न्यायिक व्यवस्था के पतन एवं सड़ांध पर कड़ी टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने माननीय न्यायाधीशों से बुर्का पहनकर बाहर घूमने का आग्रह किया, जिससे उन्हें बेंच (अदालतों) की नाकामी की हकीक़त पता चल सके, लेकिन इस सड़ांध की जिम्मेदारी सिर्फ जजों पर ही क्यों? कुछ दिन पूर्व दिल्ली के तत्कालीन कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर को लॉ की फर्जी डिग्री के आरोप में गिरफ्तार किया गया, जो विधि व्यवस्था के पतन का सिर्फ ट्रेलर है। पूरा चित्र तो बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के जुलाई 2015 में दिए गए वक्तव्य से उभरता है, जिसके अनुसार देश में 30 प्रतिशत से अधिक वकील फर्जी हैं। इन्ही सब कारणों से मद्रास उच्च न्यायालय ने बार (वकालत के पेशे) में आपराधिक तत्वों के प्रवेश को रोकने के लिए पांच साल के लॉ कोर्स सहित कई अन्य सख्त आदेश पारित किए हैं और मुख्य न्यायाधीश ने अदालत को हुल्लड़बाजी से बचाने के लिए सीआईएसएफ की सुरक्षा के निर्देश भी दिए हैं।
न्यायिक व्यवस्था के पतन को समझने के लिए बार और बेंच के पतन के साथ सरकार और पुलिस की भूमिका को समझना जरूरी है। सबसे पहले हम बात करते हैं वरिष्ठ वकीलों के विशिष्ट वर्ग की। रसूखदार लोग संगीन मामलों में महंगी फीस देकर वरिष्ठ वकीलों की सेवाएं इसलिए लेते हैं, क्योंकि अदालत में वरिष्ठ वकीलों की उपस्थिति मात्र से सुनवाई का स्वरूप तथा फैसले की तार्किकता बदल सकती है। वरिष्ठ वकीलों की नियुक्ति में पक्षपात और अनियमितताओं के आरोप पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता इंदिरा जयसिंह द्वारा लगाए गए हैं और उस मामले की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में चल रही है। केंद्र और राज्य सरकार भी वकीलों को सरकारी वकील बनाकर उपकृत करती है, जो जनता के पैसे से मोटी फीस लेकर प्रतिदान में राजनीतिक हितों का पोषण करते हैं। अभी एक रोचक मामला सामने आया जहां सरकारी वकीलों को नियुक्ति-पत्र तो पहले दे दिया गया और बायो डेटा बाद में लिया गया।
एटार्नी जनरल देश के सबसे बड़े सरकारी वकील हैं पर उन्होंने शराबबंदी पर केरल सरकार द्वारा प्रतिबंध के विरुद्ध निजी कंपनी के पक्ष में बहस करके कानून और नैतिकता की धज्जियां उड़ा दीं। न्यायाधीशों के बच्चों तथा संबंधियों द्वारा अंकल जजों के माध्यम से निर्णयों को प्रभावित करने के कई मामले सामने आए, जिनके विरुद्ध प्रभावी कार्यवाही शायद ही कभी होती हो। राजनेता, विशेष वकील एवं कुछ जजों के तंत्र से विवश आम वकील सर्वहारा बन गया। देश में लगभग 15 लाख वकील हैं, जिनके पास काम न रहने से रोजमर्रा की हड़ताल में जाना आम हो गया है पर ऐसी गैर-कानूनी हड़ताल का खामियाजा तो गरीब जनता को ही उठाना पड़ता है।
अगर माननीय न्यायाधीशों की बात करें तो 1973 में न्यायमूर्ति सिन्हा द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने का साहसिक निर्णय दिया था, जो देश में आपातकाल तथा बाद में लोकतांत्रिक आंदोलन के सूत्रपात का कारक बना। परंतु अब कई न्यायाधीश, महत्वपूर्ण मामलों से अपने को अलग कर लेते हैं या निर्णय की जिम्मेदारी से बचने के लिए मामले को लंबेसमय के लिए टाल देते हैं। सरकार ने और अधिक आज्ञाकारी न्यायपालिका के लिए कॉलेजियम प्रणाली खत्म करने का कानून लाने का फैसला किया। इस कानून को जब सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई तब सरकार की तरफ से अयोग्य एवं भ्रष्ट जजों की नियुक्ति के कई मामलों को सामने लाया गया। पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के विरुद्ध गंभीर आरोप उसी की एक बानगी है।
सरकार और अदालतों के शह-मात के खेल में सभी की विफलता सामने आ रही है परंतु आम जनता न्याय न मिलने से त्रस्त है और अदालत की अवमानना के डर से खामोश भी। कानून का शासन लागू कर पाने में सरकार की नाकामी और न्याय देने में अदालतों की विफलता से पुलिस देश का सबसे ताकतवर तंत्र बन कर उभरी है। औपनिवेशिक कानून और अधिकारों से लैस पुलिस न्याय की पहली और आखिरी अदालत है, क्योंकि पंक्ति के आखिर में खड़े दलित, आदिवासी और निरीह जनता के पास महंगी और विलंबकारी न्याय व्यवस्था में जाने की न तो समझ है और न ही विकल्प। इस वजह से पुलिस लाभकारी या रसूख के मामलों को तो निपटा देती है और बाकी लोगों को अदालत की लंबी लाइन में लगा देती है। गांव में छुटभैये लोगों को अवैध शराब, आर्म्स एक्ट में जेल भेजने वाला कानून यादव सिंह जैसे माफिया इंजीनियर और बैंकों के पैसे का गबन करने वाले विजय माल्या को लंबी जांच के नाम पर बरी क्यों कर देता है?
न्यायिक तंत्र की विफलता से बेखबर सत्तासीन राजनेताओं ने न सिर्फ पुलिस सुधार के लिए कानूनों को लागू करने से हमेशा इनकार किया वरन अंग्रेजों के बनाए कानूनों को बदलने में भी नाकाम रहे हैं। देश में 3 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं, जिसमंे बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी मुकदमों का है, जो राष्ट्रीय मुकदमा नीति की अवहेलना कर दायर किए गए हैं। देश के 24 हाईकोर्ट में सरकार की निष्क्रियता से 384 पद खाली हैं। विज्ञापनों और ब्रांडिंग पर अरबों रुपए खर्च करने वाली सरकार द्वारा न्यायपालिका में सुधार और विस्तार के लिए जरूरी संसाधन मुहैया कराने में विफलता से न्यायिक तंत्र और भी बदहाल हो गया है। न्याय न मिलने से देशव्यापी निराशा है, जिसका परिणाम आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद और शहरी इलाकों में अराज़कता के रूप में दिखाई पड़ रहा है।
कातिलों के लिए मृत्युदंड से माफी की मांग करने वाले तथाकथित सभ्य समाज में आम जनता को इंसाफ नहीं मिलने से न्याय का मंदिर अब जनता की वधशाला में तब्दील हो गया है। नष्ट होते मानव समाज के संवैधानिक संरक्षण की जिम्मेदारी (धारा 21) से मुंह मोड़ता लुटियंस दिल्ली के कुलीन वकील और जज प्रदूषण से निपटने के लिए मास्क पर बहस कर रहे हैं पर संविधान के तहत समानता के आधार पर (धारा 14) न्याय तथा जीवन के अधिकार की सुरक्षा पाने में विफल आम जनता क्या करे? तीन पीढ़ी से मुकदमे लड़ने वाले ‘हम लोग’ के पास तो अब ‘मांस’ भी नहीं बचा है और उन भूखे-नंगे भारतीयों की बची हुई हड्डियों को नक्सली बताकर पीसा जा रहा है। सुशासन और विकास के झुनझुने केदौरमें न्यायिक विफलता से उपजा सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या उन हड्डियों से कोई दधीचि न्याय का मजबूत वज्र बना सकेगा? क्या इस सवाल का जवाब जल्दी मिलेगा।
विराग गुप्ता
वरिष्ठ विधि विशेषज्ञ एवं सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता