गुजरात में हार्दिक पटेल का अचानक उदय कई मायनों में आश्चर्यजनक था. इसके आकलन के लिए कई सिद्धांत लगाये जा रहे हैं. अन्य राज्यों में भी अगर इस आंदोलन की प्रतिध्वनि उभर कर आती है, तो यह कुछ नये राजकीय समीकरणों की शुरुआत हो सकती है. अगर ऐसा न होकर यह बात गुजरात तक ही सीमित रहती है, तो भी इसके परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर दिखेंगे.
औद्योगीकरण में अगड़े राज्यों में से महाराष्ट्र में इस प्रकार के जातिगत नेतृत्व का उदय होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. यहां भी मराठा आरक्षण की मांग को लेकर खबरें आती रही हैं. गुजरात के पटेलों की तरह मराठा जातिसमूह भी आबादी के अनुपात से ज्यादा हिस्सेदारी सत्ता में पाता रहा है और पटेलों की तरह ही जमींदार रहा है.
पर यह समानता यहीं खत्म होती है. सरदार सरोवर से मिली समृद्धि और कृषि के अलावा उद्योगों में उपक्रमशीलता के मामले में मराठा जातिसमूह पटेलों से काफी पिछड़ा है. हार्दिक पटेल का उदय नरेंद्र मोदी के ‘वाइब्रांट गुजरात’ में होना हैरान करनेवाली बात है. क्या हमें गुजरात के विकास के दावों को जांचना चाहिए?
रघुराम राजन आज विश्व के एक श्रेष्ठ अर्थशास्त्री हैं. वे जब केंद्र सरकार में भारत के आर्थिक सलाहकार के पद पर थे, तब उनके नेतृत्व में एक पांच सदस्यों के पैनल की नियुक्ति की गयी थी.
इस पैनल को राज्यों को केंद्र द्वारा होनेवाले संसाधन के वितरण की व्यवस्था के सूत्र सुझाने का निर्देश दिया गया था. इस पैनल द्वारा सुझाये गये सूत्र कम-से-कम दो मुद्दों पर नयी सोच लाते हैं. 10 इकोनॉमिक गाइडलाइंस पर आधारित एक साझा निर्देशांक बनाया गया था और कहा गया था कि जो राज्य तेज गति से विकास कर रहा हो, उसे ज्यादा संसाधन दिये जायें.
इस निर्देशांक में राज्यों की तुलना समान मापदंड पर होती है और एक ही राज्य के कालबद्ध विकास की समीक्षा भी संभव है. इस पैनल के अभ्यास का कालखंड नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री पद के कालखंड से मेल खाता है. इस रिपोर्ट के निर्देशांक जिन आंकड़ों पर आधारित हैं, वे राज्य सरकारों ने प्रकाशित किये हैं. ये आंकड़े हमारे सामने आश्चर्यजनक तथ्य लाते हैं.
कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र के आर्थिक वृद्धि दर को देखें, तो गुजरात का क्रम देश के 28 राज्यों मे क्रमश: पांचवां, चौथा और चौथा रहा. यह क्रम पहला या दूसरा नहीं है, जैसाकि आम तौर पर प्रचार किया जाता है. प्रचार के अनुरूप न सही, फिर भी यह उपलब्धि सराहनीय है.
लेकिन, जब हम कुल विकास के निर्देशांक देखें, तो गुजरात का अनुक्रम 28 राज्यों के बीचोबीच आता है और गुजरात को कम विकसित राज्य का दर्जा हासिल होता है. इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि आम तौर पर किये जानेवाले प्रचार के विपरीत, मोदी के कार्यकाल में गुजरात प्रत्यक्ष रूप में पिछड़ता गया है, जबकि अन्य राज्य आगे निकलते गये हैं.
पेयजल की आपूर्ति में 2001 में जो गुजरात पांचवें स्थान पर था, 2011 तक वहीं अटका रहा. बिजली के उपयोग में यह क्रम छठे स्थान से पिछड़ कर 10वें पर जा पहुंचा. स्वच्छता अभियान की पृष्ठभूमि में देखें, तो घर मेंशौचालय उपलब्ध होने के मामले में गुजरात 14 से 16वें नंबर तक पिछड़ा, दूरसंचार के उपयोग में 10वें स्थान से 14वें स्थान तक गिरावट आयी. गरीबी उन्मूलन और महिला साक्षरता में गुजरात 14वें और 15वें स्थान पर ही रहा.
बालमृत्यु की दर में 19वें स्थान से 17वें स्थान तक मामूली सुधार ही हुआ. इन सबसे भी बड़ी असफलता गुजरात ने शिक्षा के क्षेत्र में दर्ज करायी. स्कूलों में उपस्थिति और प्राथमिक शिक्षा की प्रति हजार आपूर्ति में गुजरात सबसे पिछड़े छह राज्यों में आता है. शिक्षा क्षेत्र में असफलता के राजन पैनल के आंकड़े और शिक्षा की गुणवत्ता के ‘असर’ रिपोर्ट के आंकड़े भी मेल खाते हैं.
अब हार्दिक पटेल का इन सब आंकड़ों से क्या ताल्लुक है? क्या अविकसित गुजरात में पटेल अन्य समूहों से आगे नहीं हैं? क्या इसका अर्थ यह लिया जाये कि गुजरात का तथाकथित विकास कुछ गिनेचुने पूंजीपतियों के क्लब में सिमट कर रह गया? और उद्यमी पटेल अवसरों से वंचित रह गये? यह रिपोर्ट जब सार्वजनिक हुई, मोदी की लहर देशभर में जोर पकड़ चुकी थी.
गुजरात के विकास के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे और यूपीए सरकार की साख मिट चुकी थी. ऐसे महौल में इस रिपोर्ट की तरफ किसी ने शायद देखा भी नहीं. पर अब जब मोदी की चमक फीकी पड़ने लगी है, तब वे सवाल अब फिर उठ खड़े हो रहे हैं.
आखिर क्यों ‘विकसित’ गुजरात के विकसित पटेलों को हार्दिक पटेल का नेतृत्व खड़ा करने की जरूरत आन पड़ी? अगर हम विकास और आर्थिक वृद्धि दर के रिश्ते को बेहतर तरीके से समझना चाहें, तो रघुराम राजन पैनल को नजरअंदाज नहीं कर सकते.