संसद में संविधान दिवस के अवसर पर बहस और इस दौरान पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा अपने-अपने विचारों का आदान-प्रदान एक स्वागतयोग्य पहल है। चूंकि आज भी बहुत से भारतीयों कों संवैधानिक उपायों-प्रावधानों और उसकी विशेषताओं को लेकर बहुत ही अल्प जानकारी है, इसलिए संविधान दिवस का निर्णय एक अच्छा कदम है। इसके लिए मौजूदा सरकार को बधाई दी जानी चाहिए, परंतु हमें यह भी समझना होगा कि संविधान दिवस के अवसर पर केवल संसद में चर्चा से बात नहीं बनने वाली। सरकार को चाहिए कि इस चर्चा को आम लोगों के बीच भी ले जाया जाए और संवैधानिक साक्षरता को एक अभियान का रूप दिया जाए ताकि सभी देशवासी समझ सकें कि संविधान उनके बारे में क्या कहता है और लोगों के क्या दायित्व हैं? संविधान सिर्फ अधिकारों की ही बात नहीं करता, बल्कि उसमें प्रत्येक नागरिक के 11 मूल कर्तव्य भी बताए गए हैं, जिनका पालन सभी के द्वारा किया जाना अनिवार्य है।
संविधान के अनुसार उसके आदर्शों और उसकी सभी संवैधानिक संस्थाओं का आदर-सम्मान किया जाना चाहिए। यह सभी का मूल कर्तव्य है। दुर्भाग्य यह है कि आज संवैधानिक पदों और संसद समेत अन्य संस्थाओं के प्रति आदर भाव कम हुआ है और कई बार तो उनकी अवज्ञा भी की जाती है। इनमें संसद सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था है, जहां सकारात्मक बहस और आम लोगों के मुद्दों पर चर्चा से बचा जाता है और प्राय: गतिरोध की स्थिति देखने को मिलती है। इसके लिए किसी पक्ष विशेष को सही या गलत के तराजू पर देखने के बजाय हमें इस संस्था के प्रति घटते आदरभाव के रूप में देखना चाहिए। इसके लिए सभी को मिल-बैठकर कोई रास्ता निकालना होगा ताकि लोकतंत्र की इस सर्वोच्च संस्था को अनावश्यक विवादों से दूर रखा जा सके। संसद में लोकहित के सवालों को सहमति के सूत्र से ही हल किया जाना चाहिए, लेकिन जान-बूझकर सरकार के कामकाज में बाधा पैदा किया जाना भी ठीक नहीं।
यदि आम नागरिकों को संसदीय कार्यप्रणाली और संवैधानिक प्रावधानों के बारे में जागरूकता होगी तो वे हकीकत को बेहतर रूप में समझ सकेंगे। इससे नेताओं पर भी दबाव बनेगा कि संसद में उनके कार्य व्यवहार का आकलन जनता कर रही है और उसका खामियाजा उन्हें चुनावों में भुगतना पड़ सकता है। इसका सकारात्मक प्रभाव होगा और संसदीय कार्यप्रणाली में सुधार आएगा। इसके लिए जरूरी है कि ग्रामीण और शहरी इलाकों के साथ साथ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को भी इससे अवगत कराया जाए कि उनका संविधान क्या कहता है।
संसद में संविधान पर बहस के दौरान सेक्युलर शब्द को संविधान में शामिल करने और उसके वास्तविक अर्थ को लेकर भी बहस देखने को मिली। मेरे विचार से इस मसले पर बेजा वाद-विवाद किया जा रहा है। संविधान में सेक्युलर शब्द का हिंदी अनुवाद पंथनिरपेक्षता ही है, न कि धर्मनिरपेक्षता। बेशक संविधान की उद्देश्यिका में सेक्युलर शब्द को बाद में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में शामिल किया गया, लेकिन इससे संविधान की मूल भावना पर विशेष अंतर नहीं पड़ता।
सेक्युलर शब्द की व्याख्या पश्चिमी देश गैरधार्मिक भाव में करते हैं, जबकि हमारे यहां इस शब्द की व्याख्या सर्वधर्म समभाव के रूप में की जातीहै। एक तरह से हमारे यहां सेक्युलर शब्द अधिक व्यापक अर्थों को लिए हुए है, जो हमें सभी नागरिकों को समान रूप से देखने और उनके साथ समान व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। इसी प्रकार असहिष्णुता का विवाद भी इन दिनों गरमाया हुआ है। यह आज एक राजनीतिक मसला है, लेकिन संवैधानिक तौर पर देखा जाए तो दुनिया के किसी भी देश के संविधान में असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं है और न ही इसे कहीं कोई वैधानिक-संवैधानिक स्वीकृति है।
भारतीय संविधान के निर्माताओं के योगदान को लेकर भी संसद में चर्चा की गई। इस क्रम में डॉ.भीमराव आंबेडकर के प्रमुख योगदान को भुलाया नहीं जा सकता, लेकिन ऐसा करते वक्त हमें नहीं भूलना चाहिए कि संविधान का निर्माण भारत की जनता ने मिलकर किया। संविधान निर्माण के समय विभिन्न् पत्र-पत्रिकाओं और सूचना माध्यमों से आम लोगों और संस्थाओं से विभिन्न् विषयों पर उनके मत आमंत्रित किए गए और उनके आधार पर ही संविधान सभा ने अंतिम निर्णय लिए। चूंकि आंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, लिहाजा उनकी ये महती जिम्मेदारी थी कि सभी के विचारों को संविधान में स्थान मिले और इस रूप में उन्होंने निष्पक्ष रहते हुए अपनी विशेष भूमिका का निर्वहन किया।
संविधान के मूल दर्शन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल व जवाहरलाल नेहरू की एक विशिष्ट छाप परिलक्षित होती है। इनके अतिरिक्त केएम मुंशी, एमए आयंगर, टीटी कृष्णमाचारी, कृष्णास्वामी अय्यर आदि कई अन्य विद्वानों ने भी संविधान निर्माण में अहम योगदान दिया। इन सबके बारे में भी देशवासियों को परिचित कराया जाना चाहिए। जहां तक संविधान में सुधार की गुंजाइश की बात है तो अब तक संविधान में सौ से अधिक सुधार हो चुके हैं और भविष्य में भी तमाम सुधार की संभावना शेष रहेगी, लेकिन यहां हमें प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि संविधान कैसा भी हो, यह अच्छा हो या बुरा, लेकिन यह देश चलाने वालों पर निर्भर करेगा। यदि हमारे राष्ट्रनायक निष्ठावान, ईमानदार और सक्षम होंगे तो हमारा संविधान भी अच्छा होगा और यदि देश चलाने वाले ही अच्छे नहीं हुए तो हमारा संविधान भी कुछ नहीं कर सकता।