय मुद्दों पर तो गंभीरता से सोचना बंद ही कर दिया है और राष्ट्र स्तर पर सारे वार्ताशूर गोरक्षा, तो कभी विपक्षशासित राज्य द्वारा जल-मल निकास या बाल सुधार गृहों के कुप्रबंधन, कारों की तादाद और कभी प्रधानमंत्री की चाय पार्टी या सेल्फियों के गिर्द ही गणेश परिक्रमा कर अपनी पीठ थपथपाकर खुश हैं।

पर्यावरण क्षरण की असल बुनियाद कहां है, उससे किस तरह निबटें? ठंडा पड़ता घरेलू माल तथा कृषि उत्पादन व निर्यात कैसे बढ़े? गांवों से बड़ी आबादी के शहर की तरफ पलायन से बुरी तरह दरकते शहरी ढांचों का सही रखरखाव किस तरह सुनिश्चित हो कि जनता के लिए वहां बुनियादी सुविधाओं तथा सुरक्षा के साथ रहना संभव हो सके? यह गलतफहमी पालकर कि किसी सर्वसमर्थ महानायक के पास देश की सकल घरेलू और वैदेशिक नीतियां सही तरह चलाने का रामबाण फारमूला होगा, उनकी ही स्तुति या निंदा करने के बजाय हम क्यों नहीं सोचते कि राज-समाज कभी भी एकचालकानुवर्ती नहीं हो सकता। एक लोकतंत्र में जमीनी स्तर पर राज-समाज का जीवन और रोजगार चलाने वाले हमारे मरियल सरकारी अर्धसरकारी संस्थानों का स्वास्थ्य किस तरह ठीक किया जाए? संसद के सत्र सिर्फ रस्मनिभाई न हों, उनमें सार्थक बहसें कैसे हों? बुझते गांव और हताश जनपद केंद्र के किसी विशेष पैकज के परनिर्भर भिखारी न बनें, खुद अपने विकास में वे सक्षम भागीदारी किस तरह करें? गए बरस में इन पर कितनी गंभीर सुविचारित बहसें और पहलें हुई हैं भला?

कई बार मानव जाति की मूर्खताओं पर कोई पुरानी बोध कथा बड़ी सहजता से रोशनी डाल देती है। ऐसी ही एक जैन जातक कथा है, राजगृह के एक परम कंजूस धनकुबेर वणिक मम्मण की। मम्मण ने संकल्प किया था कि वह खुद कम से कम में निर्वाह करेगा, किंतु अपने सारे संसाधनों से दो बैलों की सोने और रत्नों से जड़ी एक ऐसी जोड़ी बनाएगा, जो राज्य ही नहीं देशभर में उसके वैभव का एक अभूतपूर्व प्रतीक बनें। बेशुमार धन खरच कर सोने और रत्नों से जगमगाता उसका पहला बैल बना, जिसके उदर में भी ढेरों सोना और रत्न भरे हुए थे। उसे मम्मण ने अपनी हवेली की छत पर बनी कोठरी में रखा। दूसरे पर काम शुरू हुआ ही था कि तभी बाढ़ आ गई। मम्मण महाशय एक लंगोटी पहने हुए लट्ठे पर बैठकर उफनाती नदी की धारा में बहती जलावन की लकड़ियां खींच रहे थे कि राजा और रानी ने यह दृश्य महल की छत से देखा। रानी ने राजा को उलाहना दिया कि ठीक ही कहा जाता है, राजा अमीरों के ही सगे होते हैं, गरीबों की मदद नहीं करते। देखिए, बेचारा आप के राज्य का यहगरीब कैसे जान जोखिम में डालकर ईंधन बटोर रहा है।

राजा ने मम्मण को बुलवाया। वह आया। ‘इतना खतरा मोल लेकर नदी से लकड़ी क्यों बटोर रहे थे?" राजा ने पूछा। ‘महाराज, मैं एक बैलों की जोड़ी बना रहा हूं। उसके लिए धन चाहिए, जो मैं हर तरह से कमाने की कोशिश करता हूं। एक बैल बन गया दूसरा बनाना है।" ‘चलो, मैं तुमको सौ बैल देता हूं, मगर इस तरह खतरों से मत खेलो," राजा ने कहा। पर मम्मण न माना। बोला, ‘नहीं महाराज, मुझे दूसरे बैल के निर्माण का संकल्प खुद पूरा करना है।" ‘चलो, मुझे अपना वह बैल तो दिखाओ," राजा बोले। मम्मण ने उनको अपनी हवेली ले जाकर सोने से बना रत्न जड़ा भव्य बैल दिखाया। ‘दूसरा ऐसा बैल बनाने को तो तुम्हारी सारी संपदा भी कम पड़ेगी," राजा ने कहा। ‘नदी में बहती लकड़ियों को बेचना भी क्या? उनका तो कोई मोल नहीं। तुम क्यों जिद करते हो?"

‘तीन कारण हैं", मम्मण बोला। ‘एक तो लोगों पर प्रभाव बनाने वाला अपना संकल्प पूरा करना है। दो, मेरे पास करने को और कोई काम है नहीं, और मेरे शरीर को मेहनत की आदत पड़ी ही हुई है। और तीन, वर्षाकाल में गीली लकड़ियों के भाव भी बढ़ जाते हैं, इनसे भी कुछ न कुछ तो कमा ही लूंगा। वैसे आप चिंता न करें, मैंने अपने सारे हाथी-घोड़े किराए पर लगा दिए हैं और मेरे जहाज दुनियाभर में मेरा माल बेचने चले गए हैं। कालांतर में मेरी जोड़ी बन ही जाएगी। बाजार में हर बड़े व्यापारी की खरीदारों के बीच साख किसी भारी-भरकम प्रतीक से ही होती है।"

वर्ष 2015 के अंत तक हमारे देश के कर्णधार भी बुनियादी समस्याओं को हल करने के बजाय किसी न किसी तरह की ‘मम्मणगिरी" करने में ही लगे नजर आते हैं। देशभर में आम ट्राफिक जाम का मसला ही लें। दिल्ली में एक सरकार ने 190 करोड़ की लागत का बीआरटीएस कॉरिडोर नामक मम्मण का बैल बनवाया था। अब दूसरी सरकार ने उसे तुड़वाकर उससे भी बड़ी लागत के फ्लाई ओवर-अंडरपास की जोड़ी बनवाने की ठान ली है। एक दक्षिणी राज्य को लड़-झगड़कर उसके कष्टदायक तरीके से दो टुकड़े करवाने वाले दोनों मुख्यमंत्री भी साख बहाली में लग गए हैं। एक मुख्यमंत्री बाढ़-सुखाड़ पीड़ित गरीब राज्य में सार्वजनिक प्रशासन सुधारने और शहरी प्रबंधन तथा जलागम व्यवस्था को मजबूत करने के बजाय करोड़ों का माल एक यज्ञ में स्वाहा करने बैठ गए हैं, जिसका पंडाल अपने आप में मम्मण का बैल नजर आता है। उधर देश के करोड़ों विकलांगों के लिए करुणा के प्रतीकस्वरूप बयान देने वाले उनके लिए सही इलाज, बेहतर परिवहन साधन, नौकरियां और खास ट्रेनिंग की व्यवस्था कराने के बजाय उनको दिव्यांग कहकर पुकारने का सुझाव दे रहे हैं। जापानी प्रधानमंत्री हिंदुस्तान आए तो उन्हें बदहाल वाराणसी का पर्यटन कराने को गली-कूचों की सफाई करने के बजाय भव्य गंगा आरती का एक मम्मणी बैल बना दिया गया।

आप ही बताइए, इस निपट वैचारिक शून्य से एक ताजातरीन, जिंदादिल और विचारवान देश भला किस तरह से निकलेगा? बहुत हुआ तो बस कुछ और बैल बनवालिएजाएंगे और उनके विज्ञापन छपवाकर असम, केरल, पंजाब और बंगाल के चुनावों में जीत के आकांक्षी, (सरकारी विज्ञापनों के सतत आकांक्षी मीडिया की ठकुरसुहाती से खुश होकर) मान लेंगे कि जनता के बीच उनकी भव्य साख के प्रतीक उनको जिता ही तो देंगे! जैसा कि कवि ने कहा था,’कुछ आज न पहली बार ये दुनिया छली गई!"

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं

 

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