प्रदूषण के विरुद्ध

दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर पिछले कुछ बरसों से बराबर अध्ययन आते रहे। सबमें चेतावनी का ही स्वर था। पर ये चेतावनियां अनसुनी की जाती रहीं, या उन पर पर्याप्त गौर नहीं किया गया। अब दिल्ली के वायु प्रदूषण पर काबू पाने की कवायद तेज हो गई दिखती है। देर से ही सही, दुरुस्त आयद। पर यह अंदेशा भी पैदा हुआ है कि हड़बड़ी में कहीं अव्यावहारिक कदम तो नहीं उठाए जा रहे, जो वायु प्रदूषण घटाने की कोशिशों को अराजकता में बदल दें। इससे मकसद की दिशा में आगे बढ़ने के बजाय नुकसान ही होगा। सकारात्मक पहलू यह है कि दिल्ली के वायु प्रदूषण से राहत दिलाने की पहल एक अभियान का रूप लेती दिख रही है। पहले दिल्ली सरकार का फरमान आया कि कारें रोज नहीं चल सकेंगी, सम-विषम संख्या के आधार पर उनका बारी-बारी से नंबर आएगा।

इसके बाद एनजीटी ने फैसला सुनाया कि दिल्ली में नए डीजल वाहन का पंजीकरण नहीं होगा। साथ ही दस साल से ज्यादा पुराने डीजल-वाहनों के पंजीकरण का नवीनीकरण भी नहीं हो सकेगा। 1990 के दशक में जब दिल्ली में डीजल से चलने वाले सार्वजनिक वाहनों पर रोक लगाई गई, तब भी डीजल-चालित कारों को बख्श दिया गया। यह धारणा बनी कि इसके पीछे ताकतवर उपभोक्ताओं और औद्योगिक लॉबी, दोनों का दबाव रहा होगा। डीजल-कारों के प्रति आकर्षण इस वजह से रहा है कि उनका परिचालन-खर्च कम आता है। जिन्हें अक्सर लंबी दूरी तय करनी रहती है, वे डीजल से चलने वाली कार पसंद करते हैं। पर सार्वजनिक स्वास्थ्य को पहुंच रहे नुकसान के रूप में इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ रही है, इस सवाल की लगातार उपेक्षा की जाती रही।

एनजीटी के फैसले ने अनदेखी के इस सिलसिले पर विराम लगाया है। उसने यह भी कहा है कि हमारी नजर सिर्फ दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण पर नहीं है। पूरे देश में वायु प्रदूषण बढ़ रहा है। ऐसे में राज्य सरकारें भी इस संबंध में कदम उठाएं। दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ अन्य शहरों में डीजल से चलने वाले वाहनों पर प्रतिबंध लगाने की मांग वाली याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार कर ली है। अगर सुप्रीम कोर्ट का कोई सख्त निर्देश आता है, तो फिर केंद्र और साथ ही राज्य सरकारों को भी सख्ती दिखाने के लिए विवश होना पड़ेगा। सरकारें इस बात से अनजान नहीं है कि प्रदूषण दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है और वह बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच रहा है, चाहे वह हवा का हो या पानी का। लेकिन इससे राहत दिलाने की कोईगंभीर पहल वे नहीं करतीं। व्यापक संकट की नौबत आने पर अचानक कोई कठोर फैसला लेना पड़ता है, चाहे वह अदालत ले या सरकार। लिहाजा, पर्याप्त सोच-विचार नहीं हो पाता। –

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