भूकंप से पर्यावरण को भी जोड़कर देखें– अनिल प्रकाश जोशी

इतने कम अंतराल में दक्षिण एशिया में आए दो बड़े भूकंप से हमें कुछ तो सीखना ही होगा। पहले नेपाल में और अब अफगानिस्तान में आया भूकंप यह संकेत है कि हमें नए सिरे से पर्यावरण को समझना होगा। पर्यावरण और भूकंप दो अलग-अलग विषय हो सकते हैं, पर भूकंप की वजह से होने वाले नुकसान से पता चलता है कि पर्यावरण के प्रति हमारा व्यवहार कैसा हो गया है।

पृथ्वी के गर्भ पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है, जहां से भूकंपीय ऊर्जा सतह पर पहुंचकर विभिन्न रूप से हमें प्रभावित करती है। पृथ्वी के अंदर होने वाली हलचल न तो पता चल पाती है और न ही उसकी पूर्वसूचना की कोई व्यवस्था हमारे पास है। पुराने भूकंपीय अनुभवों और अध्ययन के आधार पर यह जरूर कहा जा सकता है कि भूकंपों की पुनरावृत्ति होगी और यह भी संभव है कि इसकी तीव्रता भी अधिक हो। भूकंपीय क्षेत्रों को उनकी संवेदनशीलता के अनुसार पांच जोन में रखा गया है। जो ज्यादा संवेदनशील, वह उतने ही बड़े जोन में। हिमालय जोन पांच में है और दिल्ली-एनसीआर चार जोन में। इससे समझा जा सकता है कि ये क्षेत्र कितने संवेदनशील हैं। यही वजह है कि हिंदूकुश हो या पश्चिमी हिमालय से सटा नेपाल, यहां आने वाले भूकंप के झटके दिल्ली-एनसीआर में महसूस किए जाते हैं।

 

अब जब यह तय है कि भूकंप और पृथ्वी की तलहटी पर मनुष्य का कोई वश नहीं, तो पृथ्वी के आवरण अर्थात पर्यावरण पर हमें नए सिरे से सोचना चाहिए। पृथ्वी के सतह पर होने वाली हर गतिविधि हमारे पूर्ण नियंत्रण में है, और यह तय करना भी अब हमारा ही काम है कि हम पृथ्वी की इस सतह पर किस तरह अपनी जरूरतें पूरी करें।

 

पिछले पांच सौ वर्षों में जितने भी भूकंप आए, अगर उन पर एक नजर डालें, तो नुकसान वहां ज्यादा हुआ, जहां बेतरतीब निर्माण और बिना पर्यावरणीय सूझबूझ के विकास किए गए। भारत जैसे देश में इन सबका ज्यादा महत्व दो कारणों से है। यहां अंधाधुंध विकास के नाम पर हो रहे निर्माण कार्य और रियल स्टेट बिजनेस बिना पर्यावरणीय मापदंडों के अवतरित किए गए हैं। दिल्ली व इसके आसपास तेजी से नजर आ रहीं बहुमंजिला इमारतों पर अंकुश लगाने की जरूरत है। दूसरी बात भारत का एक बड़ा भूभाग भूकंप के प्रति अति संवेदनशील क्षेत्र में आता है, खासतौर से हिमालय व इससे जुड़े शहर-गांव आदि। िलहाजा हिमालय में शृंखलाओं से बनते हुए बांध कितने सार्थक हैं, इस पर बड़ी बहस होनी चाहिए। एक अकेला टिहरी बांध, जो 54 किलोमीटर झील के रूप में फैला है, क्या भूकंप के बड़े झटके सह सकता है? अगर इसे कुछ भी हुआ, तो दिल्ली भी जलप्रलय से जूझेगा और सदी की बडी आपदा के रूप में जाना जाएगा। भूकंप की तीव्रता को वनाच्छादित क्षेत्र कुछ हद तक वश में करने में उपयोगी सिद्ध हुए हैं, क्योंकि वृक्ष भूकंपीय ऊर्जा के कुचालक के रूप में कार्य करने की क्षमता रखते हैं। वनविहीन क्षेत्र भूकंप के विनाश को ज्यादा झेलते है।

सुरक्षित पर्यावरण भूकंपीय आपदाओं को तो नहींरोक सकता, पर इसकी तीव्रता से होने वाले बड़े नुकसानों को अवश्य कम कर सकता है। अब भूकंप का केंद्र चाहे कहीं भी हो, पर अगर हम अपने ठिकानों को पारिस्थतिकीय रूप से सुरक्षित और बेहतर रखेंगे, तो निश्चित रूप से हम एक हद तक इन जलजलों से अपने को सुरक्षित रख सकते हैं।

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