फिल्म ‘पीपली लाइव’ का एक गीत काफी लोकप्रिय हुआ था। इस गीत के माध्यम से एक प्रमुख सामाजिक-आर्थिक समस्या महंगाई की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है। गीत के बोल हैं- ‘सइयां तो बहुत कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है।’ यानी रात-दिन काम करने के बावजूद कमाई की अपेक्षा महंगाई कई गुना अधिक बढ़ती जा रही है। इसलिए घर में जो जरूरी पदार्थ आने चाहिए, वे नहीं आ पाते। जैसा कि आप जानते हैं हिंदू धर्मग्रंथों में ‘डायन’ का जिक्र आता है जो शांतिप्रिय लोगों के घर की सुख-शांति उजाड़ती है। पर वह यह काम अकेले नहीं करती, बल्कि अपने स्वामी के आदेश से करती है। सुरसा जैसी डायन ने रावण जैसे अहंकारी राजा की सेवा की तो पूतना ने कंस जैसे अत्याचारी शासक की। यह महंगाई डायन भाजपा और कांग्रेस क्या सभी पार्टियों की सेवा में जुटी है। जब कांग्रेस सत्ता में थी तो भाजपा उसे महंगाई के लिए कोसती थी। लोकसभा चुनाव में भाजपा का नारा था, ‘बहुत हुई महंगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार।’ और अब कांग्रेस कहती है, ‘पुराने दिन ही अच्छे थे।’ इसलिए सिर्फ महंगाई को कोसने से काम नहीं चलेगा, बल्कि महंगाई के माध्यम से जनता का शोषण करने वाले ‘दानव’ को भी खोज कर उसकी नाभि में वार करना होगा, तब जाकर हम महंगाई जैसी ‘डायन’ के चंगुल से निकल पाएंगे। सर्वप्रथम, प्रश्न यह है कि क्या महंगाई का प्रभाव समस्त समाज पर समान रूप से पड़ता है? हरगिज नहीं। समाज में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जिनकी आय का स्रोत उनकी मजदूरी है, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। दूसरी तरफ, वे जिनकी आय का स्रोत संपत्ति होती है। यानी ये लोग ब्याज, किराया और लाभ के रूप में अधिशेष अर्जित करते हैं। समाज के प्रथम वर्ग में आने वाले लोगों में भी दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का है जिसकी आय पूर्णत: जड़ता की स्थिति में है। दूसरी तरफ, सरकारी बाबू-कर्मचारी हैं जिनकी आय महंगाई के हिसाब से कुछ बढ़ जाती है। महंगाई हमेशा संपत्तिधारी वर्ग के पक्ष में होती है, क्योंकि महंगाई के दौर में उसकी संपत्ति की कीमतें बढ़ती हैं। फलस्वरूप उसका लाभ भी तेजी से बढ़ता है। अगर महंगाई की दर पांच प्रतिशत से कम हो जाए तो ये लोग उसे मंदी कह कर हाय-तौबा मचाते हैं। सीमित आय वाले लोग, चाहे वे असंगठित क्षेत्र के मजदूर हों या किसान, उनकी आय में होने वाले परिवर्तन की अपेक्षा महंगाई में होने वाला परिवर्तन कहीं अधिक होता है। इस वर्ग के लोग अपनी आय का अधिकतम हिस्सा, चालीस से साठ प्रतिशत खाद्य पदार्थों पर खर्च कर देते हैं। इसलिए महंगाई, खासकर खाद्य पदार्थों की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी का प्रत्यक्ष प्रभाव इसी वर्ग पर देखने को मिलता है, जबकि संपत्तिवान उच्च वर्ग महंगाई के फलस्वरूप रातोंरात मालामाल हो जाता है। क्या आपने कभी सोचा है कि बाजार से जो महंगी सब्जियां आप खरीद कर लाते हैं, उसका फायदा उसके फुटकर विक्रेता या किसान को मिल पाता है? आपको जानकर शायद आश्चर्यहो कि फुटकर विके्रता जो मात्र कमीशन एजेंट होता है, और किसान जो औने-पौने दामों पर अपनी उपज को बेचने को मजबूर होता है ताकि अपने खर्च निकाल सके उसे तो इस महंगाई में कुछ मिलता ही नहीं है। उदाहरण के लिए, जो अरहर की दाल आप डेढ़ सौ से दो सौ रुपए प्रतिकिलो के भाव से खरीदते हैं, वह किसान से महज तीस से पचास रुपए प्रति किलो में खरीदी जाती है। यानी डेढ़ सौ-दो सौ रुपए प्रति किलो का अधिशेष। आखिर यह अधिशेष जाता कहां है? यह जाता है देशी-विदेशी सट्टेबाजों की जेब में। क्या आपको लगता है कि जो प्याज आप साठ से अस्सी रुपए प्रति किलो के भाव से खरीदते हैं उसका कितना अंश उसे पैदा करने वाले किसानों, उसको ढोने वाले ट्रक-ड्राइवरों और मजदूरों को मिलता होगा? अधिकांश हिस्सा जाता है इन खाद्य पदार्थों पर कुंडली मार कर बैठ जाने वाले सट्टेबाजों-जमाखोरों की जेब में।ट सट्टेबाजी को अब सरकार ने फ्यूचर ट्रेडिंग यानी वायदा कारोबार का कानूनी जामा पहना दिया है। इस धंधे में देशी-विदेशी पूंजीपति समान रूप से प्रतिभागी हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां प्राथमिक बाजार (खेतों) से औने-पौने दाम पर पैदावार की खरीद करती हैं और सट्टेबाजी करके इनकी कीमतें बढ़ाती हैं। हमारी सरकार को चलाने वाले नौकरशाह और राजनेता जानबूझ कर एक तो खाद्य पदार्थों की सरकारी खरीद कम करते हैं, दूसरी तरफ सरकारी गोदामों में पड़े-पड़े अनाज को सड़ने देते हैं। उन्हें शराब बनाने वाली कंपनियों को औने-पौने दामों पर बेच दिया जाता है। कई बार ऐसा भी देखने में आया है कि जब खाद्य पदार्थों की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में कम थीं तब उनका निर्यात किया गया, और कीमतें चढ़ गर्इं तो फिर उनका आयात किया गया। सरकारें महंगाई से अपना पल्ला झाड़ने के लिए बढ़ती जनसंख्या और जनता की बढ़ती क्रयशक्तिपर ठीकरा फोड़ने का प्रयास करती हैं। पर यह कारण कभी भी तात्कालिक नहीं हो सकता, क्योंकि उत्पादन के मुकाबले न तो जनसंख्या रातोंरात पचास प्रतिशत बढ़ सकती है न ही लोगों की क्रयशक्ति। महंगाई बढ़ने का एक दूसरा कारण कृषि क्षेत्र में उत्पादन में होने वाली कमी है। पर बढ़ी हुई कीमतों का एक मामूली अंश ही किसानों को मिलता है। अगर अधिकांश लाभ उनके हिस्से आता तो शायद वे आत्महत्या करने को विवश न होते। नई आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद से सकल राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी तेजी से कम हुई है। यही नहीं, सकल विकास दर बढ़ने के बावजूद रोजगार में वृद्धि कम ही हुई है। इसका अर्थ है कि जीडीपी बढ़ने पर रोजगार के अवसरों में भी वैसी बढ़ोतरी की जो दलील दी जाती थी, वह सही साबित नहीं हुई। हमारे देश की पचपन प्रतिशत आबादी अब भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों और औद्योगिक क्षेत्र तथा सेवा क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की आय महंगाई के अनुपात में बढ़ने की संभावना नगण्य है। इसलिए महंगाई बढ़ने के पीछे लोगों की क्रयशक्ति बढ़ने का तर्क देना असल में दूर की कौड़ी खोज कर लाना है। मूल कारण तो यह है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था पर भूमंडलीकरणकादबाव बढ़ता गया, खेतों में खाद्य पदार्थों को उगाने के स्थान पर गैर-खाद्य पदार्थ उगाने पर बल दिया जाने लगा, जैसे बायो-तेल बनाने वाले जिंस आदि। सरकार ने कृषि क्षेत्र की मूलभूत आवश्यकताओं की तरफ ध्यान देना तो बंद ही कर दिया। और करे भी क्यों न? सरकार का अधोसंरचना-निवेश उन क्षेत्रों में अधिक हुआ जो आधुनिक भूमंडलीकृत पूंजीवाद की जरूरत के अनुरूप हैं। सरकार का यह भरसक प्रयास रहा है कि हमारे किसान बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दिशा-निर्देशों के अनुरूप उत्पादन करें। यानी वे खाद्य पदार्थों के बजाय बायो फ्यूल और ऐसी ही अन्य चीजों का उत्पादन करें, जैसे अंग्रेजों के जमाने में किसानों को नील की खेती करनी पड़ी थी। इसलिए महंगाई और कुछ नहीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ही ‘डायन’ है जिसे व्यवस्था का समर्थन प्राप्त है। और हो भी क्यों नहीं, शासक वर्ग और नौकरशाह दोनों का व्यक्तिगत हित इसमें है। हां, पीड़ित है तो देश की अस्सी प्रतिशत आबादी है, जिसकी आमदनी सीमित है और जिसकी आय में जड़ता है। लोगों की खरीदने की क्षमता महंगाई बढ़ने के साथ ही कम होती गई है और भोजन की थाली से पोषक तत्त्व गायब हो गए हैं। बीमारी की अवस्था में इलाज कराने की क्षमता खत्म हो गई है। समाज के गरीब वर्ग को, कोई भी दल या गठबंधन सत्ता में रहे, कोई राहत नहीं मिलती। विरोधी दल महंगाई के मुद्दा पर बंद कराएं या संसद में हंगामा करें, गरीबी दूर करने का प्रयास नहीं कर सकते। महंगाई के वास्तविक कारणों पर प्रहार नहीं कर सकते। सत्ताधारी मौद्रिक और राजकोषीय उपायों को अपनाने का दिखावा ही कर सकते हैं। लिहाजा, महंगाई पर राजनीतिक रस्साकशी तो चलती रहती है और यह चुनावी मुद््दा भी बन जाता है, मगर इससे निपटने की कोई नीति नहीं बन पाती। इस स्थिति की मूल वजह यही है कि महंगाई के पीछे जो निहित स्वार्थ हैं उनसे कोई भी राजनीतिक दल टकराना तो दूर, चिह्नित भी नहीं करना चाहता। महंगाई विषमता बढ़ने की परिचायक भी है और इसका माध्यम भी। संगठित वर्ग के लोगों की आय में इजाफा होता रहता है, उनके वेतन-भत्ते बढ़ते रहते हैं। व्यापारी कीमतों के चढ़ने से पहले की तुलना में और अधिक लाभ की स्थिति में आ जाते हैं, क्योंकि कीमतें बढ़ने की लहर आती है तो दाम तर्कसंगत रूप से नहीं अंधाधुंध चढ़ते हैं। भले किसी वस्तु की कमी उसका दाम चढ़ने की मूल वजह हो, पर कीमत-वृद्धि अभाव के अनुपात में नहीं होती, वह काफी हद तक बाजार का खेल बन जाती है। उत्पादक को मिलने वाली कीमत और बाजार की कीमत में जमीन-आसमान का अंतर होना इसी बात को साबित करता है। फिर, थोक और खुदरा कीमतों के बीच भी काफी अंतर होता है, जिसे तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता। लिहाजा, महंगाई से तभी निपटा जा सकता है जब उत्पादक से लेकर उपभोक्ता तक, सभी स्तरों पर एक सुसंगत मूल्य नीति लागू हो। अश्वनी कुमार ‘शुकरात’
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