गांधी की अहिंसा का मर्म– जैनेन्द्र कुमार

एक संपादक भाई अहिंसा के कायल थे। पर गांधीजी के यहां उन्होंने देखा कि भजन गाया जा रहा है-
सुनेरी मैंने निर्बल के बल राम/ जब लगि गज बल अपनों बरत्यो/ नेक सरयो नहि काम/ निर्बल ह्वै बल राम पुकारयो/ तजि आए निज धाम/… द्रुपद-सुता निर्बल भई जा बिन/ नहि आयो कोई काम / आधे नाम कहत ही भैया/ बसन रूप भए श्याम/… अपबल, तपबल और बाहुबल/ चौथो बल है दाम/ सूर किशोर कृपा ते सब बल/ हारे को हरिनाम/
सुनकर इन भाई को गांधीजी की र्अंहसा पर बहुत अश्रद्धा हुई। यही क्या बलवान की अहिंसा है? यह तो उल्टे निर्बल बना सकती है। ऐसा हरिनाम का भजन राष्ट्र को निर्बल नहीं तो क्या बनाएगा? यह क्या गुलामी की मनोवृत्ति को बढ़ाना नहीं है? र्अंहसा तो हमें चाहिए, पर राम नाम का आसरा थामकर चलने वाली र्अंहसा से भला क्या होना-जाना है?

चुनांचे लौटकर उन संपादक भाई ने अपने पत्र में लिखा कि अहिंसा के नाम पर यह तो निर्बलता की सीख दी जा रही है। महाभारत में पांडवों को विजयी करने वाली कृष्ण की अहिंसा हमें चाहिए। हमको अग्नि के समान तेजस्वी र्अंहसा चाहिए। भगत सिंह वाली और शहीदों वाली अहिंसा चाहिए। मेरी विनम्र सम्मति में वह संपादक भाई अहिंसा को नहीं समझ पाए और उन्हें उस शब्द के साथ खेलना नहीं चाहिए।

लेकिन संपादक भाई को यहां छोड़ा जा सकता है और विचार किया जा सकता है कि अहिंसा में बल है, तो किस प्रकार का बल है? बल ही असल में क्या है? ऊपर के भजन में सब बल हार जाने पर ‘हारे को हरिनाम’ का बल प्राप्त होना बताया है। इससे क्या आशय है?

आदमी को आज हम पशु से निर्बल नहीं कह सकते। पशु से वह श्रेष्ठ है, यानी बल में भी श्रेष्ठ है। शेर उसके सर्कस में है और हाथी पर वह सवारी करता है। मगर यह भी स्पष्ट है कि शेर के पंजे और दाढ़ के आगे आदमी नाचीज है; और हाथी के पांव तले तो आदमी की जान बाकी ही नहीं रह सकती।

 

फिर भी आदमी इन पशुओं से बल में हीन नहीं है, तो क्यों? उत्तर है कि जिस बल से पशु बलवान है, उसको तो आदमी ने अबल बनाकर रख दिया है; क्योंकि उसने एक ऊंचे बल का आविष्कार किया है। उसको बुद्धि-बल वगैरह कहा जाता है। उसके आगे पशुबल नपुंसक बना दीखता है। 
आरंभ में आदमी अन्य वनचर प्राणियों में एक था। तब से अब तक सभ्यता का इतिहास नए बलों के आविष्कार का इतिहास है। प्रत्येक नवीन बल ने पुराने बल को अबल ठहरा दिया। अबल में नवीन बल का आविष्कार सदा ही उस व्यक्ति द्वारा हुआ है, जिसके मन में पुराने बलों की अबलता पहले ही घर कर गई है। आविष्कारक दुनियावी सफलता से विमुख रहे हैं और प्रतिभावान धनाकांक्षी नहीं होते। क्यों? क्योंकि दुनियावी सफलता व धन की यथार्थता से एक ऊंची यथार्थता का आभास उन्हें होताहै।

 

अहिंसा का बल, बेशक, किसी भी दूसरे लौकिक बल-प्रयोग के स्वेच्छापूर्वक त्याग बिना संभव नहीं हो सकता। वह अहं बल नहीं है। इसलिए बुद्धि-बल से भी वह भिन्न है। दुनिया में जिन बलों को हम जानते हैं, उनसे वह निराले प्रकार का है। उस बल से बलवान आदमी अपने को जितना विनम्र मानता है, उतना ही सेवक बनता है। क्योंकि वह अहं का नहीं है, इसलिए वह हरि का है। इसीलिए अहिंसक शक्ति संपादन करने वालों को अकिंचन बनना होता है। जिसके पास धन के, कुल के, विद्या के, बुद्धि के, बल के, गर्व के लिए स्थान बचा है, वह अभी पूरे अहिंसा के बल का पात्र नहीं है।

जो आस्तिक है, उसे अपने ईश्वर के सिवा दूसरा और सहारा ही क्यों चाहिए? इसलिए उसे अस्त्र भी नहीं चाहिए। अस्त्र शंका और भय से आता है। लेकिन आस्तिक को शंका कैसी? और उसको भय कैसा? मृत्यु में भी क्या वह अपने ईश्वर के आदेश को ही नहीं देखता? इसलिए मृत्यु को भेंटने में भी उसे कोई झिझक नहीं है। वह समभावी है। उसे अविश्वास की जरूरत नहीं, क्योंकि वह आत्म-विश्वासी है। किससे लड़ने को वह अस्त्र बांधे? उसका ईश्वर तो सब कहीं है। इसलिए प्रार्थना से ही वह अपना बल प्राप्त करता है। वह बल करुणा से बनता है और स्नेह उसके दान का स्वरूप है।

क्या हम जिसे बल कहते हैं, उसे भीतर से समझने का प्रयास उठा सकते हैं? अगर उठा सकते हैं, तो हम देखेंगे कि हरेक बल के नीचे एक निर्बलता की स्वीकृति है। क्रोध में ताकत है, पर क्रोध में समझ की निर्बलता है। शेखी अंदर की कमी को ढकने के लिए बनती है। बहादुरी, सिपाहियाना बहादुरी, कौन जानता है कि किसी एक प्रकार के भय का ही बचाव नहीं है? अर्थात सब प्रकार का अहं बल भीतरी निर्बलता की पहचान में से आता है। हम जानते हैं कि हम निर्बल हैं, लेकिन हम अपने को जतलाना चाहते हैं कि हम निर्बल नहीं हैं।

हम दुनिया का इतिहास देखते तो हैं। साम्राज्य बने, साम्राज्य ध्वंस हो गए। सरकारें बदलीं, क्रांतियां हुईं। एक राज्य के शव पर दूसरा कायम हुआ। राजा हट गया, तो पार्टी आ गई। पार्टी गिरी कि अधिनायक उठ खड़ा हुआ। इस तरह एक-एक आदर्श के नाम पर हम मारकाट मचाते चले आए हैं। स्वतंत्रता, समता, एकता आदि-आदि के पीछे खून बहाते हुए हम बढ़े हैं, तो इस पार आकर यह भी पाया है कि हम मृग-तृष्णा पर ललकते रहे हैं। हिंसा का रास्ता बंधुत्व तक नहीं पहुंचा सकता, नहीं पहुंचाएगा। अहिंसा के बल से ही एकता बढ़ सकती है और विश्व-बंधुत्व आ सकता है। क्योंकि वही बल है, जिसमें अहंकार का पोषण नहीं होता। बल्कि उसका विसर्जन होता है। नहीं तो तरह-तरह के आदर्शों के नाम पर और राष्ट्रीयता के नाम पर अहंकारों को पुष्ट किया जाता है। उससे बंधन ही बढ़ सकता है, स्वतंत्रता के दर्शन नहीं हो सकते। क्योंकि शासन-पदों पर बैठे हुए लोगों के अदल-बदल जाने से जन-स्वातंत्र्य का किंचित भी संबंध नहीं है।

इसलिए जिससे मानवता का सच्चा हित होगा, जिसमेंछलकी संभावना नहीं है, वह बल सेवा का बल है, श्रद्धा का बल है। ईश्वर के समक्ष अपनी निरीह अकिंचनता की संपूर्ण स्वीकृति से प्राप्त होने वाला निरहंकारी बल है। बाकी सब अपने ही भीतर की राक्षसी माया है।

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