ग्लोबल से अहम हमारा लोकल वार्मिंग- अतुल चतुर्वेदी

जिन दिनों अघाए हुए देश ग्लोबल वार्मिंग पर पैंतरे बदल रहे हैं, उन्हीं दिनों हम लोेकल वार्मिंग से जूझ रहे हैं। यूं भी हमारा देश एक गरम देश है और तू-तू मैं-मैं हमारा बहुत पुराना शगल है।

विश्व के नेताओं की चिंता भले कार्बन उत्सर्जन को लेकर हो, लेकिन हमारी चिंताएं एक-दूसरे के मुंह पर कालिख पोतने तक सीमित हैं। हम कालिख मलने और कपड़े फाड़ने से अभी ऊपर नहीं उठ पाए हैं। हम कार्बन के मूर्त रूप के ईद-गिर्द ही विचरण कर रहे हैं। हमारा अमूर्तन से फिलहाल सरोकार हुआ ही नहीं। यूं भी हम मूर्ति पूजने, गढ़ने व ढोने में विश्वास रखने वाले लोग हैं। मूर्ति भंजक तो सदियों में कोई जन्म लेता है।

सत्ता और विपक्ष की खींचतान हमारे देश में मिले न सुर मेरा तुम्हारा अंदाज में सदा जारी रहती है। खिलाड़ी, चयनकर्ता और दर्शक एक-दूसरे में मीन-मेख निकालते रहते हैं। कभी-कभी तो पिच क्यूरेटर तक इसकी जद में आ जाता है। मंत्रीजी सरेआम बिफर जाते हैं और नौकरशाह बेचारा घिघियाता रहता है। नौकरशाह आम जनता पर अपने अहं का बुल्डोजर चढ़ा देते हैं और निरीह जनता उफ भी नहीं कर पाती।

एक हीरो सरेआम थप्पड़ मार देता है और दूसरा बेगुनाह फुटपाथियों पर गाड़ी चढ़ा देता है। यह बॉलीवुड टाइप की वार्मिंग है, जिसमें स्टंट का तड़का स्वाभाविक है। इसलिए विकसित देशों की तुलना में हम अब भी काफी पिछडे़ हुए हैं। विकसित देशों के नौनिहाल स्कूलों में फायरिंग करते रहते हैं, जबकि हमारे कॉलेजों के छात्र महज पथराव तक सीमित हैं।

 

इसलिए हमारा यह कहना सही है कि हमारा प्रति व्यक्ति वार्मिंग या कार्बन उत्सर्जन उनके मुकाबले काफी कम है, तो हम क्यों ग्रीन फंड में धन दें? हम तो क्लीन फंड को लेकर ही जूझ रहे हैं अभी। हम भ्रष्टाचार के प्रदूषण को तो क्लीन कर लें पहले। विकसित देश जहां ई-कचरा परोस रहे हैं, हम प्लास्टिक कचरे पर ही कदमताल कर रहे हैं। दिल्ली को बीजिंग तक का सफर तय करना है। हमारे यहां धुंध में चेहरे पहचान में आ जाते हैं, उनकी तो मंशा झलक जाती हैै। मुस्कानों के पीछे प्रक्षेपास्त्र छिपाना अभी कहां हमें आया है?
अतुल चतुर्वेदी

 

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