उनका कहना है कि समुद्र तल में हो रही इस बढ़ोतरी का सीधा असर धरती के रोटेशन (अपनी धुरी पर चक्कर) पर पड़ रहा है। उसकी रफ्तार आंशिक रूप से धीमी हो रही है। यही कारण है कि मौजूदा समय में दिन की लंबाई धीरे-धीरे बढ़ रही है।
वैज्ञानिक मैथ्यू डंबेरी के अनुसार, "जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की सटीक भविष्यवाणी के लिए हम समुद्र तल में अतीत में हुए बढ़ोतरी का अध्ययन कर रहे हैं।" अध्ययन से जुड़े कनाडा के अलबर्टा यूनिवर्सिटी में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर डंबेरी ने आगे कहा, "पिछली सदी के दौरान समुद्र तल में आए बदलाव को ठीक से समझने के लिए हमें पृथ्वी के केंद्र में प्रवाह की गति को पहले समझना होगा। क्योंकि इसका सीधा रिश्ता धरती के रोटेशन रफ्तार से है।"
उनका कहना है कि ग्लेशियर के पिघलने से पैदा हुआ जल न केवल समुद्र तल में बढ़ोतरी करता है बल्कि ध्रुवों से द्रव्यमान को लेकर भूमध्यरेखा (इक्वेटर) पर आता है। यह धरती के रोटेशन की गति को प्रभावित करता है। इस पर चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। लेकिन इन सबसे बढ़कर धरती के केंद्र की भी भूमिका अहम है।
डंबेरी के मुताबिक, "पिछले तीन हजार वर्षों में धरती के केंद्र (कोर) की गति बढ़ रही है जबकि पृथ्वी के सतह (मैंटल) की रफ्तार कम हो रही है। इससे धरती के रोटेशन की गति धीमी पड़ रही है।" उनका कहना है कि एक सदी बाद अब के मुकाबले दिन की लंबाई 1.7 मिली सेकेंड बढ़ जाएगी।
अध्ययन में शामिल वैज्ञानिकों को भरोसा है कि 21वीं सदी खत्म होते-होते हम समुद्र तल में बढ़ोतरी की भविष्यवाणी करने में कामयाब हो जाएंगे। इससे जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटते हुए तटीय शहरों का बेहतर नियोजन किया जा सकता है।