मातृत्व अवकाश पर चर्चा जरूरी– अंजलि सिन्हा

अमेरिकी मूल की बहुद्देशीय कंपनी याहू की सीइओ मारिसा मायेर आगामी दिसंबर में अपनी जुड़वा बेटियों को जन्म देनेवाली हैं. अभी वह अपनी कंपनी के काम में जितनी व्यस्त हैं, उसकी उन्हें खूब प्रशंसा मिल रही है. जिस समय मारिसा ने याहू की नौकरी ज्वॉइन की थी, तब भी वह गर्भवती थीं और नौकरी के दौरान ही उन्होंने अपने पहले बेटे काे जन्म दिया था. अपने इंटरव्यू में उन्होंने यह बात साफ तौर पर बता दी थी, लेकिन अच्छी बात यह रही कि इससे उनकी नियुक्ति पर कोई फर्क नहीं पड़ा.

इस बार के मातृत्व अवकाश के संदर्भ में उन्होंने पहले ही घोषणा की है कि वे सिर्फ दो हफ्ते की छुट्टी पर जायेंगी. पहली डिलीवरी में भी उन्होंने दो हफ्ते की ही छुट्ट ली थी. लेकिन इस मुद्दे पर चर्चा और बहस इस बार अधिक है. मारिया के इस सीमित अवकाश को लेकर यह बहस चल पड़ी है कि कहीं इसके चलते माइक्रो मैटर्निटी लीव अर्थात् गर्भावस्था हेतु संक्षिप्त छुट्टी की बात न अधिक स्थापित हो. और कहा जाने लगे कि बाॅस अगर इतनी कम छुट्टी में काम चला सकती है, तो फिर क्या बाकी कर्मचारियों को उनके नक्शे-कदम पर नहीं चलना चाहिए. यह भी सवाल उठ रहा है कि सीइओ की अपनी जिम्मेवारियां निभाने के आग्रह के चलते कहीं मां होने के अपने कर्तव्य और प्राथमिकता से वह अन्याय तो नहीं कर रही हैं?

दरअसल मसला यह है कि अन्य सभी कामकाजी महिलाओं के मातृत्व अवकाश के संदर्भ में मारिसा की पहल को कैसे देखा जाये तथा इसका मालिकों और महिला कर्मचारियों पर क्या असर पड़ेगा‍?

पहली बात यह कि मारिसा की स्थिति तथा साधारण कर्मचारियों की स्थिति में बहुत अंतर है. संपन्न तथा उच्चवर्गीय महिला को भी मारिया जैसी सुविधाएं नहीं होंगी, तो मध्यम तथा निम्नवर्गीय महिलाओं कोे वह कहां से मिलनेवाली हैं!

दूसरा मसला यह है कि मातृत्व अवकाश का मसला महिला के हक के रूप में स्थापित करने को बहुत लंबा समय लगा है और लंबे संघर्ष के बाद स्वीकार हुआ है, वह भी अभी ठीक से लागू नहीं हो सका है. सरकारी नौकरियों को छोड़ कॉरपोरेट जगत तथा निजी क्षेत्र के रोजगारों में यह सुविधा नहीं मिलती या कम मिलती है.

दुनियाभर में इस पर अध्ययन तथा शोध हुआ है कि जन्म के कुछ समय बाद तक बच्चे को स्तनपान तथा अन्य देख-रेख के साथ ही मां को भी थोड़ा आराम चाहिए. बच्चा पैदा करना एक प्रकार की प्राकृतिक प्रक्रिया है तथा सामाजिक जिम्मेवारी भी, इसलिए इसका खामियाजा सिर्फ महिला के हिस्से में न आकर पूरा परिवार, समाज तथा सरकार सभी उठाएं. हमारे जैसे समाजों, जहां घरेलू जिम्मेवारियां महिलाओं के हिस्से में अधिक हैं, वहां बच्चों को पालना सिर्फ मां के कंधों पर अधिक होता है. बच्चे को स्तनपान तो प्राकृतिक रूप से मां को ही कराना है, लेकिन बच्चे की अन्य जरूरतें पूरी करना भी स्वाभाविक रूप से उसी पर थोपा जाता है. ऐसे में ठीक छुट्टी न मिले, तो केवल नौकरी छोड़ने का ही विकल्प बच जाता है.

इस मसले का दूसरा पहलूयह है कि यदि हम अपने देश की बात करें, तो दो एकदम उल्टी स्थिति एक साथ मौजूद है. एक तरफ मातृत्व का बहुत महिमामंडन होता है तथा उसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है. मां का दर्जा फिल्मों, कहानियांे से लेकर नीति-रीति सब में उच्च है. वहीं दूसरी तरफ मांएं डिलीवरी के दौरान मरने के लिए अभिशप्त हैं. मातृ शिशु मृत्य दर अभी चुनौतीपूर्ण बना हुआ है. बच्चा पैदा होने के दौरान तथा बाद में देखभाल तथा इलाज के अभाव के कारण तमाम माताआंे एवं शिशुओं को जान गंवाना पड़ता है.

मारिसा के बहाने एक बात बेहद महत्वपूर्ण है, जिस पर चर्चा होनी चाहिए. बच्चा पैदा करना एक स्वाभाविक और प्राकृतिक कार्य है, जिसे सिर्फ महिलाएं ही कर सकती हैं. यानी नौकरी देने में यह बाधक तत्व बिल्कुल भी नहीं है. अगर याहू जैसी कंपनी का कोई नुकसान नहीं हुआ, तो बाकी जगह भी काम बिना प्रभावित हुए तथा उसकी भरपाई करते हुए बच्चे पैदा हो सकते हैं और पल-बढ़ सकते हैं. इसमंे पिता के सहयोग के साथ सरकारी नीति दुरुस्त होनी चाहिए. साथ ही महिला कर्मचारी को भी यह मानसिक तैयारी करनी है कि उसे अवसर छोड़ना नहीं है और एक कर्मचारी के रूप में अपनी जिम्मेवारी पूरी करके खुद को साबित करना है कि उसे सुविधा किसी खैरात के रूप में नहीं मिलती है. कुछ मोर्चे को ठीक कर लिया जाये, तो मातृत्व कोई अजूबा या मुश्किल नहीं होगा.

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