सूचनाधिकार कानून के तहत सूचना मांगने वाले आम आवेदकों को राज्य में परेशान किया जाता है। अक्सर दोषी अधिकारियों को सजा नहीं दी जाती। आर्थिक जुर्माना लगाया जाता है, पर उसका भी अनुपालन नहीं होता। सूचनाधिकार कानून ने सरकारी तंत्र की खामियों को उजागर करते हुए लाखों लोगों को न्याय दिलाया है। पर यह भी सच है कि हाल के वर्षों में आरटीआइ कानून के दुरुपयोग में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। कई मामलों में इस कानून का गलत तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है। लोकहित के नाम पर लोग निरर्थक, बेमानी और निजी सूचनाओं की मांग कर रहे हैं, जिससे मानव संसाधन और सार्वजनिक धन का असमानुपातिक व्यय हो रहा है। साथ ही, इसके द्वारा निजता में दखलअंदाजी की जा रही है। इसके अलावा, अब भी निजी क्षेत्र को इसकी जद में न लाने के कारण इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। इसके साथ यह भी सत्य है कि इस कानून की वजह से बहुत सारे घोटालों का पर्दाफाश हुआ है। आरटीआइ के कारण आज हमारे समाज का उपेक्षित वर्ग अपना काम आसानी से कराने में सक्षम हुआ है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता आने लगी है। भ्रष्टाचार पर भी धीरे-धीरे लगाम लग रही है। सरकारी उपक्रमों में पारदर्शिता लाने के प्रति लोगों में जागरूकता आई है।
इस कानून के तहत आम लोग भी सूचना मांग सकते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के अधीनस्थ महकमों में सूचना मांगने की अलग-अलग व्यवस्था है, पर सूचना मांगने की प्रक्रिया सरल है। इस कारण इस कानून की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आरटीआइ के तहत सबसे पहले आवेदक, लोक सूचना अधिकारी से सूचना मांगता है। आवेदन खारिज होने के बाद फिर आवेदक केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य के मामले में उसके समकक्ष अधिकारी से संबंधित सूचना मांगता है। उसके बाद प्रथम अपील उसके ऊपर के अधिकारी के पास की जाती है। वहां से भी सही सूचना नहीं मिलने की स्थिति में अपीलकर्ता राज्य या केंद्रीय सूचना आयोग के पास नब्बे दिनों के अंदर द्वितीय अपीलकर सकता है। इस संबंध में पूर्व केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह ने माना है कि केंद्र सरकार के अंतर्गत काम करने वाले विभागों में अनुभाग अधिकारियों को केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी (सीपीआइओ) बनाया जाता है, जिनके पास बहुत कम सूचना उपलब्ध होती है, जबकि पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी के मुताबिक अगर आवेदक सटीक सवाल पूछेंगे तो लोक सूचना अधिकारी उसका आसानी से जवाब दे सकेंगे। वजाहत हबीबुल्लाह का यह भी मानना है कि केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी को उप-सचिव के स्तर का होना चाहिए, ताकि सही सूचना आवेदक को मिल सके।
आरटीआइ ऐसेसमेंट ऐंड एनालिसिस ग्रुप और नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इनफॉर्मेशन (एनसीपीआरआइ) ने अपने एक शोध में पाया कि औसतन तीस प्रतिशत आवेदन लोक सूचना अधिकारी द्वारा शुरुआती दौर में ही खारिज कर दिए जाते हैं। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि सामान्यतया लोक सूचना अधिकारी आवेदकों को सूचना मांगने से हतोत्साहित करते हैं। सूचना तीस दिनों के अंदर नहीं दी जाती है। अक्सर गलत और भ्रामक सूचना दी जाती है। कई मामलों में अधिनियम की धारा 8 के तहत सूचना देने से मना किया जाता है। हालांकि अधिनियम के अंतर्गत सूचना नहीं देने का कारण बताया जाना चाहिए, लेकिन आमतौर पर ऐसा नहीं किया जाता। देर से सूचना उपलब्ध कराने के लिए महज 1.4 प्रतिशत मामलों में जुर्माना लगाया जाता है। हालांकि आरटीआइ के तहत हर नागरिक को सार्वजनिक सूचना पाने का अधिकार है। फिर भी वैसी सूचनाएं मसलन, वैधानिक गरिमा, राष्ट्रीय हित, जांच से जुड़े, न्यायालय के अंदर विचाराधीन, मंत्रिमंडल के फैसलों से जुड़े आदि मामलों में सूचना देने से मना किया जा सकता है। ऐसा नहीं कि हर बार गलती लोक सूचना अधिकारी या केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी की होती है। अधिकतर आवेदकों के आवेदन में उनके द्वारा मांगी गई सूचना स्पष्ट नहीं होती। आरटीआइ की आड़ में सूचना अधिकारी को ब्लैकमेल करने के मामले भी प्रकाश में आए हैं।
अनेक आवेदन दस से बीस पन्नों के होते हैं, लेकिन उनके द्वारा मांगी गई सूचना महज एक या दो पंक्तियों की होती है। इसके चलते भी आवेदकों द्वारा मांगी गई सूचना को समय-सीमा के अंदर मुहैया कराने में परेशानी होती है। ऐसी समस्याओं से निजात पाने के लिए ही कर्नाटक सरकार ने नियम बनाया है कि आरटीआइ के अंतर्गत आवेदक सूचना केवल डेढ़ सौ शब्दों में मांग सकते हैं। आरटीआइ शुल्क के बारे में भी आम लोगों को जानकारी नहीं है। अक्सर लोग दस रुपए के गैर-न्यायिक स्टांप पेपर पर आरटीआइ का आवेदन करते हैं, जबकि शुल्क का भुगतान डिमांड ड्राफ्ट, पोस्टल आर्डर या नगद किया जा सकता है। इस संदर्भ में सरकार द्वारा किसी भी प्रकार का कोई जनजागरण अभियान नहीं चलाया जा रहा, जबकि जागरूकता के लिए इसकी सख्त जरूरत है। इधर आयकर के वैयक्तिक रिकार्ड को भी व्यक्तिगत सूचना की परिभाषा के दायरे में लाए जाने की बात कही जा रही है। सूचना आयुक्तों के अनुसार यह किसी की निजता पर हमला नहीं है। इससे कर वंचना रोकने में मदद मिलेगी। सवाल है कि अगर सब कुछ सार्वजनिक कर दिया जाएगा, तोव्यक्तिविशेष की निजता का क्या होगा? क्या सरकार द्वारा संकलित सूचनाओं का निजी कंपनियां गलत फायदा नहीं उठाएंगी? विज्ञापन और ठगी को अंजाम देने के लिए मोबाइल और इंटरनेट के जरिए आम आदमी को वैसे भी प्रतिदिन ढेर सारे अनचाहे फोनों और मेल के जरिए परेशान किया जा रहा है। बाजार हमारे निजी पलों में भी सेंध लगा रहा है। मोबाइल नंबर, जन्मतिथि, बच्चों का नाम और बैंक का खाता नंबर आदि का विवरण जाने कब आपके हाथ से फिसल कर बाजार में चला जाता है, जिसका अहसास तक आपको नहीं होता। आधार कार्ड यानी यूनिक आइडेंटिटी नंबर के प्रावधान को भी निजता पर हमले के रूप में देखा जा रहा है।
इस योजना के तहत भारत के हर नागरिक की सूची तैयार की जा रही है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत सूचनाओं को समाहित किया जाएगा। विवाद के बाद हाल ही सर्वोच्च न्यायालय ने इसे आवश्यक से हटा कर वैकल्पिक की श्रेणी में रखा है। आम आदमी अपनी दिनचर्या में कॉरपोरेट घरानों के अनेक उत्पादों का उपयोग करता है। साबुन-तेल से लेकर हरी सब्जियां तक निजी घराने बेच रहे हैं। इतना ही नहीं, शिक्षा के क्षेत्र में भी कॉरपोरेट घरानों ने अपना पैर पसार रखा है। स्वास्थ्य क्षेत्र, जो सीधे तौर पर आम आदमी से जुड़ा है, उसमें भी कॉरपोरेट घरानों की दखल है। देखा जाए तो काफी हद तक आम आदमी का जीवन निजी घरानों के रहमो-करम पर निर्भर है। आज आरटीआइ ने सरकारी मुलाजिमों और राजनेताओं के मन में खौफ पैदा कर दिया है। प्रतिकार में आरटीआइ के तहत सूचना मांगने वालों को धमकी मिलना सामान्य बात है। अगर किसी सूचना से किसी बड़ी हस्ती को नुकसान होने की संभावना होती है, तो उस स्थिति में सूचना मांगने वाले की हत्या होना अस्वाभाविक नहीं है। 2005 से लेकर अब तक दर्जनों आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, सूचनाधिकार कानून और आधार नंबर के जरिए सरकार आम आदमी के निजी पलों में घुसपैठ कर चुकी है। कॉरपोरेट सेक्टर भी विज्ञापन, मोबाइल और इंटरनेट की सहायता से आम नागरिकों की निजी सूचनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में चाहे डीएनए बैंक बनाया जाए या यूनिक आइडेंटिटी नंबर के माध्यम से नागरिकों पर नजर रखी जाए, इस तरह की कवायद तभी प्रभावी होगी, जब उसके अनुपालन में कोई चूक न हो। अभी तक निजता के अधिकार को संसद ने संहिताबद्ध नहीं किया है। इसलिए, इसकी सुरक्षा के लिए इसे संहिताबद्ध किया जाना चाहिए, क्योंकि यह सांस्कृतिक रूप से परिभाषित मुद्दा है। खामियों के बावजूद आरटीआइ कानून समाज के दबे-कुचले और वंचित लोगों के बीच उम्मीद की आखिरी किरण माना जा रहा है। पूर्व मुख्य केंद्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह का भी मानना है कि आरटीआइ के माध्यम से समाज के वंचित तबके को उसका अधिकार मिल सकता है। इसी के जरिए आम आदमी शासन में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकता है। मुख्य केंद्रीय सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्र भी कहते हैं कि आरटीआइ शासन को आम जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।