पिछले ग्यारह हजार तीन सौ सालों की तुलना में आज पृथ्वी सबसे गर्म है। उत्तरी ध्रुव के आर्कटिक सागर में इस बार 1970 के बाद सबसे कम बर्फ जमी है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से बाहर दुनिया का सबसे बड़ा बर्फ भंडार, तिब्बत में ही है। इसी नाते तिब्बत को ‘दुनिया की छत’ कहा जाता है। इस नाते आप तिब्बत को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कह सकते हैं। यह तीसरा धु्रव, पिछले पांच दशक में डेढ़ डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की नई चुनौती के सामने विचार की मुद्रा में है। नतीजे में इस तीसरे धु्रव ने अपना अस्सी प्रतिशत बर्फ भंडार खो दिया है। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा चिंतित हैं कि 2050 तक तिब्बत के ग्लेशियर नहीं बचेंगे। नदियां सूखेंगी और बिजली-पानी का संकट बढ़ेगा। तिब्बत का क्या होगा? वैज्ञानिकों की चिंता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार जितनी तेज होगी, हवा में उत्सर्जित कार्बन का भंडार उतनी ही तेज रफ्तार से बढ़ता जाएगा। जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के लिहाज से यह सिर्फ तीसरे धु्रव नहीं, पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की तैयारी बैठकों को लेकर आ रही रिपोर्टें बता रही हैं कि मौसमी आग और जलवायु पर उसके दुष्प्रभावों को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। इसे कम करने के लिए तैयारी बैठकें लगातार चल रही हैं। ऐसी ही एक बैठक में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की प्रमुख क्रिस्टीन लोगान ने कहा कि अगर जलवायु परिवर्तन पर एहतियाती कदम तत्काल न उठाए गए, तो दुनिया की हालत पेरूके उस प्रसिद्ध चिकन की तरह होने वाली है, जिसका लुत्फ उनके बयान संबंधी सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों ने उठाया। सच पूछिए, तो अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा खासकर गरीब देशों में जिस तरह की परियोजनाओं को धन मुहैया कराया जा रहा है, यदि कार्बन उत्सर्जन कम करने में उनके योगदान का आकलन किया जाए, तो मालूम हो जाएगा कि उसकी चिंता कितनी जुबानी है और कितनी जमीनी। यों तिब्बत को अपना कहने वाला चीन भी बढ़ती मौसमी आग और बदलते मौसम से चिंतित है, पर क्या वाकई? तिब्बत को परमाणु कचराघर और पनबिजली परियोजनाओं का घर बनाने की खबरों से तो यह नहीं लगता कि चीन को तिब्बत या तिब्बत के बहाने खुद के या दुनिया के पर्यावरण की कोई चिंता है। भारत ने भी कार्बन उत्सर्जन में तीस से पैंतीस फीसद तक स्वैच्छिक कटौती की घोषणा की है। इसके लिए गांधी जयंती का दिन चुना गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जीवन शैली में बेहतर बदलाव के लिए चेतना पैदा करने से लेकर स्वच्छ ऊर्जा और वन विकास के सुझाव पेश किए हैं। निस्संदेह, इसकी प्रशंसा होनी चाहिए; मगर क्या इन घोषणााओं पर आगे बढ़ने के रास्ते सुगम बनाने की वाकई कोई हमारी सोच है? उपभोग बढ़ेगा और छोटी पूंजी का व्यापार गिरेगा। गौर कीजिए कि इस डर से पहले हम में से कई मॉल संस्कृति से डरे, तो अधिकतर ने इसे गले लगाया; गर्व से कहा कि यह उत्तर बिहार का पहला मॉल है। अब डराने के लिए नया ई-बाजार है। यह ई-बाजार जल्द ही हमारे खुदरा व्यापार को जोर से हिलाएगा, कोरियर सेवा औरपैकिंग उद्योग और पैकिंग कचरे को बढ़ाएगा। ई-बाजार अभी बड़े शहरों का बाजार है, जल्द ही छोटे शहर-कस्बे और गांव में भी जाएगा। तनख्वाह के बजाय, पैकेज कमाने वाले हाथों का सारा जोर नए-नए तकनीकी घरेलू सामान और उपभोग पर केंद्रित होने को तैयार है। जो छूट पर मिले… खरीद लेने की भारतीय उपभोक्ता की आदत, घर में अतिरिक्त उपभोग और सामान की भीड़ बढ़ाएगी और जाहिर है कि बाद में कचरा। सोचिए! क्या हमारी नई जीवन शैली के कारण पेट्रोल, गैस और बिजली की खपत बढ़ी नहीं है? जब हमारे जीवन के सारे रास्ते बाजार ही तय करेगा, तो उपभोग बढ़ेगा ही। उपभोग बढ़ाने वाले रास्ते पर चल कर क्या हम कार्बन उत्सर्जन घटा सकते हैं? हमारी सरकारें पवन और सौर ऊर्जा के बजाय, पनबिजली और परमाणु बिजली संयंत्रों की वकालत करने वालों के चक्कर में फंसती जा रही हैं। वे इसे ‘क्लीन एनर्जी-ग्रीन एनर्जी’ के रूप में प्रोत्साहित कर रहे हैं। हमें यह भी सोचने की फुरसत नहीं कि बायो-डीजल उत्पादन का विचार, भारत की आबोहवा, मिट््टी व किसानी के कितना अनुकूल है और कितना प्रतिकूल? हकीकत यह है कि अभी भारत स्वच्छ ऊर्जा की असल परिभाषा पर ठीक से गौर भी नहीं कर पाया है। हमें समझने की जरूरत है कि स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बन डाइऑक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकलें। इन दो मानदंडों को सामने रख कर सही आकलन संभव है। पर हमारी अधिकतम निर्भरता अब भी कोयले पर ही है। ठीक है कि पानी, परमाणु और कोयले की तुलना में सूरज, हवा, पानी और ज्वालामुखियों में मौजूद ऊर्जा को बिजली में तब्दील करने में कुछ कम पानी चाहिए, पर पनबिजली और उसके भारतीय कुप्रबंधन की अपनी अन्य सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियां हैं। ऐसे में सौर और पवन ऊर्जा के प्रोत्साहन के लिए हमने क्या किया। कुछ नहीं, तो उपकरणों की लागत कम करने की दिशा में शोध तथा तकनीकी और अर्थिक मदद तो संभव थी। समाज की जेब तक इनकी पहुंच बनाने का काम तो करना ही चाहिए था। अलग मंत्रालय बना कर भी हम कितना कर पाए? सब जानते हैं कि ज्वालामुखियों से भू-ऊर्जा का विकल्प तेजी से बढ़ते मौसमी तापमान को कम करने में अंतत: मददगार ही होने वाला है। भारत के द्वीप-समूहों में धरती के भीतर ज्वालामुखी के कितने ही स्रोत हैं। जानकारी होने के बावजूद हमने इस दिशा में क्या किया? हम इसके लिए पैसे का रोना रोते हैं। हमारे यहां कितने फुटपाथों का फर्श बदलने के लिए कुछ समय बाद जान-बूझ कर पत्थर और टाइल्स को तोड़ दिया जाता है। क्या दिल्ली के मोहल्लों में ठीक-ठाक सीमेंट-सड़कों को तोड़ कर फिर वैसा ही मसाला दोबारा चढ़ा दिया जाना फिजूलखर्ची नहीं है। ऐसे जाने कितने मदों में पैसे की बरबादी है। क्यों नहीं पैसे की इस बरबादी को रोक कर, सही जगह लगाने की व्यवस्था बनती; ताकि लोग उचित विकल्प को अपनाने को प्रोत्साहित हों। जरूरी है कि हम तय करें कि अब किन कॉलोनियों को सार्वजनिक भौतिक विकास मद में सिर्फ रखरखाव की मामूली राशि ही देने की जरूरत है।उक्ततथ्य तो विचार का एक क्षेत्र विशेष मात्र हैं। जलवायु परिवर्तन के मसले को लेकर दुनिया का कोई भी देश अथवा समुदाय यदि वाकई गंभीर है, तो उसे एक बात अच्छी तरह दिमाग में बैठा लेनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन, सिर्फ मौसम या पर्यावरण विज्ञान के विचार का विषय नहीं है। मौसम को नकारात्मक बदलाव के लिए मजबूर करने में हमारे उद्योग, अर्थनीति, राजनीति, तकनीक, कुप्रबंधन, लालच, बदलते सामाजिक ताने-बाने, सर्वोदय की जगह व्यक्तियोदय की मानसिकता, और जीवनशैली से लेकर भ्रष्टाचार तक का योगदान है। इसके दुष्प्रभाव भी हमारे उद्योग, पानी, फसल, जेब, जैव विविधता, सेहत, और सामाजिक सामंजस्य को झेलने पड़ेंगे। हम झेल भी रहे हैं, लेकिन सीख नहीं रहे। यह जलवायु परिवर्तन और उसकी चेतावनी के अनुसार स्वयं को न बदलने का नतीजा है कि आज तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में नकदी फसलों को लेकर मौत पसरी है। नए राज्य के रूप में तेलंगाना ने 1,269 आत्महत्याओं का आंकड़ा पार कर लिया है। सूखे के कारण आर्थिक नुकसान बेइंतहा हैं। पिछले तीन सप्ताह के दौरान आंध्र के अकेले अनंतपुर के हिस्से में बाईस किसानों ने आत्महत्या की। जिन सिंचाई और उन्नत बीज आधारित योजनाओं के कारण, ओड़िशा का नबरंगपुर कभी मक्का के अंतरराष्ट्रीय बीज बिक्री का केंद्र बना, आज वही गिरावट के दौर में है। भारत का कपास दुनिया में मशहूर है। फिर भी कपास-किसानों की मौत के किस्से आम हैं। कभी भारत का अनाज का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब का हाल किसी से छिपा नहीं है। इसने पहली हरित क्रांति के दूरगामी असर की पोल खोल दी है। इसकी एक के बाद, दूसरी फसल पिट रही है। बासमती, बढ़िया चावल है; फिर भी पंजाब के परमल चावल की तुलना में, बासमती की मांग कम है। इधर पूरे भारत में दालों की पैदावार घट रही है। महंगाई पर रार बढ़ रही है। यह रार और बढेÞगी; क्योंकि मौसम बदल रहा है। उन्नत बीज, कीटों का प्रहार झेलने में नाकाम साबित हो रहे हैं और देसी बीजों को बचाने की कोई जद््दोजहद सामने आ नहीं रही। यह तटस्थता कल को औद्योगिक उत्पादन भी गिराएगी। नतीजा? स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का यह दौर, मानव सभ्यता में छीना-झपटी और वैमनस्य का नया दौर लाने वाला साबित होगा। जलवायु परिवर्तन के इस दौर को हमें प्रकृति द्वारा मानव कृत्यों के नियमन के कदम के तौर पर लेना चहिए। हम नमामि गंगा में योगदान दें, न दें; हम एकादश के आत्म नियमन सिद्धांतों को मानें, न मानें; पर यह कभी न भूलें कि प्रकृति अपने सिद्धांतों को मानती भी है और दुनिया के हर जीव से उनका नियमन कराने की क्षमता भी रखती है। जिन जीवों को यह जलवायु परिवर्तन मुफीद होगा, उनकी जीवन क्षमता बढ़ेगी। कई विषाणुओं द्वारा कई तरह के रसायनों और परिस्थितियों के बरक्स प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेने के कारण, डेंगू जैसी बीमारियां एक नई महामारी बन कर उभरेंगी। आइए, मोहनदास करमचंद गांधी नामक उस महान दूरदर्शी की इस पंक्ति को बार-बार दोहराएं- ‘पृथ्वी हरेक की जरूरत पूरी कर सकती है, लालच एक व्यक्ति का भी नहीं।’ (अरुण तिवारी)
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