त्रासदियां हमें हिला देती हैं। व्यक्तिगत रूप से भी और समाज के स्तर पर भी। वे हमें गहरी नींद से जगा सकती हैं। साथ ही, कुछ कर गुजरने के लिए ऊर्जा का संचार कर सकती हैं। इन त्रासदियों को लेकर गहराई से विचार, विमर्श और प्रतिबद्धता के साथ काम किया जाए तो वे हमें बेहतर भविष्य की ओर भी ले जा सकती हैं। मगर दूसरा पक्ष भी है कि हम गलत प्रतिक्रिया देकर और उलझन भरे रास्ते की ओर भी चले जा सकते हैं। जिस बर्बरता का शिकार निर्भया हुई, उसने हमें भीतर तक हिलाकर रख दिया, पर साथ ही हमारे भीतर एक ऊर्जा का भी संचार हुआ। एक लोकतांत्रिक देश में इस तरह का ऊर्जा को संस्थागत भट्टी में ले जाकर पैदा की गई तपिश से कई रचनात्मक काम किए जा सकते हैं। देश की संस्थाओं की जिम्मेदारी है कि ऐसे मौके पर गहन विचार-मंथन हो, ताकि भविष्य की दिशा तय की जा सके।
निर्भया प्रकरण के बाद यूपीए सरकार द्वारा गठित जेएस वर्मा कमेटी ने कहा था कि कानून का पालन करवाने वाली संस्थाओं द्वारा अगर मौजूदा कानूनों को ईमानदारी से लागू किया जाता है तो वे देश में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए काफी हैं। फिर भी समिति ने कानूनों में बदलावों का मशविरा भी दिया। इसके अलावा समिति ने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए। पहला – पुलिस सुधार किए जाना चाहिए और कानून का पालन करवाने वाली एजेंसियों को राजनीतिक प्रभावों से दूर रखा जाना चाहिए। दूसरा – दिल्ली के संदर्भ में कमेटी ने एक विचित्र स्थिति को रेखांकित किया कि दिल्ली में पुलिस राज्य सरकार के बदले केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। तीसरा – न्यायधीशों की कमी को दूर करना चाहिए। चौथा – न्याय व्यवस्था के भौतिक ढांचे में निवेश जरूरी है। पांचवां – चुनावी सुधार भी जरूरी हैं।
समिति के सुझावों से स्पष्ट था कि हमें पारदर्शी और प्रभावी संस्थाएं खड़ी करनी होंगी। साथ ही सत्ता पक्ष द्वारा पुलिस का निजी सेना के तौर पर किया जाने वाला दुरुपयोग रोकना होगा। एक बहुत ही दुरूह सुधार की तरफ भी इशारा था – चुनाव सुधार यानी जनप्रतिनिधि खुद को सुधारने का काम करें। जैसा कि अंदेशा था, इन सभी मशविरों पर अमल देखने को नहीं मिला।
तीन सालपहले, निर्भया प्रकरण के बाद कांग्रेस सरकार को यह दिखाना था कि वह कुछ कर रही है। लिहाजा उसने फटाफट क्रिमिनल लॉ में संशोधन करने वाला कानून पारित कर दिया। उसे अधिक सख्त बनाया गया। लेकिन निर्भया के साथ यह दुखद वाकया नहीं होता, अगर हम मौजूदा कानूनों को ही ठीक से लागू करवा पाते। हम इतना भी कर पाते कि काले कांच और परदों से ढंकी गाड़ी सड़क पर दौड़ न सके तो यह दुर्घटना नहीं होती। हमारा लक्ष्य मौजूदा कानूनों का पालन करवाने का होना चाहिए था। लेकिन राजनेताओं के पास इस तरह की चीजों के लिए वक्त ही कहां है?
सख्त कानून समाज को आतंकित कर सकते हैं, पर वे इस बात की कतई तस्दीक नहीं कर सकते कि समाज विधिवत चलने लगे। तीन साल बीत गए हैं। इन सख्त कानूनों से कुछ हासिल नहीं हुआ। कम से कम अब तो हमें पुलिस सुधार, पुलिस में पर्याप्त बल और न्याय व्यवस्था में ढांचागत और अन्य सुधारों पर ध्यान देना चाहिए था। ये ऐसे पहलू हैं, जो समाज को अपराधमुक्त रखने वाली व्यवस्था की नींव बनाते हैं। ये सुधार इतनी जल्दी दिखाई नहीं देते हैं लेकिन क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का आधार बनाते हैं। इन सभी पक्षों को पारदर्शी और प्रभावी बनाने के समर्पण के साथ काम करना पड़ता है।
दूसरी तरफ, कानून बनाने की प्रक्रिया किसी भी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का बाहरी रूप है, जो सुर्खियों में रहता है। 2015 में जब निर्भया के साथ बर्बरता से पेश आने वाले किशोर अपराधी के मुक्त होने की बात हुई, तो फिर राजनेताओं को कुछ करते हुए दिखाई देना था। अगर विभिन्न् पार्टियां एक-दूसरे के घोटालों पर शोर-शराबा मचाने में व्यस्त नहीं हों तो वे एक साथ आकर बिना बहस और अध्ययन के किसी भी कानून को लागू कर सकती हैं। उससे उन्हें सुर्खियां भी मिल सकती हैं। तो राजनेताओं ने तय कर लिया कि किशोर अपराधियों के खिलाफ कानून और सख्त बनाइए। यही वजह है कि संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया।
सबसे विचित्र प्रतिक्रिया दिल्ली महिला आयोग की थी। यह एक वैधानिक संस्था है, जिसे कानूनविद मशविरा देते हैं। कोई भी वकील, जिसे दो वर्ष का अनुभव है, उन्हें सुझा सकता था कि मौजूदा कानून के अनुरूप किसी भी किशोर अपराधी को तीन वर्ष से ज्यादा अंदर नहीं रखा जा सकता है। खैर, आयोग ने हाईकोर्ट के समक्ष लंबित इस मुकदमे में पहले कुछ नहीं किया। जब किशोर अपराधी की रिहाई की खबर सुर्खियों में आई तो महिला आयोग ने उसे कारावास में रखने के लिए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाई। याचिका खारिज हो गई, लेकिन महिला आयोग को तो खबरों में जगह मिल गई।
निर्भया प्रकरण के बाद हमारी कानूनी, संवैधानिक संस्थाओं ने अधकचरे कदम उठाए व हेडलाइंस मैनेजमेंट का काम किया। बेहतर हो अगर राजनीति और नीति बनाने का काम मूल्यों और मुद्दों के आधार पर ही किया जाए।
-लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं।