अगर गोमांस (बीफ) के बढ़ते इस्तेमाल को पर्यावरण की दृष्टि से देखा जाए तो इतना विवाद न हो। गहराई से देखा जाए तो आज जलवायु परितर्वन, वैश्विक तापवृद्धि, भुखमरी, नई-नई बीमारियां प्रत्यक्ष रूप से मांसाहार के बढ़ते चलन से जुड़ी हुई हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी) के मुताबिक एक मांस-बर्गर तैयार करने में तीन किलोग्राम कार्बन उत्सर्जित होता है। ऐसे में धरती की रक्षा के लिए मांस की बढ़ती खपत पर रोक जरूरी है। भारत में प्रति व्यक्ति दैनिक मांस खपत बारह ग्राम है जो कि वैश्विक औसत का दसवां हिस्सा ही है। लेकिन जिस रफ्तार से मांस की खपत बढ़ रही है वह चिंता का विषय है। देखा जाए तो मांसाहारी संस्कृति का प्रसार दुनिया पर यूरोप की सर्वोच्चता स्थापित होने से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। आर्थिक विकास और औद्योगीकरण ने पिछले दो सौ वर्षों में मांस केंद्रित आहार संस्कृति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। विकास और रहन-सहन के पश्चिमी मॉडल के मोह में फंसे विकासशील देशों ने भी इसे अपनाया। इन देशों में जैसे-जैसे आर्थिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे मांस और पशुपालन उद्योग तेजी से फल-फूल रहा है। उदाहरण के लिए, सूअर का मांस कभी चीन का संभ्रांत वर्ग ही खाता था लेकिन आज चीन का गरीब व्यक्ति भी अपने दैनिक आहार में मांस को शामिल करने लगा है। यही कारण है कि चीन द्वारा सूअर के मांस (पोर्क) आयात में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। भारत में भी मांसाहार हैसियत की निशानी (स्टेटस सिंबल) बनता जा रहा है। जिन राज्यों और वर्गों में संपन्नता व बाहरी संपर्क-संचार बढ़ा है उनमें मांस के उपभोग में भी तेजी आई है। इस क्रम में परंपरागत आहारों की घोर उपेक्षा हुई। उदाहरण के लिए, पहले गांवों में कुपोषण दूर करने में दलहनों, तिलहनों और गुड़ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी, लेकिन खेती की आधुनिक पद्धतियों और खानपान में इन तीनों की उपेक्षा हुई। मांसाहार के बढ़ते चलन का एक कारण मांस के प्रोटीन को लेकर फैला भ्रमजाल भी है। देखा जाए तो आधुनिक मानव जीवन में जितनी भ्रांतियां प्रोटीन के उपभोग को लेकर हैं उतनी शायद ही किसी अन्य खाद्य पदार्थ को लेकर हुई हों। हड्डियों और मांसपेशियों के निर्माण में प्रोटीन की मुख्य भूमिका होने के कारण यह कहा जाता है कि आहार में ज्यादा से ज्यादा प्रोटीन का समावेश होना चाहिए। इसी को देखते हुए मांस व डेयरी उद्योग अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए मांस और डेयरी उत्पाद को प्रोटीन का सबसे अच्छा स्रोत बता कर प्रचारित करने लगे। जबकि सच्चाई यह है कि फलों और सब्जियों की विभिन्न किस्मों में हमारी जरूरत से अधिक प्रोटीन पाए जाते हैं। अधिकांश फलों में चार से आठ फीसद प्रोटीन पाया जाता है जबकि सब्जियों में यह अनुपात दस से तीस फीसद है। दालों, सोयाबीन, मटर और टमाटर में तो बहुत ज्यादा प्रोटीन पाया जाता है। इसके बावजूद दुनिया वनस्पति प्रोटीन की तुलना में मांस प्रोटीन के पीछे पड़ी हुई है। मांस प्रोटीन के बढ़ते चलन ने सेहत का बंटाधार कर रखा है। कैंसर, मोटापा, हृदयरोग, मधुमेह जैसी गंभीर बीमारियां इसी की देन हैं। इसी कोदेखते हुए पोषण वैज्ञानिक मांसाहार में कटौती का सुझाव दे रहे हैं। उनके मुताबिक हमारा शरीर सौ से तीन सौ ग्राम प्रोटीन को प्रतिदिन पुनर्चक्रित करता है। इसलिए रोजाना सेवन किए गए भोजन का ढाई से पांच फीसद प्रोटीन शारीरिक विकास के लिए पर्याप्त होता है। स्पष्ट है कि मांस प्रोटीन के भ्रमजाल से निकल कर वनस्पति प्रोटीन को अपनाने का वक्त आ गया है। इसके बावजूद दुनिया मांस प्रोटीन के भ्रमजाल से नहीं निकल पा रही है। वर्ष 1961 में विश्व की कुल मांस आपूर्ति 7.1 करोड़ टन थी, जो कि 2009 में बढ़ कर 28 करोड़ टन हो गई। इस दौरान विश्व स्तर पर प्रति व्यक्ति औसत खपत दुगुनी हो गई। लेकिन विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और बीस वर्षों में ही प्रति व्यक्ति खपत दुगुने से अधिक हो गई। मांस की खपत बढ़ाने में मशीनीकृत पशुपालन तंत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले गांव-जंगल-खेत आधारित पशुपालन होता था, जिसकी उत्पादकता कम थी, इसीलिए वह महंगा पड़ता था। इस पद्धति में खेती, मनुष्य के भोजन और पशु आहार में कोई टकराव नहीं होता था। दूसरी ओर आधुनिक पशुपालन में छोटी-सी जगह में हजारों पशुओं को पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है ताकि जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा मांस हासिल किया जा सके। इस तंत्र में बड़े पैमाने पर मांस का उत्पादन होता है जिससे वह सस्ता पड़ता है और अमीर-गरीब सभी के लिए सुलभ होता है। लेकिन आधुनिक पशुपालन ने प्रकृति और मनुष्य से भारी कीमत वसूल की है। इसमें पशु आहार तैयार करने के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। इससे जल अकाल, वायु और जल प्रदूषण, मिट्टी की उर्वरा शक्ति में गिरावट जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। मक्का और सोयाबीन की खेती के तीव्र प्रसार में आधुनिक पशुपालन की मुख्य भूमिका रही है। आज दुनिया में पैदा होने वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है ताकि उसके मांस को खाया जा सके। जबकि भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। हर साल जारी होने वाले ‘ग्लोबल हंगर इडेक्स’ यानी वैश्विक भुखमरी सूचकांक के आंकड़े बताते हैं कि भूखे लोगों की सबसे ज्यादा तादाद भारत में है। अमेरिका में तो दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है। विशेषज्ञों के मुताबिक दुनिया की मांस खपत में मात्र दस प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले अठारह हजार बच्चों और छह हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है। पशुओं को सघन आवास, रसायनों और हार्मोन युक्त पशु आहार व दवाइयां देने से पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। पशुपालन के इन कृत्रिम तरीकों ने ही मैड काउ, बर्ड फ्लू व स्वाइन फ्लू जैसी नई महामारियां पैदा की हैं। मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थों की बड़े पैमाने पर बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में सात किलो अनाज या सोयाबीन की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट और 100 प्रतिशत रेशानष्टहो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहां मात्र पांच सौ लीटर पानी की खपत होती है वहीं इतने ही मांस के लिए दस हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए काफी जमीन और संसाधनों की जरूरत होती है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह और पशु आहार तैयार करने में नियोजित है। जैसे-जैसे मांस की मांग बढ़ेगी वैसे-वैसे पशु आहार की सघन खेती की जाएगी, जिससे ग्रीनहाउस गैसों में तेजी से बढ़ोतरी होगी। दुनिया के मीठे पानी का सत्तर प्रतिशत हिस्सा खेती में इस्तेमाल होता है, और इस समय कई क्षेत्रों में जल अभाव की गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गई है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक पशुपालन क्षेत्र वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों में अठारह प्रतिशत का योगदान करता है जो कि परिवहन क्षेत्र (पंद्रह फीसद) से अधिक है। ऐसे में मांस की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पशुपालन को बढ़ावा देने के गंभीर परिणाम निकलेंगे। वैश्विक तापवृद्धि में पशुपालन निर्वनीकरण के माध्यम से योगदान करता है। दुनिया भर में चरागाह और पशु आहार की खेती के लिए वनों को काटा जा रहा है। एफएओ के मुताबिक लातिन अमेरिका में सत्तर प्रतिशत वनभूमि को चरागाह में बदल दिया गया है। पेड़-पौधे कार्बन डाइआक्साइड के अवशोषक होते हैं। इनके काटने या जलाने से यह वायुमंडल में मिल जाती है जिससे तापवृद्धि होती है। पशु अपशिष्टों से नाइट्रस आक्साइड नामक ग्रीनहाउस गैस निकलती है जो कि तापवृद्धि में कार्बन डाइआक्साइड की तुलना में 296 गुना जहरीली है। गाय पालन से मीथेन उत्सर्जित होती है जो कि कार्बन डाइआक्साइड की तुलना में तेईस गुना खतरनाक है। पर्यावरणविदों के मुताबिक अगर दुनिया गाय का मांस (बीफ) खाना बंद कर दे तो कार्बन उत्सर्जन में नाटकीय ढंग से कमी आएगी और ग्लोबल वार्मिंग में बढ़ोतरी धीमी हो जाएगी। मांस के स्थानांतरण और उसे पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले र्इंधन से भी ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है। इतना ही नहीं, जानवरों के मांस से भी कई प्रकार की ग्रीनहाउस गैसें उत्पन्न होती हैं जो वातावरण में घुल कर उसके तापमान को बढ़ाती हैं। सेहत सुधारने, धरती की रक्षा करने तथा पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए दुनिया के कई हिस्सों में लोगों ने सप्तााह में एक दिन शाकाहारी रहने का निर्णय किया है। एक अनुमान के मुताबिक साठ लाख मांसाहारी जनसंख्या द्वारा सप्ताह में एक दिन मांस न लेने से एक वर्ष में जितनी कार्बन डाइआक्साइड बचेगी वह एक वर्ष में पांच लाख कारों द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइआक्साइड से अधिक होगी। कल्पना कीजिए अगर दुनिया भर के शहर इसे अपना लें तो धरती का कितना भला होगा। स्पष्ट है कि गोमांस को धार्मिक कोण से नहीं, पर्यावरणीय नजरिए से देखने की जरूरत है। मगर इस दृष्टि से किसी तरह का राजनीतिक मतलब नहीं सधता, इसलिए इसकी बात नहीं की जा रही है। रमेश कुमार दबे
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