धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की चुप्पी का फल– राजदीप सरदेसाई

सुधींद्र कुलकर्णी से बहुत पहले निखिल वागले और आपके इस मामूली स्तंभकार जैसे कई लोग शिवसेना के शिकार बन चुके हैं। 1991 में शिवसेना ने भारत-पाक क्रिकेट शृंखला के विरोध में वानखेड़े स्टेडियम का पिच खोद दिया था। मैंने इसकी कठोरतम शब्दों में आलोचना करते हुए लेख लिखा। जहां मैं काम करता था उस टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई के दफ्तर के बाहर काले झंडे दिखाए गए, अपशब्द कहे गए, लेकिन सौभाग्य से मुझे बिना किसी शारीरिक क्षति के परिसर से बाहर जाने दिया गया। वागले इतने भाग्यवान नहीं थे : उनका दफ्तर दादर में शिवसेना के प्रभाव वाले क्षेत्र में था। उन पर हमला हुआ और मारपीट की गई।

2009 में शिवसेना ने फिर वही किया : मुंबई में आईबीएन लोकमत के दफ्तर में तोड़-फोड़ की गई और वागले की फिर पिटाई की गई। तब नेटवर्क के एडिटर इन चीफ के बतौर मैंने कड़ी पुलिस कार्रवाई की मांग की। कुछ प्रतीकात्मक गिरफ्तारियां हुईं पर आखिरकार सबको जमानत मिल गई। शिवसेना ने दफ्तर पर हमला करने वाले ‘लड़कों’ को शाबासी दी। मामला खत्म हो गया, जिंदगी आगे बढ़ गई। बेशक अगले हमले, अगला शिकार होने तक। 1966 से आज तक शिवसेना के इतिहास पर सिर्फ स्याही के नहीं, खून के भी दाग हैं। जिस किसी ने विरोध को स्वर देने का प्रयास किया उसे चुप कराने की कोशिश हुई : डराना-धमकाना, कालिख पोतना, हमले, उपद्रव और यहां तक कि हत्या (शिवसेना पर 1970 में कम्युनिस्ट नेता कृष्णकांत देसाई की हत्या का आरोप लगा था) तक, शिवसैनिकों ने हिंसा को ही अपना अंतिम शस्त्र बना लिया अौर इसके बाद भी हर बार बच निकले।

इतने दशकों में संविधान के मुताबिक चलने से शिवसेना के इनकार क्या बताता है? एक, यह कानून लागू करने वाली व्यवस्था पर कलंक है। शिवसेना के मूल सुप्रीमो बाल ठाकरे के कई भाषण भड़काऊ रहे हैं और समुदायों में खुलेआम नफरत फैलाकर उन्होंने साफतौर पर भारतीय दंड विधान की धारा 153 (ए) और (बी) का खुला उल्लंघन किया। और इसके बाद उनके लंबे सार्वजनिक जीवन में ठाकरे को सिर्फ एक बार 2007 में भड़काऊ भाषण के आरोप में गिरफ्तार किया गया और तत्काल जमानत पर छोड़ भी दिया गया (इसके पहले 1969 में दंगे संबंधी मामले में गिरफ्तार किया गया था।) गिरफ्तारी के कुछ दिन पूर्व इंटरव्यू में ठाकरे ने मुझसे कहा, ‘मुझे छुआ भी गया तो देश में आग लग जाएगी।’ ऐसा कुछ नहीं हुआ, लेकिन डरपोक कानून-व्यवस्था को पीछे हटने के लिए यह संदेश पर्याप्त था। जब आपको कानून का डर नहीं होता, तो आप बार-बार इसका उल्लंघन करने लगते हैं।

दो, महाराष्ट्र में विभिन्न सरकारों ने शिवसेना नेतृत्व के साथ नरमी बरती। उससे लड़ने की बजाय उन्होंने उससे ‘सौदे’ करना बेहतर समझा। यदि भाजपा के देवेंद्र फडणवीस अपने सहयोगी दल को काबू करने में असहाय नज़र आते हैं, तो उनकी स्थिति 1960 के उत्तरार्द्ध में वसंतराव नाईक से लेकर कई मुख्यमंत्रियों से अलग नहीं हैं। नाईक ने तो कुछ मौकों पर खुद शिवसेना का बचाव किया। आज जब कांग्रेस कुलकर्णी पर हमले को ‘शर्मनाक’ बता रही है तो उसे बतानाचाहिए कि उसने शिवसेना को भूतकाल में ऐसे हमलों में बच निकलने क्यों दिया : क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि मंुबई के कांग्रेस प्रमुख संजय निरुपम पूर्व शिवसैनिक हैं, जो उस पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता थे, जिसकी अब वे निंदा कर रहे हैं।

तीन, शिवसेना ने मुंबई की स्थानीय मराठी आबादी के एक बड़े तबके की असुरक्षाओं और चिंताओं को सफलतापूर्वक भुनाया। यह आबादी अपनी दशा के लिए ‘दूसरों’ को दोष देती है। यह 1960 के दशक में तब शुरू हुआ, जब दक्षिण भारतीयों को उनकी क्लर्क टाइप की नौकरियां लेने का आरोप लगाकर निशाना बनाया गया। हाल के दिनों में ‘शत्रु’ की तलाश सेना को उत्तर भारतीय प्रवासियों की तरफ ले गई। आरोप फिर वही स्थानीय लोगों के रोजगार छीन लेने का। ऐसे शिगूफे को इस महानगर में जबर्दस्त प्रतिसाद मिलता है, जहां लाखों लोग हाशिये पर हैं। शिवसेना को समर्थन देने वाला मूल तबका इन्हीं हाशिये के लोगों में से आया है। इन्हीं में ‘मराठी माणुस’ की पहचान को तरजीह देने के पक्षधर भी अधिक हैं।

 

चार, हिंसा के साथ शिवसेना का लंबा साथ मुंबई के कॉस्मोपोलिटन चरित्र के मिथक होने और धर्मनिरपेक्षतावादियों के खेदजनक नैतिक दीवालिएपन की पुष्टि करता है। परस्पर सहअस्तित्व और सहिष्णुता की सारी बातों के बावजूद जब हिंसा को उग्र हिंदुत्व के वेश में पेश किया जाता है तो कुछ लोग इसका समर्थन करने लगते हैं। एक मराठी संपादक ने मुझे सफाई देने के अंदाज में कहा था, ‘शिवसेना जनता की शिकायतों का लाउड स्पीकर है।’ ‘मुसलमान’ के प्रति अविश्वास हिंदू मानस में गहराई तक छिपा है : शिवाजी और अफजल खान की छवियों को उभारकर शिवसेना ने अपना अलग पुराण रचा है और खुद को हिंदुओं के संरक्षक के रूप में पेश किया है। 1992-93 के दंगों में इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण मिलता है : कुछ हाई-प्रोफाइल मुंबईकरों ने तब शिवसेना की करतूतों को महिमामंडित किया। उनका दावा था कि शिवसेना के दंगों में कूदने से महानगर ‘बच’ गया वरना मुस्लिम इस पर कब्जा कर लेते।
दुख की बात है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ नेतृत्व ऐसी बातों को चुनौती देने की बजाय इसी लीक पर चलने लगा : ध्यान दें कि मुंबई दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को कैसे अक्षरश: अरब सागर में फेंक दिया गया। आखिरकार शिवसेना बच निकली, क्योंकि शिवसेना के हिंसक चरित्र से स्तब्ध श्रेष्ठिवर्ग भी चुप्पी साधे रहा। शायद वे इतने डरे हुए थे कि सच नहीं कह सके। किंतु फिल्म, खेल या वित्तीय विश्व की सेलेब्रिटी के इस महानगर में बहुत कम लोगों ने सेना के झूठ को चुनौती देने की हिम्मत दिखाई। सितारे मुहूर्त शॉट के लिए ठाकरे के घर ‘मातोश्री’ पर कतार लगाते हैं, क्रिकेट के दिग्गज उनसे आशीर्वाद चाहते हैं और उद्योगपति शिवसेना के मजदूर संगठनों के साथ शांति बनाए रखना चाहते हैं। जब कांग्रेस सांसद और अभिनेता दिवंगत सुनील दत्त अपने बेटे संजय को मुंबई बम कांड में जेल से बाहर लाना चाहते थे तो मदद के लिए वे बाल ठाकरे के पास ही गए। तथ्य तो यही है कि जहां लता मंगेशकर और सचिन तेंडुलकर भारतरत्नहैं, मुंबई के संदर्भ में जीवित रहते और गुजर जाने के बाद भी बाल ठाकरे अब भी गॉड फादर हैं और ठाकरे महानगर का प्रथम परिवार।
पुनश्च : 1989 में बाल ठाकरे के साथ मेरी पहली मुलाकात में उन्होंने सौम्यता से पूछा, ‘तुम मेरे प्रिय मित्र दिलीप सरदेसाई के बेटे हो। महाराष्ट्रियन और भारतीय हो, तुम हमारे आलोचक कैसे हो सकते हो?’ मैं यह कहना चाहता था, लेकिन कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया, ‘श्रीमान देशभक्ति, दुर्जनों की अंतिम शरणस्थली होती है।’

 

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