पेरिस में जिस समझौते पर सहमति बनी है, वह जलवायु परिवर्तन को मानव समाजों और इस ग्रह के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और अचल खतरा मानता है। इस खतरे की मार कम करने के लिए जरूरी यह है कि वैश्विक तापमान का स्तर औद्योगिक क्रांति युग के पहले के दौर से भी दो डिग्री सेल्सियस कम रखना, फिर आगे इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करना। 1970 से 2004 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में खतरनाक 70 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि 1880-2012 के दौरान वैश्विक तापमान 0.85 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। इस वजह से दुनिया भर में मौसम से संबंधित कई तरह के बदलाव हुए हैं, जिससे पारिस्थितिकीय तंत्र पर खतरा बढ़ रहा है। ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्री जल-स्तर में वृद्धि, गर्मियों की तेज तपिश, पौधों और जानवरों की विविधताओं में बदलाव, समय से पूर्व पौधों में फूल आना जैसे मौसम के कई प्रभाव हमारे सामने आ रहे हैं। पेरिस समझौते में सभी देशों ने तय किया है कि ग्रीनहाउस गैसों के सर्वाधिक उत्सर्जन का लक्ष्य जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी पा लिया जाए और फिर इसमें तेज कमी की जाए।
जलवायु परिवर्तन बहु-आयामी मुद्दा है। विज्ञान व तकनीक, सामाजिक, आर्थिक व व्यापार, राजनीति व कूटनीति इसके महत्वपूर्ण पहलू हैं। इन सबका आपस में गुंथा होना जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित देशों के लिए सर्वमान्य समाधान की राह जटिल बनाता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पहला गंभीर प्रयास यूएनएफसीसीसी यानी द यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज माना जाता है, जिस पर 1992 के रिओ पृथ्वी सम्मेलन में 150 से अधिक देशों ने हस्ताक्षर किए। 1997 में यूएनएफसीसीसी के देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर तैयार क्योटो प्रोटोकोल को भी मंजूर किया। बाद में कोपेनहेगन समझौते (2009) में औद्योगिक रूप से विकसित देशों ने विकासशील देशों की जरूरतों को देखते हुए वर्ष 2020 तक 100 अरब डॉलर संयुक्त रूप से जुटाने का वादा किया। हालांकि इस वादे को लेकर देशों में मतभेद रहे हैं।
वैज्ञानिकों की मानें, तो यदि वर्तमान दर से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता रहा, तो धरती का औसत तापमान पांच डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। 1970 के दशक में ही येल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विलियम नॉरदौस ने अपने शोध पत्र में यह चेतावनी दी थी कि वैश्विक तापमान मौजूदाऔसत तापमान से दो या तीन डिग्री सेल्सियस ज्यादा बढ़ रहा है। बाद में आईपीसीसी ने भी अपनी रिपोर्ट में दो डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि का लक्ष्य तय करने पर जोर दिया। लिहाजा, अन्य समझौतों की तरह पेरिस में भी दो डिग्री का लक्ष्य तय किया गया है।
जलवायु वार्ता में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा विकसित देश बनाम विकासशील देशों द्वारा की जाने वाली ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन है। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर ठीकरा फोड़ते हुए पश्चिमी देश कार्बन उत्सर्जन में कमी करने की वकालत करते हैं, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर आधारित होना चाहिए। लेकिन इसमें इस तथ्य की अवहेलना कर दी जाती है कि उत्सर्जन का मौजूदा स्तर पश्चिम के नव-विकसित देशों द्वारा किए गए बेतहाशा औद्योगिक विकास का परिणाम है। वर्ष 1850 से उत्सर्जन संबंधी आंकड़े खुलासा करते हैं कि उत्सर्जन में कमोबेश एक तिहाई हिस्सेदारी अमेरिका की है, जबकि यूरोप और अन्य विकसित देश 45 फीसदी जवाबदेह रहे हैं। इसी आधार पर विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन की गणना जनसंख्या के आधार पर करने की बात कहते हैं। सुखद है कि पेरिस में इसका ख्याल रखा गया।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस का अनुमान है कि आज भी भारत महज तीन प्रतिशत ही उत्सर्जन करता है। इसी तरह, साल भर में औसतन एक भारतीय 1.6 टन कार्बन डाई-ऑक्साइड छोड़ता है, जबकि एक अमेरिकी 16.4 टन, जापानी 10.4 टन और यूरोपीय 7.4 टन सालाना उत्सर्जन के जिम्मेदार हैं। विश्व का औसतन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सालाना 4.9 टन है। इन सबके बावजूद एक जिम्मेदार राष्ट्र के तौर पर भारत ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कई स्वैच्छिक और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं में अपनी सहमति दी हैं। राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास के तहत हमने 30 जून, 2008 को जलवायु परिवर्तन पर नेशनल ऐक्शन प्लान तैयार किया, जिसके तहत राष्ट्रीय सौर मिशन, राष्ट्रीय संवर्धित ऊर्जा दक्षता मिशन, राष्ट्रीय स्थाई आवास मिशन, राष्ट्रीय जल मिशन जैसे आठ अभियानों पर खासा जोर दिया जा रहा है। इसके साथ ही कार्बन उत्सर्जन को अवशोषित करने के लिए भारत ने वर्ष 2030 तक अधिकाधिक जंगल लगाने का भी वादा किया है।
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