बुंदेलखंड, या कहें कि यूपी वाले बुंदेलखंड से आ रही खबरें बहुत डरावनी हैं. योगेंद्र यादव के नेतृत्व में स्वराज अभियान के तहत कराए गए एक रैपिड सर्वे के साक्ष्य कहते हैं कि इलाका अकाल की दशा की तरफ बढ़ रहा है.
मसलन, सर्वेक्षण में नमूने के तौर पर चुने गए 38 प्रतिशत गांवों में बीते आठ महीने में भुखमरी या कुपोषण से एक ना एक व्यक्ति की मौत हुई है.
ग़रीब परिवारों में महज पचास प्रतिशत परिवारों को बीते 30 दिनों में खाने के लिए दाल नसीब हुई और पचास प्रतिशत से थोड़े ही कम परिवार ऐसे हैं जो इस अवधि में अपने बच्चों को पीने के लिए दूध जुटा सके हैं.
बड़ी संख्या में लोग जंगली कंद-मूल बीनते या खाकर जीवन चलाते दिखे. सर्वे के बाद स्वतंत्र पत्रकारों की जांच-परख से भी इस दुर्दशा की पुष्टि हुई.
जीवन को घेरने वाले इस संकट का बड़ा रिश्ता समय रहते खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफ़एसए) को क्रियान्वित करने में यूपी सरकार के असफल रहने से हैं.
बुंदेलखंड में अगर एनएफएसए का संचालन होता तो 80 प्रतिशत से ज्यादा ग्रामीण आबादी एक सुधरे हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के दायरे में होती.
अधिनियम के अंतर्गत पीडीएस के जरिए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह न्यूनतम पाँच किलो अनाज देने का प्रावधान है. किसी व्यक्ति के खाद्यान्न की औसत ज़रूरत का यह मोटा-मोटी आधा है.
इसे बहुत तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन सूखे की दशा में यह न्यूनतम हकदारी भी भुखमरी में लोगों के लिए बड़ा सहारा साबित होती.
अफसोस, एनएफएसए को लागू हुए दो साल हो गए, लेकिन उत्तर प्रदेश में इसका ज़मीनी काम- योग्य परिवारों की पहचान, राशनकार्ड का वितरण आदि अभी पूरा होना शेष है.
इस बीच, पीडीएस का दायरा पुरानी बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की) सूची तक सीमित है जो कि अविश्वसनीय और चलन के लिहाज से पुरानी पड़ने के साथ-साथ एक हद तक फर्जीवाड़े का शिकार है.
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार यूपी के कुल परिवारों में से एक चौथाई से भी कम परिवार बीपीएल कार्डधारी (या सर्वाधिक निर्धनतम् परिवारों को जारी किया जाना वाला अंत्योदय कार्डधारी) हैं.
इसके अतिरिक्त, अपेक्षाकृत खाते-पीते परिवार के लोगों ने भी बीपीएल कार्ड बनवा लिए हैं. स्वराज अभियान के सर्वे से जाहिर होता है कि बुंदेलखंड के ज्यादातर परिवारों के पास बीपीएल या अंत्योदय कार्ड नहीं हैं. अचरज नहीं कि बहुत से परिवार वहां भुखमरी के शिकार हैं. दिलचस्प है कि बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश वाले हिस्से से, जहां एनएफएसए का क्रियान्वयन किया जा रहा है, हमें ऐसी खबरें सुनने को नहीं मिल रहीं. बहुत संभव है कि वहां भी लोगों की जीवन-दशा खराब हो. लेकिन, संभवतया वहां लोग लंबे समय तक जारी रहने वाली भुखमरी की दशा में नहीं हैं.
मध्यप्रदेश के दो ज़िलों (बुंदेलखंड से बाहर के) के पीडीएस के बारे में हुए हाल के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि एनएफएसए के क्रियान्वयन के बाद व्यवस्था में बहुत सुधार आया है.
उत्तर प्रदेश कोई पहली बार इस मामले में नहीं पिछड़ा. यूपी में पीडीएस बरसों से बुरी हालत में है. पिछले वक्त में पीडीएस का ज्यादातर चावल-गेहूं भ्रष्ट डीलर खुले बाजार में बेच देते थे. हाल के वर्षों में बीपीएलऔर अंत्योदय कोटा के अनाज की कालाबाजारी में बहुत कमी आयी है
इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के अनुसार 2011 के एक सर्वे से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के 80 प्रतिशत से ज्यादा बीपीएल परिवारों को उनका हक मिल रहा है. लेकिन एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) कोटा के अनाज की कालाबाजारी बड़े पैमाने पर जारी है. एनएफएसए का क्रियान्वयन एपीएल कोटा को चलन से बाहर करने और घोटाले को खत्म करने का एक अवसर है. देश के ग्रामीण इलाके में खाद्य सुरक्षा और सूखा राहत के बारे में कुछ सामान्य बातों के साथ मैं इस लेख का समापन करना चाहता हूं. पहली बात तो यह कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर नये सिरे से ध्यान देने की तत्काल जरुरत है.
गरीब परिवारों के लिए निर्णायक महत्व का होने के बावजूद हाल के महीनों में यह अधिनियम हमारे ध्यान से किसी ना किसी तरह दूर चला गया है.
अधिनियम देश के कुछ निर्धनतम् राज्यों (झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल सहित) में अभी इसे क्रियान्वित किया जा रहा है. क्रियान्वयन के इन प्रयासों की सफलता के लिए केंद्र सरकार से कारगर समर्थन और मीडिया, सामाजिक आंदोलन और राजनीतिक दलों की निरंतर सतर्कता ज़रूरी है. दूसरे, भारत में सूखा-राहत की पूरी व्यवस्था बदल चुकी है. यह व्यवस्था पहले मुख्यतः विशाल फलक और अस्थाई राहत-कार्यों पर निर्भर थी. आज, हाल के सालों में खड़े हुए खाद्य सुरक्षा के स्थाई ढांचे का उपयोग किया जा सकता है.
इसमें पीडीएस के साथ-साथ मध्याह्न भोजन योजना (मिड डे मील) और समेकित बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) भी शामिल है. मिसाल के लिए, सूखाग्रस्त इलाकों में पीडीएस की हकदारी का विस्तार करना या स्कूलों और आंगनबाड़ियों में बेहतर मिड डे मील देना ज़्यादा सहज है. तीसरे, इन नए अवसरों का चाहे जितना बेहतर इस्तेमाल किया जाय, राहत कार्य का महत्व बना रहेगा. एक रुझान राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) का उपयोग इस उद्देश्य से करने का रहा है. लेकिन, नरेगा सूखा-राहत का बहुत कारगर समाधान नहीं है. इसके मौजूदा दिशा-निर्देश बड़े जटिल हैं और मजदूरों को रोजगार और मेहनताने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है.
सूखे की स्थिति में रोजगार शर्तों के अधीन नहीं होना चाहिए और मेहनताना भी कुछ ही दिनों के अंदर मिलना चाहिए. इसके लिए ज़रुरी है कि राहत-कार्य की योजना नरेगा के फ्रेमवर्क से बाहर तैयार की जाय या फिर नरेगा के दिशा-निर्देशों को तनिक शिथिल किया जाय. इस सिलसिले में आखिरी बात यह कि राहत-कार्य के लिए चाहे जो साधन अपनाया जाय, मुख्य बात स्थानीय प्रशासन को युद्धस्तर पर लामबंद करने की है. पुराने वक्त में राहत-कार्य के लिए ऊपर से नीचे तक सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों को झकझोरा जाता था.
राहत-कार्य के अलावा आपात स्थिति में खाद्य-सामग्री, जलापूर्ति, पशुचारे का वितरण, कर्जमाफी आदि की सहूलियत बड़े पैमाने पर दी जाती थी. फौरी इमदाद के इसी बोध का ना सिर्फ यूपी बल्कि सूखाग्रस्त कई अन्य राज्यों में आज अभाव दिखता है.
(लेखक रांची विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर हैं.)