किसानों की यह आम शिकायत है कि हर कोई उन्हें खेती से जुड़ी चीजें बेचने की जुगत में है, लेकिन उनकी पैदावार को अच्छी कीमत पर बेचने के लिए कोई तैयार नहीं है। हरित क्रांति से लेकर अब तक सभी वैज्ञानिक और तकनीकी खोजों का फोकस पैदावार बढ़ाने पर है। पैदावार बढ़ती है तो बाजार में कीमतें गिर जाती हैं। भले ही किसान ने बेहतर फसल के लिए ऊंची लागत पर बुआई की, इसके बावजूद उसका मुनाफा मारा जाता है। यहां तक कि इफ़को और क्रिभको जैसे बड़े कॉपरेटिव संगठन का भी फोकस किसानों को बेहतर खाद और बीज मुहैया कराने पर है। उन्होंने यह सुनिश्चित करने की कभी कोशिश नहीं कि किसानों को उनकी फसल बेचकर मुनाफा हो।
बाजार अपने स्वभावगत खासियत की वजह से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए किसानों का हर संभव शोषण करने की कोशिश करता है। आम तौर पर किसान कर्ज में दबे होते हैं, इसलिए कीमतें कम होने पर उन्हें फसल काटने के बाद अपनी पैदावार बाजार में बेचनी पड़ती है। वक्त गुजरने के साथ, कीमतें बढ़ती हैं लेकिन फायदा सिर्फ ट्रेडर्स को होता है, किसानों को नहीं। और कई स्तरों में बंटे बाजार की वजह से खुदरा दुकानों तक पहुंचते पहुंचते किसानों की पैदावार की कीमत लगातार बढ़ती जातीहै। भले ही ज्यादा पैदावार हुई हो, लेकिन आम खरीददार को कम कीमत पर सामान नहीं मिलता। उसी तरह, जिस साल कम पैदावार होती है और कीमतें बढ़ जाती हैं, किसानों को कोई फायदा नहीं होता।
ऐसे में किसानों के हितों की रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है। आम नागरिकों के खाद्य और पोषण जरूरतों की सुरक्षा के मद्देनजर भी ऐसा करना जरूरी है। तकनीकी तौर पर सरकार ने 25 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का एलान कर रखा है, लेकिन सिर्फ धान और गेहूं की ही खरीद की जाती है। इस वजह से देश में विभिन्न कृषि उत्पादों की पैदावार में असमानता पैदा हो जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि गेहूं और चावल की खेती को बाजार के नजरिए से सुरक्षित माना जाता है।
दाल का उत्पादन भी कृषि उत्पादों की पैदावार में असमानता का बड़ा उदाहरण है। भारत जैसे देश में, जहां बहुत सारे लोग शाकाहारी हैं, दाल प्रोटीन का अहम स्रोत है। मक्के और धान के उलट, दाल की संकर प्रजातियां पैदावार बढ़ाने के मामले में प्रभावशाली नहीं हैं। ऐसे में दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए और ज्यादा रिसर्च की जरूरत है। दाल की सप्लाई में 15 से 20 फीसदी की गिरावट होती है। इस अंतर को पैदावार बढ़ाकर या फिर ज्यादा जगह में फसल बोकर पाटा जा सकता है। इसके अलावा, अरहर दाल के विकल्प के तौर पर मटर दाल और राजमा का इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि, इस तरह के बदलाव के लिए किसानों के बर्ताव में भी बदलाव की जरूरत है। इसके लिए लगातार कैंपेन चलाना होगा। यहां तक कि दाल उगाने के लिए बीजों की उपलब्धता की भी समस्या भी रही है। बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सरकार को जल्द से जल्द दखल देनी होगी। देश के उत्तरी हिस्सों में दाल की खेती नीलगायों की वजह से भी तबाह होती है। भले ही सरकार ने उन्हें मारने की इजाजत दे रखी है, लेकिन इन जानवरों के नाम में धार्मिक पुट होने की वजह से किसान इन्हें मारने से डरते हैं।
गेहूं और चावल की लगातार बुआई की वजह से मिट्टी का उपजाऊपन घट रहा है। चूंकि दाल और तिलहन के बफर स्टॉक रखने की कोई सरकारी नीति नहीं है, इस वजह से कीमतें बढ़ने की हालत में सरकार इनका स्टॉक जारी करके कीमतों पर नियंत्रण भी नहीं रख पाती। दालों के बफर स्टॉक जुटाकर रखने से आम खरीददार के लिए दाल की कीमत कंट्रोल करने में मदद मिलेगी। दालें आम तौर पर ज्यादा बारिश वाले इलाकों में बोई जाती हैं। ऐसे में सिंचाई सुविधाओं में निवेश बढ़ाकर भी इसके उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
किसानों को उनकी फसल से मुनाफा हो, यह एक ऐसा बड़ा सवाल है जिसे हल किया जाना जरूरी है। खेती में बढ़ती लागत की वजह से इसकी ओर आकर्षण घट रहा है। हालांकि, किसान अब भी बहुत ज्यादा खेती इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। इस हालात का हल निकाला जाना जरूरी है। देश और नागरिकों के हित में किसानी को एक आकर्षक पेशा बनाना होगा। सरकार कोलागतसे जुड़ी सभी सब्सिडी सीधे किसानों को देना होगा। पैदावार बेहतर करने और उपलब्धता बढ़ाने के दावे तब तक खोखले हैं, जब तक हम किसानों को केंद्र में रखकर सोचना शुरू नहीं करते।
(लेखक आईएएस अफसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)