2009 में शिवसेना ने फिर वही किया : मुंबई में आईबीएन लोकमत के दफ्तर में तोड़-फोड़ की गई और वागले की फिर पिटाई की गई। तब नेटवर्क के एडिटर इन चीफ के बतौर मैंने कड़ी पुलिस कार्रवाई की मांग की। कुछ प्रतीकात्मक गिरफ्तारियां हुईं पर आखिरकार सबको जमानत मिल गई। शिवसेना ने दफ्तर पर हमला करने वाले ‘लड़कों’ को शाबासी दी। मामला खत्म हो गया, जिंदगी आगे बढ़ गई। बेशक अगले हमले, अगला शिकार होने तक। 1966 से आज तक शिवसेना के इतिहास पर सिर्फ स्याही के नहीं, खून के भी दाग हैं। जिस किसी ने विरोध को स्वर देने का प्रयास किया उसे चुप कराने की कोशिश हुई : डराना-धमकाना, कालिख पोतना, हमले, उपद्रव और यहां तक कि हत्या (शिवसेना पर 1970 में कम्युनिस्ट नेता कृष्णकांत देसाई की हत्या का आरोप लगा था) तक, शिवसैनिकों ने हिंसा को ही अपना अंतिम शस्त्र बना लिया अौर इसके बाद भी हर बार बच निकले।
इतने दशकों में संविधान के मुताबिक चलने से शिवसेना के इनकार क्या बताता है? एक, यह कानून लागू करने वाली व्यवस्था पर कलंक है। शिवसेना के मूल सुप्रीमो बाल ठाकरे के कई भाषण भड़काऊ रहे हैं और समुदायों में खुलेआम नफरत फैलाकर उन्होंने साफतौर पर भारतीय दंड विधान की धारा 153 (ए) और (बी) का खुला उल्लंघन किया। और इसके बाद उनके लंबे सार्वजनिक जीवन में ठाकरे को सिर्फ एक बार 2007 में भड़काऊ भाषण के आरोप में गिरफ्तार किया गया और तत्काल जमानत पर छोड़ भी दिया गया (इसके पहले 1969 में दंगे संबंधी मामले में गिरफ्तार किया गया था।) गिरफ्तारी के कुछ दिन पूर्व इंटरव्यू में ठाकरे ने मुझसे कहा, ‘मुझे छुआ भी गया तो देश में आग लग जाएगी।’ ऐसा कुछ नहीं हुआ, लेकिन डरपोक कानून-व्यवस्था को पीछे हटने के लिए यह संदेश पर्याप्त था। जब आपको कानून का डर नहीं होता, तो आप बार-बार इसका उल्लंघन करने लगते हैं।
दो, महाराष्ट्र में विभिन्न सरकारों ने शिवसेना नेतृत्व के साथ नरमी बरती। उससे लड़ने की बजाय उन्होंने उससे ‘सौदे’ करना बेहतर समझा। यदि भाजपा के देवेंद्र फडणवीस अपने सहयोगी दल को काबू करने में असहाय नज़र आते हैं, तो उनकी स्थिति 1960 के उत्तरार्द्ध में वसंतराव नाईक से लेकर कई मुख्यमंत्रियों से अलग नहीं हैं। नाईक ने तो कुछ मौकों पर खुद शिवसेना का बचाव किया। आज जब कांग्रेस कुलकर्णी पर हमले को ‘शर्मनाक’ बता रही है तो उसे बतानाचाहिए कि उसने शिवसेना को भूतकाल में ऐसे हमलों में बच निकलने क्यों दिया : क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि मंुबई के कांग्रेस प्रमुख संजय निरुपम पूर्व शिवसैनिक हैं, जो उस पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता थे, जिसकी अब वे निंदा कर रहे हैं।
तीन, शिवसेना ने मुंबई की स्थानीय मराठी आबादी के एक बड़े तबके की असुरक्षाओं और चिंताओं को सफलतापूर्वक भुनाया। यह आबादी अपनी दशा के लिए ‘दूसरों’ को दोष देती है। यह 1960 के दशक में तब शुरू हुआ, जब दक्षिण भारतीयों को उनकी क्लर्क टाइप की नौकरियां लेने का आरोप लगाकर निशाना बनाया गया। हाल के दिनों में ‘शत्रु’ की तलाश सेना को उत्तर भारतीय प्रवासियों की तरफ ले गई। आरोप फिर वही स्थानीय लोगों के रोजगार छीन लेने का। ऐसे शिगूफे को इस महानगर में जबर्दस्त प्रतिसाद मिलता है, जहां लाखों लोग हाशिये पर हैं। शिवसेना को समर्थन देने वाला मूल तबका इन्हीं हाशिये के लोगों में से आया है। इन्हीं में ‘मराठी माणुस’ की पहचान को तरजीह देने के पक्षधर भी अधिक हैं।