भोपाल गैस त्रासदी: 31 साल पूरे, इंसाफ का इंतजार अब भी

भोपाल गैस त्रासदी को आज 31 साल पूरे हो चुके हैं लेकिन इससे प्रभावित हुए भोपाल और उसके आसपास के लोगों और पीड़ितों को अभी भी इंसाफ के लिए इंतजार करना पड़ रहा है।

आज से ठीक 31 बरस पहले 2 और 3 दिसंबर, 1984 की रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के कारखाने से जहरीली गैस रिसाव से समूचे शहर में मौत का तांडव मच गया था। उस रात लगभग पांच हजार लोगों को तथा उसके बाद से अब तक सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक लगभग 15 हजार लोगों को मौत हो चुकी है। इससे भी कहीं ज्यादा लोगों को तरह-तरह से बीमार और लाचार बना चुकी इस त्रासदी को याद कर भोपाल के साथ-साथ देश के लोगों की रूह कांप उठती है।

जो लोग अब भी बचे हैं वे अपनी बीमारियों को लेकर अस्पतालों के चक्कर लगा रहे हैं। इस त्रासदी से सिर्फ उस समय की पीढ़ियों के लोग ही प्रभावित नहीं हुए बल्कि उसके बाद पैदा हुई पीढ़ियां भी इसके असर से अछूती नहीं हैं।

त्रासदी के बाद भोपाल में जिन बच्चों ने जन्म लिया उनमें से कई विकलांग पैदा हुए तो कई किसी और बीमारी के साथ इस दुनिया में आए और अभी भी आ रहे हैं। बीसवीं सदी की इस भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के गुनहगारों को सजा दिलाने का मामला अभी भी कानूनी और प्रकारांतर से राजनीतिक झमेलों में उलझा हुआ है।

7 जून, 2010 को आए स्थानीय अदालत के फैसले में आरोपियों को दो-दो साल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन सभी आरोपी जमानत पर रिहा भी कर दिए गए। इस फैसले के खिलाफ भोपाल से लेकर दिल्ली तक आंदोलन का ज्वार उठा, जिसके बाद केंद्र और राज्य सरकार ने सभी आरोपियों को माकूल सजा और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा दिलाने के अलावा उनके दीर्घकालिक पुनर्वास संबंधी कुछ निर्णय भी लिए लेकिन वे निर्णय सिर्फ घोषणा बनकर ही रह गए।

यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड का तत्कालीन मुखिया और इस त्रासदी का मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन की भी मौत हो चुकी है। कार्बाइड कारखाने के घातक रसायनों का सुरक्षित निबटारा भी अभी तक नहीं हुआ है जबकि यह काम केंद्र और राज्य सरकारों की प्राथमिकता सूची में अव्वल होना चाहिए था। दरअसल, 1984 के बाद विभिन्न राजनीतिक दल सत्ता में आए और चले गए, लेकिन सभी ने भोपाल के गैस पीड़ितों को मायूस ही किया।

सरकारों की नीयत साफ और इच्छाशक्ति मजबूत होती तो वे त्रासदी के पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए कई कदम उठा सकती थीं, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। यह हमारा राष्ट्रीय दुर्भाग्य तो है ही, हमारी व्यवस्था की बदनीयती और सामूहिक विफलता का नमूना भी है।

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