लेखकों के विरोधी तेवर अच्छी बात – मृणाल पांडे

राजनीति और राजकाज पर दलगत राजनीति से बाहर कई अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में भी गंभीरता से विचार किया जाता है। शासन उदार और संवेदनशील हो तो राजनीति के बाहर से आ रही प्रतिरोध की आवाज को सादर सुनकर राजनीति में संशोधन किए जाते हैं। पर यदि शासक आलोचना को राजद्रोह मानने पर उतारू हो जाए तो छुटभैये मुसाहबों द्वारा साहित्यिक, अकादमिक या स्वैच्छिक संगठनों से जुड़े आलोचकों को अपमानित करने से लेकर उन पर सांघातिक हमले किए जाने लगते हैं। पानसरे, दाभोलकर, कलबुर्गी सरीखे लेखकों की हत्या, पत्रकार निखिल वागले और कई टीवी मुख्यालयों पर हिंसक हमलों से लेकर रुश्दी या डॉनिगर की किताबों या हुसेन की प्रदर्शनियों पर जबरिया रोक तक सब इसके उदाहरण हैं।

कुछेक ताकतवर लोगों के भड़काऊ बयान, पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता और सत्ता के ‘नरो वा कुंजरो वा" मार्का तेवरों के कारण देश में कट्टरपंथी धड़ों की हिंसक असहिष्णुता और प्रतिगामी अलोकतांत्रिक विचारों को लगातार बढ़ावा मिल रहा है। जब हालात ऐसे हों, तो सबसे पहले बुद्धिजीवियों-लेखकों के बीच इसको लेकर तीखी तिलमिलाहट सहज है। सत्ता की सीकरी से प्राय: दूर रहने वाले कलाकार धरना-प्रदर्शन नाकामयाब होते देख चुके हैं। लिहाजा अब अपने आक्रोश को शासकों के आगे व्यक्त करने के लिए कई बड़े पुरस्कृत लेखक साहित्य अकादमी द्वारा दिए गए लेखकीय सम्मान को लौटाने लगे हैं और अकादमी के ही अनेक जाने-माने सदस्य लेखक संस्थागत निष्क्रियता पर आक्रोश जताते हुए पदत्याग की घोषणा कर रहे हैं।

यह बहुत दु:खद है कि सत्ता इस घटनाक्रम को संवेदनशीलता से लेने के बजाय इन लेखकों की निष्ठा पर सवालिया निशान लगाते हुए इसको एक राजनैतिक बदले की भावना से प्रेरित कह रही है। कहा जा रहा है कि साहित्य अकादमी तो स्वायत्त संस्था है। सरकार का उसके दिए सम्मानों से कोई लेना-देना नहीं, लेखक यदि सम्मान लौटाते हैं यह उनकी निजी च्वॉइस है। भय और तनाव से अगर इन लेखकों का लेखन प्रभावित हो रहा है तो वे लिखना बंद कर दें, फिर देखी जाएगी। दलीय प्रवक्ता भी अशोभनीय तरीके से विरोध कर रहे साहित्यकारों के पारिवारिक और वैचारिक बखिए उधेड़ते हुए पूछ रहे हैं कि इन लेखकों का लेखकीय विवेक इसी सरकार के खिलाफ क्यों जागा है?

सांप्रदायिक तनाव, दंगों या गुस्सैल भीड़ द्वारा कलाकारों-कृतियों पर हमलों का सिलसिला देश में नया नहीं। क्यों आज से पहले इतने सम्मान नकारे या इस्तीफे नहीं दिए गए? साहित्यकारों के इस तमतमाए कदम को क्यों न उनके शीर्ष नेता के खिलाफ विगत सरकार द्वारा सम्मानित कई बुद्धिजीवियों की गहरी निजी खुंदक अथवा राजनैतिक दुर्भावना से प्रेरित माना जाए? लेखकों के समर्थक मीडिया से लेकर इन साहित्यकारों तक को पूर्ण बहुमत से चल रही मौजूदा सरकार के नेतृत्व में आस्था क्यों नहीं?

अंतिम सवाल के कटु जवाब दिए जा सकते हैं, पर वे असल मुद्दे से ध्यान भटकाएंगे। रचनात्मक कलाकारों की गैरराजनैतिक दुनिया से ऐसी भद्दी पूछाताछी या बिनमांगी सलाहें संदिग्ध और असामान्य हैं। कलाओं के जनतंत्र की यह दुनिया सामान्यत: साहित्येतर विषयों से लगभग तटस्थ रहती है। इसीलिए जब इसके नागरिक अपना मौन तोड़कर इतनी बड़ी तादाद में देश के बिगड़ते माहौल पर उंगलीउठाने और सत्ता के दिए सम्मान ठुकराने लगें तो उनके असम्मान के बजाय उनसे सदय विमर्श बेहतर होता। निजी जिंदगी में लेखकों की जो भी वैचारिक पक्षधरता हो, हर अच्छा साहित्यकार लिखते समय मानवता के वृहत्तम सरोकारों को ही अपनी रचनाओं के केंद्र में रखता है। इसलिए उनके प्रतिरोध की जड़ें क्षुद्र निजी खुंदक या राजनैतिक आग्रहों में खोजना मूल विषय से आंखें मूंदना ही है।

सत्साहित्य के पाठक हमेशा मानते रहे हैं कि राजनीति और सत्तारूढ़ लोगों के आचरण और मनोविज्ञान पर साहित्य जैसी सशक्त और मानवीय टिप्पणियां कर सकना बेहतरीन अकादमिक विश्लेषकों या पत्रकारिता के लिए भी असंभव है। इसलिए यह कहना कि अमुक ने पहले सम्मान लौटाने की क्यों नहीं सोची या कि वर्ष अमुक या तमुक में दंगों का विरोध क्यों नहीं किया गया, मूर्खता ही है। क्या हम गालिब की कविता इसलिए खारिज कर दें कि उसमें 1857 की क्रांति का जिक्र नहीं? या तुलसी व जायसी का काव्य इसलिए बेमतलब है कि उन्होंने अपने समय की राज्यसत्ता पर सीधे टिप्पणी कर मूल्यांकन करना जरूरी नहीं समझा?

मौजूदा राज्यव्यवस्था को साहित्यकारों के प्रश्नों से परे मानने की बात दूर तलक जाएगी। सत्ता के अहंकारी दुरुपयोग का खतरा हर काल में हर शीर्षसत्ता पर मंडराता है। शायद इसीलिए हर युग शीर्ष शासन को निरंकुश बनने से रोकने के लिए मनीषियों द्वारा राजनीति से बाहर कुछ दबाव क्षेत्रों की रचना करता रहा है। सामंती युग में राजाओं को पटरी से न उतारने के लिए पहले विश्वामित्र या वशिष्ठ सरीखे राजगुरु या भीष्म सरीखे वरिष्ठ स्वजन मौजूद रहते थे। मध्यकाल में कबीर, नानक या तुलसी जैसे संत कवि जनता तथा शासकों को याद दिलाते रहे कि सचिव, वैद्य और गुरु यदि कटु सत्य के बजाय भयवश झूठ बोलने पर उतर आएं तो सत्ता का कैसे नाश हो जाता है। बीसवीं सदी में गांधी, मालवीय और टैगोर से लेकर जेपी और नरेंद्र देव तथा शांतिनिकेतन से काशी विद्यापीठ तक अनेकों लोगों या संस्थाओं के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्होंने सक्रिय राजनीति के बाहर खड़े रहकर टकराव की घड़ियों में भी जनता और राजनीति दोनों का नैतिकता से विचलन रोका।

आज भी सुदूर दक्षिण के रंगनाथ तारिकरे या कश्मीर की नयनतारा सहगल, मध्यप्रदेश के अशोक वाजपेयी व उदय प्रकाश या केरल की सारा जोसफ सम्मान लौटाकर देश को हमारी असली बौद्धिक परंपरा की याद दिला रहे हैं, जिसके तहत हमारे कलाकार सत्ता के कोपभाजन बनने का जोखिम मोल लेकर भी देश को उसकी सांस्कृतिक बहुलता पर उदार समग्रता से सोचने और मानव मूल्यों के विघटन पर निर्भीकता से बोलने के लिए प्रेरित करते हैं।

जो लोग अपने नेता बनाम इन साहित्यकारों या कि कांग्रेस बनाम भाजपा शासन तले की साहित्य अकादमी को लेकर सवाल उठा रहे हैं, वे भ्रम में हैं। ये साहित्यकार राजनीति से राजनीति की शर्तों पर लड़ ही नहीं रहे, वे तो मौजूदा राजकाज के अमानवीयकरण के विरोध में आवाज बुलंद करते हुए एक ऐसा गैरराजनैतिक क्षेत्र हमको दिखा रहे हैं, जहां खड़े समूह की ताकत राजनैतिक पक्षधरता में नहीं, नैतिक ईमानदारी में होती है। लेखकों का यह विरोधी तेवर हमारे समाजमेंबची हुई मानवीयता और उदारवाद का स्वस्थ लक्षण है और उनके त्यागपत्र जता रहे हैं कि भारत की अंतरात्मा हर भारतीय भाषा में अन्याय के खिलाफ बोलती रहेगी।

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं

 

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