तेलंगाना के महबूबनगर ज़िले के गांव गुरुराव लिंगमपल्ली में मेरी मुलाक़ात अंजम्मा से हुई.
वो एक किसान की बेवा हैं. अंजम्मा के हाथ में 30 हज़ार रुपए के क़र्ज़ का पर्चा था, जिसे देख-देखकर उनका मन रोने को हो आता.
शायद इस गांव में उनके आंसुओं के पीछे मौजूद दर्द समझने वाला कोई नहीं. आख़िर ये लिंगमपल्ली में किसी किसान की पहली मौत जो है.
हालांकि लिंगमपल्ली में सूखा और क़र्ज़ सभी किसानों की हक़ीक़त है.
किसी नेशनल पार्क में अगर शेर मरता है तो एक आंकड़ा बनता है, घोषणा की जाती है कि अब इतने ही बचे हैं, और बचे हुओं को बचाने के लिए देश के महान अभिनेता जुटते हैं.
अपील होती हैं, टीवी पर संवेदना संदेश प्रसारित होते हैं, राजधानी के पर्यावरणविद सक्रिय होते हैं, अरबों का सेव टाइगर अभियान फिर शुरू हो जाता है.
लेकिन किसी खेत में किसान कीड़े मारने वाली दवा खाता है तो पड़ोसी खेत के किसान को ही पता चलता है. उसकी पत्नी को बेवा का दर्जा मिलता है.
गांव से बाहर किसी को कानोकान ख़बर नहीं होती, नहीं की जाती. रात होते ही विधवा टूटे घर के अँधेरे कोनों में जाकर रोती है.
लाश को देखने सरपंच आता है और कहता है कि बड़ा बुज़दिल था.
किसे हमदर्दी?
महबूबनगर के मागानूर मंडल के इस गांव में आकर मुझे लगा कि 15 दिन पहले ज़हर पीकर मरे एलप्पा की ख़ुदकुशी से बाक़ी गांव को कोई ख़ास हमदर्दी नहीं सिवाय उनके दोस्त महादेव को छोड़कर.
किसान की बर्बाद फ़सल
सूखे ने सिर्फ़ फ़सलें ही नहीं ज़िंदग़ियां भी उजाड़ दी हैं.
तीन बेटों और एक लड़की की मां अंजम्मा का परिवार कभी खुद काश्तकार था. अब वो ख़ुद काश्तकार से मज़दूर में बदल चुके हैं.
उन्होंने बताया, "बुखार से पड़ा था, हमको कुछ नहीं बताया कि ऐसा-वैसा कुछ किया है. दवा पी लिया कीड़े मारने की. 11 सितंबर को दवा पी, 10 दिन अस्पताल में रहा. मगर कोई फायदा नहीं हुआ."
अंजम्मा का एक लड़का और लड़की शादीशुदा हैं. दो बेटे हैदराबाद में एक मार्केट और चाय की दुकान पर काम करके जो कमाते हैं, अपनी मां को सौंप देते हैं.
मगर वो इतना नहीं कि घर का खर्च चल सके. गांव में मांगने से भी कोई कुछ खाने को देने को तैयार नहीं.
अंजम्मा कहती हैं, "जमीन तो पूरी खराब हो गई है. माल मसाला नहीं है. पैसे कौन देता. गांव में कोई नहीं देता. कापुस (कपास) पूरा खराब हो गया. धान भी पूरा सूख गया."
एलप्पा के सबसे अच्छे दोस्त महादेव का कहना था कि उनके दोस्त की जान सूखे के बाद लिए गए क़र्ज़ से गई है.
वो बताते हैं, "एक लाख 70 हज़ार रुपए क़र्ज़ लिया था, 50 हज़ार खाद के लिए और 50 हज़ार रायचूर ज़िले में एक मार्केट यार्ड के लिए लिया. नहीं चुका पाया. कैसे चुकाता. खेत में गया, कपास और चावल पूरी तरह ख़त्म हो चुका था. इसके बाद वहीं खेत में ज़हर खा लिया."
आख़िर कब तक?
सरकारी क़ायदा है कि किसी किसान की ख़ुदकुशी की हालत में कृषि अधिकारी और मंडल राजस्व अधिकारी को आकर किसान के परिवार से मिलनाऔर उनसे पूरी घटना की जानकारी लेनी होती है.
मगर एलप्पा की ख़ुदकुशी के बाद केवल एक पुलिसकर्मी आया. केस दर्ज हो गया लेकिन इसके बाद किसी भी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी ने झांकने की ज़रूरत नहीं समझी.
हो सकता है कि किसान अभी उतने नहीं मरे हैं कि शेरों की तरह उनके लिए अभिनेता अपीलें करें या इसे टीवी पर दिखाकर लोगों को जागरूक किया जाए.
हो सकता है कि शेरों की तरह उनके विलुप्त होने में अभी काफ़ी वक़्त है. या हो सकता है कि शेरों की तरह वो खाद्य शृंखला में कहीं फ़िट नहीं बैठते कि उनके होने से कोई फ़र्क पड़ता हो.