पिछले दिनों संविधान दिवस के अवसर पर संसद में राष्ट्रीय महत्व की बहसें हुईं। संविधान 26 नवंबर, 1949 को पेश किया गया था। पर उसकी उद्देशिका में जो कहा गया, वह सपना क्या था? अब असहिष्णुता बढ़ रही है। दलित मंदिरों में नहीं जा सकते। आरक्षण को आज भी प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी के रूप में नहीं अपनाया जा रहा।
कांग्रेस ने शिक्षा और रोजगार के ऐसे क्षेत्र विकसित किए, जिनसे आरक्षण का अघोषित अंत हो गया, और वही कांग्रेस के पतन का कारण भी बना। संविधान समीक्षा के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित मंशा लेकर भाजपा चली थी। उसका भी हश्र कांग्रेस जैसा होगा। बिहार चुनाव का एक संदेश यह भी है कि संविधान की कल्याणकारी योजनाओं को कुचलने का हक अब किसी को नहीं दिया जाएगा। पर अंबेडकर और लोहिया के नाम पर राजनीति करने वाली मायावती और मुलायम सिंह की सरकारों ने उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का जिस तरह सत्यानाश किया, वह तो कांग्रेस और भाजपा की दलित-विरोधी नीतियों को भी पीछे छोड़ता है।
बहुत दिनों से राष्ट्रीय दलित महिला आयोग के गठन की मांग उठ रही है। पर किसी सरकार ने इस दिशा में नहीं सोचा। ऐसे में संविधान और अंबेडकर पर चर्चा करने का मतलब नहीं है।
जो लोग कहते हैं कि संविधान में अंबेडकर का योगदान खास नहीं है, उन्हें ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ शीर्षक से प्रस्तुत उस ज्ञापन को अवश्य देखना चाहिए, जो उन्होंने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति परिसंघ की ओर से भारतीय संविधान सभा के लिए तैयार किया था। यह ज्ञापन संविधान का संक्षिप्त रूप था, जो उन्होंने संविधान से पहले तैयार किया था। उन्होंने कहा था-संविधान बनाते समय अगर बहिष्कृत समाजों की स्थितियों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो हम अपनी ओर से व्यक्ति की गरिमा बचाने के वास्ते कानून बनवाने के लिए संघर्ष करेंगे।
यह कल्पना ही बेचैन करती है कि आज अगर लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष संविधान न होता, तो दलितों, आदिवासियों और अति पिछड़े समाजों का क्या हाल होता? जबकि संविधान के होते हुए भी देश में कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना पूरी तरह साकार नहीं हो सकी है। न अस्पृश्यता खत्म हुई, न निरक्षता।
लेकिन इसके लिए न संविधान को दोष दिया जा सकता है, न उसके निर्माता बाबा साहेब को। अंबेडकर ने कहा था, संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह अंततः बुरा सावित होगा, यदि उसका इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होंगे।’ इसके उलट उन्होंने यह भी कहा कि संविधान कितना भी बुरा क्यों न हो, वह अंततः अच्छा साबित होगा, अगर अगर उसे इस्तेमाल में लाने वाले लोग अच्छे होंगे। इसलिए जनता और उसके राजनीतिक दलों की भूमिका को संदर्भ में लाए बगैर संविधानपर कोई निर्णय देना या टिप्पणी करना व्यर्थ होगा।