हम एक व्यक्तिपूजक देश हैं। धर्म, राजनीति, कला, हर क्षेत्र में हमने अपने-अपने व्यक्ति-रूपक रच डाले हैं। हम हमेशा खुद को विराट छवियों से घिरे रखना पसंद करते हैं। हमारे कैलेंडर पर लाल स्याही से अंकित वे तारीखें सभी का ध्यान खींचती हैं, जिन पर पर्व-त्योहार या किसी महापुरुष की जयंती या पुण्यतिथि अंकित होते हैं। ऐसा लगता है जैसे हमारे पास इसके लिए समय और संसाधनों की कोई कमी नहीं है।
ऐसा भी नहीं कि यह परिपाटी नई हो।
मिसाल के तौर पर राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों के लिए एक लंबे समय तक 31 अक्टूबर का मतलब सरदार पटेल की जयंती था। महात्मा गांधी से लेकर उनके तमाम साथी इस तारीख पर उन्हें ‘विश" करना नहीं भूलते थे। लेकिन 1950 में उनकी मृत्यु के बाद इस तारीख का महत्व कम होता गया। 1984 के बाद से इस तारीख को इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि के तौर पर अधिक याद रखा जाता है। यही कहानी 14 नवंबर की भी है। लेकिन बात केवल 14 नवंबर तक ही सीमित नहीं।
आजादी के बाद देश में धड़ल्ले से गांधी और नेहरू की प्रतिमाएं स्थापित की गई थीं। अनगिनत सड़कों-चौराहों, इमारतों, संस्थानों का नामकरण इन दोनों हस्तियों के नाम पर किया गया। पता नहीं खुद गांधी और नेहरू इसे किस तरह से लेते, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उन्हें कल्ट, प्रतीकों, राजनीतिक प्रतिमाओं में सीमित कर दिया गया।
इसकी अति होने के बावजूद इसकी गति नहीं थमी, लेकिन कभी न कभी इस पर किंचित रोक तो लगना ही थी और वैसा जरूर हुआ। 1970 के दशक तक देश कांग्रेस में व्याप्त व्यक्तिपूजा की इस संस्कृति की सीमाएं महसूस करने लगा था। यह ठीक-ठीक कब हुआ, यह बता पाना तो खैर कठिन है, लेकिन वर्ष 1975 को इसकी धुरी जरूर माना जाना चाहिए, जब इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व पार्टी और सरकार के तमाम आयामों पर हावी हो गया था। गौरतलब है कि वह साल सरदार पटेल का जन्मशती वर्ष भी था, लेकिन ‘इंडिया इज इंदिरा" के शोरगुल में भला इसकी सुध किसे होती।
लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ? व्यक्तिपूजा से तो हम नहीं मुक्त हुए, हां व्यक्तित्वों को अवमूल्यित करने की एक परिपाटी जरूर शुरू हो गई। धीरे-धीरे भगत सिंह, नेताजी, आंबेडकर, पेरियार इत्यादि को भी उनके समर्थक-समूहों द्वारा इतना ही महत्व दिए जाने की चेष्टाएं की जाने लगीं। इस प्रक्रिया में ऐतिहासिक तथ्यों को भी नजरअंदाज किया गया, जोर इस पर था कि जिसका अभाव रहा आया है, उसकी भरपाई की जाए। लेकिन बात अब भरपाई तक ही सीमित नहीं रहकर प्रतिशोध की हद तक जा पहुंची है। इतिहास की भूलों को दुरुस्त करने के बजाय इतिहास को ही बदल देने की कोशिशें की जा रही हैं। यही कारण है कि आज जब हम पटेल का स्मरण करते हैं तो उनकी उपलब्धियों का पुनरावलोकन करने के लिए उतना नहीं, जितना कि नेहरू का कद कम करने के लिए ऐसा करते हैं। इसी तरह नेताजी, आंबेडकर, लाल बहादुर शास्त्री, पीवी नरसिम्हाराव और यहां तक कि जयप्रकाश नारायण तक का बड़े विचित्र तरीके से पुनराविष्कार करने की कोशिशें की जा रही हैं।
बहरहाल, इससे इस मूल समस्या का समाधान नहीं हो जाताकि ऐसा करने का मौका ही क्यों दिया गया? क्या इसके लिए कांग्रेस और उसकी चयनशील व्यक्तिपूजा ही जिम्मेदार नहीं है? क्योंकि यदि कांग्रेस द्वारा पटेल की उपेक्षा नहीं की जाती, तो क्या अन्य दलों को उन्हें प्रतीकस्वरूप हथियाने का अवसर मिलता? यही बात पटेल के साथ ही अन्य राष्ट्रनायकों के बारे में भी कही जा सकती है।
आज 14 नवंबर है और मुझे पूरा विश्वास है कि मौजूदा सरकार प्रथम प्रधानमंत्री के प्रति आदरांजलि अर्पित करने की औपचारिकता का निर्वाह करने से नहीं चूकेगी। इससे ज्यादा की अपेक्षा तो खैर नहीं की जानी चाहिए। लेकिन कांग्रेस के बारे में क्या? हाल ही में राजीव गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ कंपेरेटिव स्टडीज द्वारा नेहरू पर एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया। उसमें गंभीर चिंतकों-विद्वानों द्वारा नेहरू के अवदान का मूल्यांकन करने की कोशिशें की गईं, लेकिन पहले ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि वहां पर स्तुतिगान भी कम नहीं होने वाला है।
इससे बेहतर तो यह होगा कि 14 नवंबर के अवसर पर कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष कहें कि कांग्रेस केवल नेहरू-गांधी परिवार की बपौती नहीं है। कि यह पार्टी इस परिवार के उद्भव से पुरानी और उससे बड़ी है। कि भले ही यह परिवार पूरी एक सदी से इस पार्टी की सेवा कर रहा हो, लेकिन यह दोष भी उसी के सिर है कि उसके कारण पार्टी के अन्य कद्दावर नेताओं का उचित मूल्यांकन नहीं किया जा सका। कि बात केवल कांग्रेस तक ही सीमित नहीं, देश के पास ऐसे लोगों की भी कमी नहीं रही है, जो कांग्रेस के दायरे से बाहर होने के बावजूद हर लिहाज से एक राष्ट्रनायक की हैसियत रखते हैं। यदि वे ऐसा करते हैं तो यह कांग्रेस और देश की गहरी सेवा ही होगी। और अगर वे व्यक्तिपूजा की संस्कृति से ऊपर उठने की हिम्मत दिखाएंगे तो वे इतिहास की भी सेवा करेंगे। तब भाजपा भला कैसे सरदार पटेल व अन्य नेताओं का यह कहते हुए पुनर्मूल्यांकन करने की कोशिश कर सकती है कि प्रथम परिवार द्वारा उनकी उपेक्षा की गई है?
खबरें हैं कि केंद्र सरकार द्वारा डाक टिकटों पर से इंदिरा और राजीव गांधी की छवियां हटाने की कोशिश की जा रही है। अगर ऐसा होता है तो डाक टिकटों पर उनकी छवियां अंकित करना जितना अनुचित था, यह उससे भी अधिक निंदनीय कृत्य होगा। और कौन जानता है कि इसके बाद टिकटों की एक नई सीरीज भी जारी हो जाए, जिस पर किन्हीं दूसरे नायकों की छवियां अंकित हो? एक चेहरे के स्थान पर दूसरा चेहरा आ जाए?
भारतीय मुद्रा पर महात्मा गांधी की छवि अंकित रहती है। महात्मा के स्थान पर किसी और की छवि को वहां पर स्थापित करना तो खैर बेहद मुश्किल होगा, फिर भी इस तरह से महात्मा की छवि का शोषण किया ही क्यों जाए? क्यों ना वहां पर इसके स्थान पर हमारे पर्यावरण, वन्यजीवन और शिल्प से जुड़ी छवियां अंकित की जाएं। व्यक्तियों की छवियों को मुद्राओं पर अंकित करके पर्सनैलिटी कल्ट की प्रवृत्ति को क्यों बढ़ावा दिया जाए? राज्यसत्ता द्वारा अनेक चिह्नों, प्रतीकों, सीलों आदि का उपयोग किया जाता है और एक प्रतीक को बदलकर उसके स्थानपरदूसरे का उपयोग करने की प्रवृत्ति चलन में रही है। हम एक गणतांत्रिक देश हैं, कोई राजशाही नहीं। क्या एक गणतांत्रिक देश में ऐसी प्रवृत्तियां स्वागतयोग्य कही जा सकती हैं? डॉ. आंबेडकर ने हमें बहुत पहले चेता दिया था कि राजनीति में भक्ति और व्यक्ति-पूजा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह हमें अधिनायकवाद की ओर ले जाती है।
(लेखक पूर्व राज्यपाल, राजदूत व उच्चायुक्त हैं और संप्रति अशोका यूनिवर्सिटी में इतिहास और राजनीति विज्ञान के विशिष्ट प्राध्यापक हैं)