कहते हैं कि गलत वक्त पर या समय बीत जाने के बाद सही फैसले भी कई सारे सवाल पैदा करते हैं। बहुत बार नीयत पर भी प्रश्नचिह्न लगता है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश रवींद्र सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त पद के लिए अपनी दावेदारी यह कहते हुए वापस ले ली है कि लोकायुक्त जैसे सांविधानिक पद पर नियुक्ति में विवाद उचित नहीं था। उन्होंने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को पत्र भेजकर अनुरोध किया है कि उनके नाम पर विचार न किया जाए।
जस्टिस रवींद्र इसके लिए साधुवाद के पात्र हैं, लेकिन दिल की आवाज सुनने में उन्होंने कदाचित ज्यादा देर कर दी। उन्होंने यह निर्णय तब लिया, जब राजभवन और सरकार के बीच टकराव चरम पर पहुंच गया। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ न्यायाधीश रवींद्र के नाम पर सहमत नहीं थे। उन्होंने पत्र लिखकर मुख्यमंत्री और राज्यपाल को अपनी आपत्ति से अवगत करा दिया था, जिसके आधार पर राज्यपाल ने नियुक्ति संबंधी फाइल सरकार को चार बार लौटाई।
पूर्व न्यायाधीश रवींद्र को अच्छी तरह पता है कि उत्तर प्रदेश लोकायुक्त, उप लोकायुक्त अधिनियम, 1975 में प्रावधान है कि लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए मुख्यमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की बैठक व तीनों की सहमति अनिवार्य है। सुप्रीम कोर्ट का भी स्पष्ट फैसला है कि लोकायुक्त के नाम पर मुख्य न्यायाधीश की सहमति जरूरी है। उन्हें उसी समय खुद को विवादों से अलग कर लेना चाहिए था, जब छह अगस्त को मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ सिंह ने मुख्यमंत्री और राज्यपाल को लिखे पत्र में कहा था कि ऐसे साक्ष्य हैं, जो रवींद्र सिंह की राजनीतिक प्रतिबद्धता साबित करते हैं। मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी है कि सत्तारूढ़ दल के साथ करीबी रिश्ता रखने वाला शख्स पारदर्शिता के साथ दायित्व नहीं निभा सकता।
शायद वह अपनी नियुक्ति के लिए लोकायुक्त अधिनियम में संशोधन का इंतजार कर रहे थे। उन्हें लोकायुक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध प्रदेश सरकार ने विधानसभा सत्र के आखिरी दिन सदन से लोकायुक्त, उप लोकायुक्त अधिनियम में संशोधन कर विधेयक पारित कराया। संशोधन में मुख्य न्यायाधीश की सहमति का प्रावधान खत्म कर सेवानिवृत्त न्यायाधीश और राज्य विधानसभा के अध्यक्ष का नाम जोड़ा गया। पर इससे नेता प्रतिपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य भी सरकार पर हमलावर हो गए, जिन्होंने रवींद्र के नाम पर सहमति दे दी थी। राज्यपाल ने इस संशोधन विधेयक को रोक लिया है। इस मसले पर इलाहाबाद हाई कोर्ट में भी सुनवाई चल रही है। हाईकोर्ट ने नियुक्ति प्रक्रिया का रिकॉर्ड तलब किया है, जिसमें मुख्यमंत्री, मुख्य न्यायाधीश व राज्यपाल के बीच हुए सभी पत्राचार शामिल हैं।
जब सरकार ने समझ लिया कि वह जस्टिस रवींद्र सिंह को लोकायुक्त नहीं बना सकती, तो पुराने आधार पर नियुक्ति के लिए अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों की एक सूची बनाई और सहमति प्राप्त करने के लिए मुख्य न्यायाधीश व नेता प्रतिपक्ष की बैठक बुलाई, लेकिन उसमें कोई निर्णय नहीं हो सका। सुप्रीम कोर्ट ने लोकायुक्त नियुक्ति की जो सीमा तय की थी, वह बीत गई है और अभी मौजूदा लोकायुक्त एन. के. मेहरोत्रा को ही सेवा विस्तार दिया गया है। इस मसले पर हाई कोर्ट में भी सुनवाई चल रही है। अंतिमफैसला क्या होगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन न्यायिक हलकों में इसका संदेश अच्छा नहीं गया है।