नयी सरकार की आर्थिक घोषणा को ‘बिग बैंग’ बताने के लिए इस्तेमाल किया गया. बाद में नयी सरकार की आर्थिक सफलता के दावे को सही ठहराने का प्रयास किया जा रहा है, जबकि असलियत यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था आर्थिक विकास के मामले में लंबे समय से बहुत अच्छा कर रही है.
भारतीय अर्थव्यवस्था मामूली उतार-चढ़ाव के साथ करीब 7.5 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बीते 12 साल से लगातार बढ़ रही है. वित्त वर्ष 2014-15 के लिए नया अनुमान, 7.3 फीसदी ट्रैक पर है. यह 2015-16 की पहली छमाही के लिए एक तत्कालिक अनुमान भर है. जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ ज्यां द्रेज से एक्सक्लुसिव बातचीत. अर्थशास्त्री डॉ ज्यां द्रेज ने विशेष साक्षात्कार में मोदी सरकार के ‘व्यापार संचालित विकास’ के ऑब्सेशन / जूनून पर सवाल उठाया.
भारत के आर्थिक रिकॉर्ड थोड़े भ्रामक हैं. कुछ पर्यवेक्षकों को लग रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में है, तो दूसरों का कहना है कि यह तेजी से बढ़ रही है. आखिर, सच्चाई क्या है?
पिछले लोकसभा चुनाव के समय बिजनेस मीडिया कह रहा था कि अर्थव्यवस्था डांवाडोल है. आज, हमें बताया जा रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में एक है. यह सही है, लेकिन यही सच तो दो साल पहले भी था. भारतीय अर्थव्यवस्था कुछ खास वर्षों में मामूली उतार-चढ़ाव के साथ करीब 7.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से पिछले 12 साल से लगातार बढ़ रही है. वित्त वर्ष 2014-15 के लिए नवीनतम अनुमान, 7.3 फीसदी ट्रैक पर है.
यह 2015-16 की पहली छमाही के लिए एक प्रोविजनल (तत्कालिक) अनुमान भर है. इसलिए सांख्यिकीय रिकॉर्ड भारतीय अर्थव्यवस्था के इस बदलाव की धारणाओं को न्यायसंगत नहीं ठहराते हैं. पहले की कहानी, मंदी के बारे में, नयी सरकार के आर्थिक आह्वान (घोषणा) को ‘बिग बैंग’ बताने के लिए इस्तेमाल किया गया.
आज की कहानी, नयी सरकार की आर्थिक सफलता के दावे को सही ठहराने के लिए प्रयोग किया जा रहा है कि सरकार बहुत अच्छा काम कर रही है. असली कहानी यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था आर्थिक विकास के मामले में लंबे समय से बहुत अच्छा कर रही है.
विकास दर की बढ़ोतरी को लेकर हमें कम परेशान होना चाहिए, बावजूद कि तेज सामाजिक तरक्की हासिल हो. उसके लिए न केवल उचित आर्थिक विकास दर की जरूरत है, बल्कि प्रभावी सार्वजनिक कार्यवाही व्यापक क्षेत्रों में लागू हो, जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण, बुनियादी सुविधा, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समानता आदि शामिल हों.
कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है, चूंकि रि-डिस्ट्रिब्यूशन (पुनर्वितरण) का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल है, आर्थिक वृद्धि ही विकास की सबसे अच्छी रणनीति है. आप क्या महसूस करते हैं?
समस्या खड़ी करने का यह एक भ्रामक तरीका है. विकास केवल आर्थिक वृद्धि और पुनर्वितरण (रि-डिस्ट्रिब्यूशन) का मामला नहीं है. निश्चित तौर पर दोनों मददगार हो सकते हैं. आर्थिक वृद्धि प्रति-व्यक्ति आय बढ़ाती है और पुनर्वितरण गरीब लोगों की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी करती है, लेकिन विकास के मायने प्रति व्यक्ति आय के उत्थान से अधिक है. यह जीवन की गुणवत्ता से संदर्भ रखता है. इस तरह की चीजें बिना आवश्यक विकास या पुनर्वितरण के भी जीवन में गुणवत्ता बढ़ाने के लिए कीजा सकती है. उदाहरण के लिए, सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही (एकाउंटिबिलिटी) तय करके जीवन की गुणवत्ता में एक बड़ा योगदान किया जा सकता है.
और व्यापक अर्थ में यह विकास का एक अनिवार्य हिस्सा है. इसी प्रकार, स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाना भी एक तरह का विकास है, जो केवल आर्थिक वृद्धि या पुनर्वितरण पर निर्भर नहीं है. इसिलए, तेज आर्थिक वृद्धि अथवा अधिक पुनर्वितरण के लक्ष्य की तुलना में, अन्य बहुत कुछ करना है. अकेले आर्थिक वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना विकास की दिशा में बहुत ही संकीर्ण सोच है.
ऐसा लगता है कि मोदी सरकार एक बिजनेस-ड्रिवेन (व्यवसाय संचालित) विकास मॉडल के लक्ष्य पर काम कर रही है. व्यापक अर्थ में विकास के उद्देश्य को यह कितना हासिल कर पायेगा?
यह एक ‘कॉरपोरेट’ स्पॉन्सर्ड (प्रायोजित) सरकार है. ऐसा प्रतीत होता है कि इसका मुख्य काम व्यापार को सहयोग करना है, खास कर बड़े व्यापार को. वास्तव में यह सुस्पष्ट है. उदाहरण के लिए, ‘निवेश का माहौल’ बढ़ाना केंद्र सरकार के मुख्य उद्देश्यों में से एक है. अवश्य, आज भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापार की एक भूमिका है. बावजूद इसके, सामाजिक जीवन के व्यापक क्षेत्रों में व्यापार सर्वोत्तम उपाय नहीं है. शिक्षा या स्वास्थ्य देखभाल, या सामाजिक सुरक्षा, या सार्वजनिक परिवहन, या शहरी नियोजन या पर्यावरण की सुरक्षा या बहुत सारी ऐसी चीजें, जो जीवन की गुणवत्ता के लिए महत्वपूर्ण हैं. इस सरकार द्वारा व्यापार के समर्थन में एकल-दिमाग फोकस करना ‘इन क्षेत्रों’ में की जानेवाली रचनात्मक कार्रवाई की एक नाटकीय उपेक्षा किये जाने का संकेत है.
सरकार की आर्थिक-वृद्धि की रणनीति भी भौतिक बुनियादी ढांचे पर बहुत जोर देती है. क्या यह उचित है?
हमें निश्चित रूप से बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर (आधारभूत संरचना) की जरूरत है. सवाल है किस किस्म का इंफ्रास्ट्रक्चर, प्राथमिकताएं क्या हैं. उदाहरणस्वरूप, रांची को लीजिए. यहां मैं रहता हूं. यहां बुनियादी ढांचे का हाल दयनीय है. पानी की कमी, बिजली कटौती, अवरुद्ध नालियां, ट्रैफिक जाम, स्वास्थ्य को लेकर खतरे सहित अन्य तमाम दिक्कतें हैं.
एक संवेदनशील सरकार बुनियादी सुविधाओं और सार्वजनिक सेवाओं को सुधारती है. न केवल किसी विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक वर्ग के लिए, बल्कि सभी के लिए बेहतर करने का प्रयास करती है, लेकिन यहां नेताओं की वास्तविक पसंद है, कॉरपोरेट प्रायोजित हाइटेक परियोजनाएं. जैसे रांची से ठीक बाहर, एक वर्ग किलोमीटर में एक नयी ‘स्मार्ट सिटी’ बने. इससे रांची की व्यापक आबादी का भला नहीं होनेवाला. हालांकि, इससे निजी कंपनियों के लिए आकर्षक ठेकों का अवसर अवश्य उत्पन्न होगा. यह शायद जोरदार रिश्वत का जरिया भी बने. लगता है यही इसका असली उद्देश्य है.
पिछले केंद्रीय बजट में सामाजिक क्षेत्र के खर्च में भारी कटौती की गयी. इसे न्यायोचित ठहराने के लिए केंद्र सरकार कह रही है कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार अब टैक्स के विभाज्य (डिवाइजिबल) ‘पूल’ में राज्यों को एक बड़ा हिस्सा मिल रहा है. क्या यह युक्तिसंगत बात है?
आयोग ने कर हस्तांतरण के बदले केंद्र प्रायोजित योजनाओं में कटौती की सिफारिश नहीं की है. इसके विपरीत उसने शिक्षा, स्वास्थ्य, जल आपूर्ति और स्वच्छता व बच्चे के पोषण सहित कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में केंद्रीय सहायता जारी रखने की आवश्यकता पर बल दियाहै.आयोग ने इन योजनाओं की निगरानी के लिए एक नया संस्थागत तंत्र विकसित करने को कहा था, लेकिन वह एकतरफा व अचानक बजट में कटौती से बिलकुल भिन्न है.
इनमें से कुछ कटौतियां मध्यम अवधि के लिए उचित हैं. बावजूद इसके, महत्वपूर्ण योजनाओं की रक्षा के लिए सावधानी बरते बिना इन्हें राज्यों पर नहीं थोपा जाना चाहिए. लगता है कि केंद्र सरकार ने सामाजिक नीति की किसी बीमारू (त्रूटिपूर्ण) योजना के तहत इसे राज्यों में लागू किया गया है, जिससे कुछ अल्पकालिक व्यवधान पैदा होने की संभावना है.
केंद्र सरकार की ओर से सामाजिक क्षेत्र की दिशा में दुविधाओं के बावजूद कई राज्य अपनी सामाजिक नीतियों में विस्तार और सुधार की कोशिशों में जुटे हैं. क्या आपको इन प्रयासों में कोई भविष्य दिखाई देता है?
दरअसल, भारत में और अधिक व्यापक और प्रभावी सामाजिक नीतियों के लिए विशाल संभावनाएं हैं. यदि भारत की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) इसी तरह 7.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से अगले 20 वर्षों तक बढ़ता रहा और इसी अवधि में सामाजिक निवेश की हिस्सेदारी से जीडीपी में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती रही, तो अगले 20 साल में सामाजिक क्षेत्र के लिए आज की तुलना में पांच गुणा अधिक धन होगा, वास्तविक प्रति व्यक्ति के संदर्भ में. यदि इन संसाधनों का अच्छा उपयोग किया जाता है, तो अब से 20 साल में औसत भारतीय वैसी ही बेहतर सार्वजनिक सेवाओं और बुनियादी सुविधाओं का आनंद ले सकेंगे, जो आज केरल या तमिलनाडु के निवासियों को प्राप्त है.
इन संसाधनों का बेहतर उपयोग करने के लिए क्या कुछ किया जाना चाहिए?
सामाजिक खर्चे के बेहतर इस्तेमाल की जरूरत है. सबसे पहले स्कूलों, स्वास्थ्य केंद्रों, ग्राम पंचायत कार्यालयों और सामान्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में एक बेहतर कार्यसंस्कृति की आवश्यकता है. यह ‘पाइपड्रीम’ (मन में लड्डू) फूटने जैसा सुनने में लगे, लेकिन इसे एक ऐसे देश में स्वाभाविक विकास की तरह देखा जा सकता है, जहां अल्पभोजनवाला लोकतंत्र है. जो सार्वजनिक क्षेत्र की अनुपस्थिति, शोषण और भ्रष्टाचार से जनता का अप-सशक्तीकरण (डिस एंपावरमेंट) और पूरी तरह से अस्वीकारणीय प्रथाओं को विनम्र स्वीकृति देते हुए पनपा हो.
ऐसे में, जब लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली में मजबूती आती है और लोग अधिक मुखर और सतर्क होते हैं, तो इन कुप्रथाओं का टिकना कठिन हो जाता है और संबंधित सामाजिक मानदंड विकसित होते हैं. बेशक, केवल इसी प्रक्रिया पर भरोसा करके सार्वजनिक क्षेत्र को जिम्मेदार नहीं बनाया जा सकता, हासिल करने के लिए अकेले इस प्रक्रिया पर भरोसा नहीं करना चाहिए. बेहतर प्रोत्साहन और जवाबदेही के उपाय भी आवश्यक हैं, लेकिन इन उपायों को व्यापक जरूरतों के लिहाज से सार्वजनिक कार्यसंस्कृति को बदलने के लिए सबसे अच्छे लोकतांत्रिक अभ्यास के हिस्से के रूप में देखा जाता रहा है.
हाल में आपने बताया है कि बिहार अब अन्य राज्यों के साथ होड़ में शामिल हो गया है, कुछ खास क्षेत्र में. जैसे बच्चों का विकास. क्या इस रिकॉर्ड का बिहार चुनावों के हालिया नतीजों से कोई लेना-देना है?
मुझे संशय होता है, जब कोई इस बात को समझने का दावा करता है कि लोग ऐसे या वैसे वोट देते हैं. हालांकि, यह साफ प्रतीत हो रहा है कि बिहार केलोगों ने पूर्व की सरकार के विकास के रिकॉर्ड को श्रेय दिया है.
इस सराहना को गलत जगह प्रयोग नहीं करना चाहिए. इसके बढ़ते हुए प्रमाण हैं, हाल के वर्षों में कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बिहार में तेज प्रगति की है. उदाहरण के लिए वर्ष 2001 और 2011 के दौरान 10 से 14 आयुवर्ग की महिला साक्षरता में 51 से 81 प्रतिशत की वृद्धि हुई, बच्चों में पूर्ण टीकाकरण के मामले में जहां 2005-06 में आंकड़ा 33 फीसदी था, 2013-14 में बढ़ कर 60 फीसदी हो गया.
ऐसा प्रदेश जिसके बारे में समझा जाता था कि वह यथोचित सार्वजनिक सेवाएं देने में अक्षम है, निश्चित तौर पर यह एक वास्तविक पहल है. हालांकि, हमें नहीं भूलना चाहिए कि हालिया सुधारों के बावजूद बिहार, भारत के कु-शासित प्रदेशों में से एक है. वहां गरीबों का जीवन स्तर भयावह है. बिहार ने बदलाव की क्षमता प्रदर्शित किया है, लेकिन मौलिक परिवर्तन अभी बाकी है.
और झारखंड के बारे में?
देर-सबेर झारखंड में बदलाव आयेगा. भ्रष्टाचार, हिंसा, अपराध और शोषण, जो हम देखते हैं यहां, लोकतांत्रिक संस्थाओंवाले समाज में ज्यादा दिनों तक नहीं टिक सकते. हालांकि, यह बदलाव कैसे आयेगा, इसकी भविष्यवाणी कठिन है. राजनीतिक बदलाव किसी भी किस्म का हो, अप्रत्याशित होते हैं.
पिछले महीने दिल्ली में आयोजित ‘इकोनॉमिक्स कॉन्क्लेव’ में ऐन वक्त पर भाग लेने से आपको रोक दिया गया था, जबकि वित्त मंत्रालय ने तो गर्मजोशी से आपको आमंत्रित किया था. क्या आप महसूस करते हैं कि बढ़ती असहिष्णुता शैक्षिक हलकों तक फैल रही है?
मैं नहीं समझता कि हम उस स्तर पर पहुंच सके हैं कि शैक्षिक स्वतंत्रता पर गंभीर हमले हो रहे हैं, हालांकि कुछ झड़पें हुई हैं, जैसे Wendy Doniger की पुस्तक ‘दि हिंदूज’ को जबरन बाजार से हटवाना. कलाकार और लेखक उत्पीड़न के लिए आसान और कमजोर शिकार बन रहे हैं. उनके काम शैक्षिक अनुसंधान की तुलना में अधिक क्रांतिकारी हो जाते हैं. यदि हालिया ट्रेंड जारी रहा, हालांकि यह केवल एक समय की बात है, तभी तक तर्कहीनता और कट्टरता भी शैक्षणिक कार्य को प्रभावित करते रहेंगे.
तर्कहीनता में इस वृद्धि का क्या कारण मानते हैं और तर्कवादियों (रेशनलिस्टस) पर हालिया हमलों को लेकर क्या लगता है आपको?
तर्कवादी सोच उनके लिए धमकी है जिनका वर्चस्व अंधविश्वास और भावनात्मकता पर आधारित है. उदाहरण के लिए, जाति व्यवस्था. ऊंची जातियों का प्रभुत्व उस पूरी व्यवस्था को बनाये रखने पर निर्भर करता है, जो अन्य जातियों में जन्मे लोगों की क्षमता और अधिकार के बारे में है.
शिक्षा, ज्ञान और लोकतंत्र का प्रसार इस प्रभुत्व प्रणाली के लिए धमकी है. स्वाभाविक रूप से जो सिस्टम से लाभ उठाने के लिए खड़े हैं, उनकी प्रवृत्ति होती है कि इस तर्कवाद को बढ़ने से रोकने की और पुराने तर्कविहीन रूढ़ियों को पुनर्स्थापित करने की. ऐसा मैं मानता हूं कि तर्कवादियों पर हालिया हमले का यह एक संभावित कारण है. हालांकि और भी कारण हो सकते हैं.
क्या बढ़ती असहिष्णुता भारत के आगे की आर्थिक राह के लिए खतरा है?
सहिष्णुता अपने आप में एक मूल्य हैं, हमें इसे तर्क से साबित करने की जरूरत नहीं है कि इसकी कोई आर्थिक प्रतिक्रिया होगी. हालांकि अब भीमैं सोचताहूं रघुराम राजन की वह बात, जिसमें उन्होंने पोषक आर्थिक प्रगति (फोस्टर इकोनॉमिक प्रोग्रेस) के सवाल पर खुली बहस और जांच की बात कही.
यह मुख्य कारण नहीं है कि असहिष्णुता निवेशकों को दूर रखने की एक कोशिश है. निवेशक केवल मुनाफा की परवाह करते हैं, न कि सांप्रदायिक सौहार्द और इस तरह की किसी चीज का. यह इसलिए कि आर्थिक प्रगति निर्भर करती है मानवीय रचनात्मकता, नवोत्पादकता (इनोवेशन) और पहल पर, जिसे ऊर्जा मिलती है सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से. यह सब जाहिर है एक छोटा-सा सट्टा है और यही एक अन्य कारण है सहिष्णुता के स्वयं के मूल्य को समझने का, बजाय इसके कि इसकी आर्थिक परिसंपत्ति से तुलना की जाये.
इसी साल कुछ समय पहले आपने ‘जन अधिकार यात्रा’ के तहत सामाजिक और आर्थिक अधिकारों पर बढ़ते हमलों के खिलाफ लोगों को एकजुट करने के लिए झारखंड में गांव-गांव का दौरा किया. 10 दिन वहां बिताया. क्या उस यात्रा की यादें शेयर कर सकते हैं?
मैं इस यात्रा की जबरदस्त छाप संजोये हुए हूं. कैसे ग्रामीण झारखंड में इतने सारे लोग आज भी अस्तित्व के लिए बुनियादी मुद्दों के साथ संघर्ष कर रहे हैं. अपनी जमीन कैसे बचायें, पानी कहां से लायें, बच्चों को कैसे खिलायें. यह वास्तव में एक ‘ह्युमैनटेरियन इमरजेंसी’ (मानवीय आपातस्थिति) है. लेकिन, हम इसके इतने आदी हो चुके हैं कि किसी तत्काल कार्रवाई की जरूरत नहीं समझते. यात्रा के दौरान कभी-कभी मैं इंटरनेट पर न्यूज चेक कर लेता था. और वह झकझोड़नेवाला था कि कैसे लोगों में जारी सार्वजनिक बहस में तुच्छ मुद्दों का वर्चस्व है.
किसे ‘बीफ’ खाने की अनुमति दी जानी चाहिए, दिल्ली की एक गली का कैसे पुन: नामकरण हो, सरस्वती नदी कहां से बह रही है, वैसा ही बहुत कुछ. असल में गरीब बहुत कम मायने रखते हैं. यह अहसास दिलाता है कि वास्तव में अभी भी हम लोकतंत्र से कितनी दूर हैं.
किसलय
(साक्षात्कारकर्ता किसलय वरिष्ठ पत्रकार और रांची से प्रकाशित साप्ताहिक अखबार ‘न्यूज विंग’ के संपादक हैं. इस साक्षात्कार का अंगरेजी संस्करण
http://newswing.com पर पढ़ सकते हैं.)