दिलचस्प है कि इस बार अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार एक ऐसे शख्स को मिला है, जिसने भारत में गरीबी नापने के प्रचलित तरीकों पर भी सवाल उठाकर इसे सुधारने में अहम भूमिका अदा की है। प्रचलित तरीकों से लोगों द्वारा किए जा रहे उपभोग का सही अनुमान नहीं लग पाता था और वास्तविक गरीबी का चित्र नहीं उभर पाता था।
अर्थव्यवस्था में राज्य हस्तक्षेप के समर्थक इस वर्ष के नोबल विजेता अर्थशास्त्री प्रोफेसर एंगस डीटॉन को मिले पुरस्कार के बहाने क्या हम नए सिरे से आर्थिक बढ़ोतरी एवं निरंतर जारी आर्थिक असमानता के अंतर्संबंध पर नए सिरे से गौर करेंगे? विडंबना यही है कि न केवल भारत में, बल्कि दुनिया के तमाम देशों में यही विमर्श हावी है कि सामाजिक क्षेत्रों में राज्य का दखल कम से कम होना चाहिए। वर्तमान सरकार भी इसी धारणा पर काम करती दिखती है कि ’अधिकार आधारित नजरिया’ आर्थिक गतिविधियों को निरुत्साहित करने का काम करता है।
इसे एक विचित्र संयोग कहेंगे कि प्रोफेसर डीटॉन के अध्ययन, ‘जो भारत के वयस्कों एवं बच्चों की प्रचंड स्वास्थ्य समस्याओं के अस्तित्व’ और आधे से अधिक भारतीय बच्चों के ‘कुपोषित’ होने की बात करते हैं, के साथ ही हाल में प्रकाशित वैश्विक स्तर की दो अन्य रिपोर्टों ने भी भारत में बढ़ते कुपोषण एवं गरीबी को रेखांकित किया है।
प्रोफेसर पूर्णिमा मेनन और प्रोफेसर लारेंस हदाद के मुताबिक हाल में प्रकाशित ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2015 तथा सितंबर में प्रकाशित ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट/ जीएनआर, दोनों ने विश्व स्तर पर कुपोषण एवं भूख की बढ़ती स्थिति को दर्शाया है। दोनों रिपोर्टों का निचोड़ यही है कि विश्व की लगभग एक तिहाई आबादी भुखमरी एवं कुपोषण से ग्रस्त है, और यह कई रूपों में प्रकट होती है। मसलन, जन्म के वक्त वजन कम होना, एनिमिया, मोटापा, कम वृद्धि आदि तमाम तरीकों से कुपोषण का अंदाजा लगता है। इतना ही नहीं, विश्व बैंक के मुताबिक कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में निचली कतारों में स्थित है और एक तरह से सब-सहारा अफ्रीकी मुल्कों के साथ होड़ करता दिखता है।
यह अलग बात है कि इस चुनौती से निपटने के बजाय उससे बचने या टाल देने का रवैया ही नजर आता है। उदाहरण के तौर पर जुलाई, 2014 में वित्त मंत्री ने अपने बजटीय भाषण में इस चुनौती से जूझने के लिए ‘न्यूट्रिशन मिशन’ अर्थात पोषण मिशन की जरूरत को रेखांकित किया था, सितंबर में महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय की तरफ से इस बात का एलान भी हुआ। मगर तबसे कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि मौजूदा सरकार विश्व बैंक के ताजा आकलन को अपने लिए सर्टिफिकेट के तौर पर देख रही है, जिसके हिसाब से भारत में अत्यधिक गरीबी वाली आबादी वर्ष 2015 में 9.6 फीसदी तक पहुंच गई है। वर्ष 2012 में यह आंकड़ा 12.8 फीसदी था। वर्ष 1990 में जबसे विश्व बैंक ने यह आंकड़े इकट्ठा करने शुरू किए हैं, तबसे पहली दफा ऐसी कमी दिखाई दी है। मगर बारीकी से देख, तो पता चलता है कि यह सब गिनती के तरीकों का मामला है। पहले अलग ढंग से गरीबी गिनी जाती थी, तो अबनए तरीके से गरीबी आंकी जा रही है। और गरीबी के आंकड़ों में आती कमी से यह कोई भ्रम में न रहे कि लोग यहां रातों-रात अमीर हो गए हैं। हालात में खास बदलाव नहीं आया है।