जहां हम सब असहाय हैं– रंजना कुमारी

हमारे देश में जिस तरह का कानून है, उसमें निर्भया के गुनहगार को बाहर आना ही था। ‘जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट’ के तहत अपराधी को तीन साल ही बाल सुधार गृह में रखा जा सकता है। मगर यहां इस बात पर जरूर गौर किया जाना चाहिए कि पिछले तीन वर्षों में इस अपराधी की मानसिकता में सुधार क्यों नहीं हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार से यह साफ-साफ पूछा कि उसने पिछले तीन वर्षों में यह व्यवस्था क्यों नहीं की कि इस क्रूर अपराधी में बदलाव आए? यानी जिस अपराधी की मानसिकता पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट, दोनों सवाल उठा रहे हैं, उसे जनता के बीच छोड़कर समाज की सुरक्षा को कमजोर किया जा रहा है। क्या यह हमारी सरकार की बेपरवाही नहीं है? इस किशोर अपराधी का बाहर आना व्यवस्था और सरकार की भारी लापरवाही है। यह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का भी एक प्रतीक है।

इस घटनाक्रम का संदेश यह है कि संसद विधेयक पास नहीं कर पा रही है, उच्च व सर्वोच्च न्यायालय इस किशोर अपराधी की रिहाई को सही समझता है, और हमारा कानून कुछ करने की स्थिति में नहीं है; बिल्कुल असहाय है। इस अपराधी की मानसिक स्थिति अब भी शक के घेरे में है। अगर उसकी मन:स्थिति सही होती, तो सुप्रीम कोर्ट उसे कमेटी या एनजीओ की निगरानी में रखने की बात नहीं कहता। अगर अदालत ने मैनेजमेंट कमेटी की बात की है, तो कहीं-न-कहीं उसे भी लग रहा है कि यह किशोर बदला नहीं है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार को उचित फटकार लगाई।

मगर इसके साथ ही अदालत ने यह भी पूछा कि आखिर केंद्र सरकार ने अब तक इस दिशा में कानून क्यों नहीं बनाए? या वह ऐसा कानून क्यों बनाती है कि इस तरह की मजबूरी समाज में पैदा न हो? हमने शुरू से ही यह मांग की थी कि उस किशोर को जेल भेजकर सुरक्षा और अस्मिता की रक्षा जैसे हमारे सांविधानिक अधिकार सुनिश्चित किए जाएं। अगर यह अपराधी बाहर आएगा, तो जनता की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित हो सकेगी? चूंकि उसकी पहचान सामने नहीं आई है, इसलिए लोगों को यह कैसे पता चलेगा कि उनके बीच जो शख्स है, वह बर्बर मानसिकता वाला है? दुखद है कि हमारे हाथ बंधे हुए हैं।

यहां सबसे ज्यादा असहाय तो निर्भया के मां-बाप हैं। वे अब क्या करें? इस मामले में एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि किशोर अपराधी को जेल भेजना उसके अधिकारों का हनन करना है। बेशक अपराधी को मौका मिले, यह उसका अधिकार है। इससे कोई इनकार नहीं कि अपरिपक्व मानसिकता के कारण बाल्यावस्था में अपराध हो सकते हैं। मगर क्या सरकार इस अपराधी का यह अधिकार भी सुनिश्चित कर सकी? उसने न तो अपराधी के अधिकार सुनिश्चित किए, और न ही पीड़िता के। दिल्ली सरकार का कुसूर यह है कि वह अपने अंतर्गत आने वाले सुधार गृहों की निगरानी की बेहतर व्यवस्था अब तक नहीं कर सकी है। वह न तो मॉनिर्टंरग कर पा रही है, और न ही यह देख पा रही है कि वहां कोईमनोचिकित्सक मौजूद है भी अथवा नहीं। जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड किस तरह काम कर रहा है, इसकी भी कोई समीक्षा उसने नहीं की है।

हालांकि सारा दोष राज्य सरकार का ही नहीं है। इन तीन वर्षों में केंद्र सरकार के पास भी इतना वक्त नहीं रहा कि वह इसे लेकर कोई कानून बनाए। बेशक मई, 2015 में किशोर न्याय (संशोधन) विधेयक लोकसभा में पारित किया गया। मगर इसे राज्यसभा से अभी मंजूरी नहीं मिली है। केंद्र सरकार यह संदेश देना चाहती है कि आने वाले समय में वह इस तरह के मामलों के लिए कानून में संशोधन करने को तैयार है, मगर संसद में विधेयक लंबित रहने के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका। तब भी निर्भया के अपराधी के बाहर आने से पूरे देश में यह बहस जरूर तेज हुई है कि हमारे नीति-नियंताओं की क्या जिम्मेदारी है, उनकी कितनी भूमिका है, और वे अपनी जिम्मेदारियां कितनी गंभीरता से निभा रहे हैं? सवाल यह भी है कि जब भूमि अधिग्रहण को लेकर अध्यादेश पर अध्यादेश लाए जा सकते हैं, तो महिलाओं की सुरक्षा को लेकर ऐसी कोई पहल क्यों नहीं हो सकती? सत्ता में बैठे लोग ही न्याय व्यवस्था की कमियों को दुरुस्त कर सकते हैं, मगर ऐसा करने में वे अब तक नाकाम रहे हैं।

हमें यह बात समझनी होगी कि कानून सामाजिक वास्तविकता देखकर ही बनाए जाते हैं। अगर समाज बदल रहा है, और छोटी उम्र के बच्चे भी गंभीर अपराधों को अंजाम दे रहे हैं, तो सजा में भी उसी तरह से बदलाव जरूरी हैं। इंग्लैंड का उदाहरण सामने है। वहां 1993 में दो साल के एक बच्चे की हत्या दस वर्ष के दो किशोरों ने कर दी थी। अदालत ने उन दोनों को दोषी मानते हुए बालिग होने तक उन्हें हिरासत में रखने को कहा। यानी आठ साल तक उन्हें हिरासत में बिताने पड़े।

अपराध की गंभीर प्रकृति को देखते हुए अगर दस साल के किशोरों को आठ साल हिरासत में बिताने पड़े, तो निर्भया के अपराधी का गुनाह उससे कहीं ज्यादा संगीन है। इतना ही नहीं, अपराध में शामिल होते वक्त वह 17 वर्ष की उम्र पार कर चुका था। यानी वह कोई अबोध नहीं था। ऐसे में, क्या उसके लिए नई सजा नहीं तय की जानी चाहिए? जरूरत बाल अपराध को नए सिरे से परिभाषित करने की है। नृशंस हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध बाल अपराध नहीं माने जाने चाहिए। यह सही है कि भारत बच्चों के प्रति जितना निर्दय है, उतना कोई दूसरा देश नहीं है। मगर बाल अपराध को परिभाषित करने में हमने भूल की है। इसलिए नया कानून बनाकर इस गलती को सुधारना जरूरी है।

बच्चों के अपराधी बनने की जिम्मेदारी हम-आप पर भी है। उनकी मानसिकता कितनी तेजी से बदल रही है, इसी का नमूना है कि समाज में ‘सेक्सुअल क्राइम’ बढ़ रहे हैं। आज सेक्स से संबंधित मैसेज अपेक्षाकृत ज्यादा भेजे जा रहे हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट का प्रभाव बच्चों की जिंदगी में बढ़ा है। किशोर इसलिए भी ऐसे अपराध की ओर बढ़ते हैं, क्योंकि उन पर सामाजिक दबाव घट रहा है।अबयह मानसिकता पनपने लगी है कि अपराध करके दूसरी जगह बसा जा सकता है; किसी को कुछ पता नहीं चलेगा।

 

पुरुषों और महिलाओं में होने वाले सामाजिक भेदभाव भी कम उम्र के लड़कों को ऐसे अपराध करने को उकसाते हैं। पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता में यह माना जाता है कि पुरुष मजबूत है और महिला कमजोर। इसलिए उसे डरा-धमकाकर मनमर्जी की जा सकती है। छेड़खानी की बड़ी वजह यही है। अब क्या इस मानसिकता को बदलने की पहल भी सरकार करेगी? किशोर संयत रहें, इसकी गंभीर कोशिश समाज को ही करनी होगी। अभिभावक अपने बच्चों को बताएं कि क्या सही है, और क्या गलत? चूंकि परिवार प्राथमिक विद्यालय होता है, इसलिए उसे सबसे पहले अपने भीतर के इस दोहरे मापदंड को बदलना होगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

 

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