एफआईआर से आरटीआई तक ग्राम्‍य जनजीवन – गोपालकृष्‍ण गांधी

अंग्रेजी के कुछ शब्द (या शब्दों के संक्षिप्त रूप) ऐसे हैं, जो भारत के दूर-देहात तक जड़ें जमा चुके हैं। यहां मैं डीएम, एसपी, बीडीओ जैसे अफसरों के पदों का उल्लेख नहीं कर रहा। ना ही मैं बस, ट्रेन, साइकिल जैसे सर्वसुलभ शब्दों की बात कर रहा हूं। मैं ऐसे शब्दों की बात कर रहा हूं, जो हमें आज के भारत के बारे में कुछ बताते हैं। इन्हीं में से एक, लोगों में गर्व की भावना जगाने वाला शब्द है : ‘वोट।" एक अन्य शब्द, जो लोगों में सिहरन पैदा कर देता है, वो है : ‘एफआईआर।" वास्तव में, गांवों में तो लोग एफआईआर को शहर के लोगों जितना ही जानते हैं, फिर चाहे वे उसके फुल फॉर्म ‘फर्स्ट इंफॉर्मेशन रिपोर्ट" से वाकिफ हों या ना हों।

अब मैं अपनी बात को थोड़ा आगे बढ़ाता हूं। मैं पहले ही स्वीकार कर लेता हूं कि इसके लिए मुझे थोड़ा सामान्यीकरण करना पड़ेगा और जो मैं कहूंगा, उसके व्यापक अपवाद भी मौजूद होंगे। आज भी हमारे गांव-देहात में अनेक बातों पर एफआईआर दर्ज नहीं की जाती। इसका कारण बेईमानी है। मैं उसे विश्वासघात तक की संज्ञा दूंगा। प्रभावशाली तबके द्वारा सामाजिक सुरक्षा तंत्र का खुलेआम शोषण किया जाता है और ऐसा वे जमीनी अफसरों से मिलीभगत करके करते हैं।

जरूरतमंद ग्रामीणों का उनके लिए बनाई गई योजनाओं के लिए नामांकन एक ऐसा अवसर होता है, जब सशक्तीकरण लोककल्याण में बदलता है। योजनाओं के लिए ग्रामीणों का नामांकन करने वाले लोग भी वे ही होते हैं, जिन्हें हम विकेंद्रीकरण के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में स्वीकारते हैं। गरीबी रेखा को परिभाषित करने वाले एपीएल और बीपीएल जैसे पद भी गांवों में एफआईआर जितने ही सुपरिचित हैं। ऐसे अनेक गांव हैं, जिनके एपीएल और बीपीएल परिवारों की सूची वहां की सच्ची तस्वीर पेश करती हैं, पर ऐसे गांवों की भी कमी नहीं, जहां एपीएल और बीपीएल का निर्धारण मनमानीपूर्वक किया जाता है।

हाल ही में योगेंद्र यादव ने जन किसान आंदोलन और स्वराज अभियान के बैनर तले देश के अकालग्रस्त जिलों की यात्रा की थी। गत 15 अक्टूबर को हरियाणा के ऐसे ही एक अकालग्रस्त जिले की उनकी यात्रा के दौरान मुझे भी उपस्थित रहने का सुअवसर मिला। वहां कुछ किसानों और खेत मजदूरों से उन्होंने पूछा कि उनमें से कितनों के पास एपीएल या बीपीएल कार्ड हैं और कितने पूर्णत: निराश्रित हैं। उनमें से एक भी व्यक्ति इस सवाल का जवाब नहीं दे पाया। यह इसलिए भी आश्चर्यजनक था, क्योंकि तब तक किसान और मजदूर उत्साह के साथ सभी सवालों के जवाब दे रहे थे।

इस पर योगेंद्र ने उनसे पूछा कि क्या इसका मतलब यह है कि आप लोगों के पास एपीएल कार्ड होने चाहिए, पर आपके पास बीपीएल कार्ड है और यहां तक कि पूर्णत: गरीबों और निराश्रितों के कार्ड भी आपके पास हैं? इस पर किसान और मजदूर ठठाकर हंस पड़े। वे बोले, ‘जी जी, बात वही है।" उन लोगों की ईमानदारी दिल को छू लेने वाली थी। तभी उनमें से एक व्यक्ति ने योगेंद्र के हाथ से माइक लिया और बहुत अच्छी हिंदीबोलते हुए कहा : ‘सर, हकीकत यह है कि हमें नरेगा में शामिल होने के लिए विनती करनी पड़ती है और इसके लिए गांव के रसूखदारों के घर नौकर की तरह काम करना पड़ता है।" तो सच्चाई यह है कि रसूखदारों के पास मशीनें होती हैं, जिससे वे जमीनी काम करते हैं, फिर भी वे नरेगा की रकम के लिए दावा करते हैं। इसके बदले में वे मजदूरों से जो रकम साझा करते हैं, उसके भी ऐवज में वे उनसे अपने घर या खेतों में नौकरों की तरह काम करवाते हैं। भारतीय दंड संहिता में धोखाधड़ी के लिए कानूनी धाराएं हैं। लेकिन इस किस्म की धोखाधड़ी के लिए क्या कभी कोई एफआईआर दाखिल की जाती है? इस बात के आसार बहुत ही कम हैं और यही कारण है कि नरेगा (जो कि गांवों में बहुत अच्छी तरह पहचाना जाने वाला अंग्रेजी का एक और संक्षिप्त शब्द-रूप है) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की योजनाओं का पूरा लाभ आज भी जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाता है।

लेकिन सभा की सबसे महत्वपूर्ण जानकारी इसके एक मिनट बाद मिली। अच्छी हिंदी बोलने वाले उसी किसान ने कहा कि उसने हकीकत का पता लगाने के लिए आरटीआई का सहारा लिया था। और तब जाकर मुझे अहसास हुआ कि आरटीआई हमारे गांव-देहात के शब्दकोश का हिस्सा बनने वाला सबसे नया अंग्रेजी शब्द है!

मैं योगेंद्र के साथ एक ऐसे किसान के घर भी गया, जिसने एक पखवाड़ा पहले ही आत्महत्या कर ली थी। उसने बीटी कपास की फसल का प्रयोग किया था और फसल चौपट हो गई। इससे पहले वह बाजरे की खेती करता था। उसने इस उम्मीद में बीटी कपास की खेती की थी कि इस ‘कॉमर्शियल क्रॉप" से उसे खासी आमदनी होगी। इसके लिए उसने भारी कर्जा भी लिया था। लेकिन सूखे व कीटों के प्रकोप से उसकी फसल बरबाद हो गई। इसी साल उसकी बेटी का ब्याह भी हुआ था और उसमें उसकी जमापूंजी सब चुक गई थी।

क्या आरटीआई बीटी कपास का प्रचार करने वाली निजी कंपनियों से यह सवाल पूछ सकती है कि कीटों पर नियंत्रण के लिए वह किसानों को समझाइश क्यों नहीं देती? नहीं! क्या आरटीआई दहेज और महंगे विवाह समारोहों जैसी सामाजिक बुराइयों पर सवालिया निशान लगा सकती है? नहीं! क्या वह प्राकृतिक आपदाओं के बारे में कुछ कर सकती है? कतई नहीं! लेकिन वह कुछ और चीजें जरूर कर सकती है। वह अधिकारियों से सवाल कर सकती है कि उन्होंने सूखे के हालात में अपने दायित्व कितने निभाए? वह उनसे पूछ सकती है कि जो सूखा आज आधे भारत को अपने दायरे में लिए हुए है, उसका सामना करने के लिए उन्होंने अब तक कितना पैसा खर्चा या नहीं खर्चा?

1943 में जब बंगाल अकाल की गिरफ्त में था, तब एलेक नामक एक व्यक्ति को कलकत्ते के गवर्नर हाउस में भोज दिया गया। एक प्रतिष्ठित अखबार ने उस भोज के मैन्यू को अपने पहले पन्न्े पर छापा और साथ ही अकाल में मारे गए लोगों का ब्योरा भी दिया। वह अपने तरह की एक आरटीआई ही थी। मैं इस तरह के खुलासों कीहिमायततो खैर नहीं करूंगा, लेकिन यह जरूर चाहूंगा कि हर जिले में आरटीआई के आवेदन भरकर सूखे के हालात व तैयारियों की जानकारी जुटाई जाए। मानसून की मार से डगमगाई हालत का जायजा लेने के लिए क्यों न आरटीआई आवेदनों की धुआंधार बारिश हो जाए!

एक दिन पहले ही मुझे दिल्ली में आरटीआई के दस साल पूरे होने पर आयोजित एक कार्यक्रम का हिस्सा बनने का मौका मिला था। इस मौके पर देश के पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला का कहना था कि आरटीआई हमारे गणतंत्र का सरताज है, क्योंकि यह आम इंसान को ताकत देता है। लेकिन सनद रहे, बीते दस सालों में 45 आरटीआई एक्टिविस्टों की हत्या की जा चुकी है! जी हां, हत्या!! फिर भी शुक्र है कि गांव-देहात के लोग आज एफआईआर को जितना जानते हैं, उतना ही वे आरटीआई को भी जानने लगे हैं!

(लेखक पूर्व राज्यपाल, राजदूत व उच्चायुक्त हैं और संप्रति अशोका यूनिवर्सिटी में इतिहास और राजनीति विज्ञान के विशिष्ट प्राध्यापक हैं)

 

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